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________________ २५० ........-.--...-....--." तस्वभावना (जितपवनजवा) पवन के वेग से अधिक चंचल है (रे आस्मन्) हे पात्मन् (त्वया) तूने (भवगहनवने भ्राम्यता) इस संसार के भयानक वन में भ्रमण करते हुए (सौख्यहेतुः) सुख का कारण (किं दृष्ट) क्या देखा है ? (येन)जिस कारण से (त्वं) तू (सर्व बाह्य)सर्व बाहरी पदार्थ को(अत्यस्य) भले प्रकार त्याग करके (सततं) सदा (स्वार्थनिष्ठः) अपने आत्मा में लीन (न भवसि) नहीं होता है। ____ भावार्थ-आचार्य ने दिखलाया है कि यह मोही जीव जिनः जिन सांसारिक पदार्थों को अपना माना करता है वे सब पदार्थ इस आत्मा के सच्चे हित में बाधक हैं । मात्मा का यथार्थ हित स्वात्मानुभव की प्राप्ति करके आत्मानन्द का विलास करना है और धोरे-२ कर्मबन्धनों से मुक्त होकर परमानन्द पाना है, इस वैराग्यमई कार्य में जितने भी राग के कारण हैं वे सब वाधक हैं स्त्रियों का सम्बन्ध वास्तव में गृहबंजाल का बीज है, मोह को पैदा कराने वाला है। पुत्र पुत्रियों की संतति का व उनके साथ अनेक आरम्भ परिग्रह की वृद्धि का कारण है अतएव अनेक हिंसादि पापों के निरन्तर कराने का निमित्त है, पुत्र व परिवार सर्व मोह के कारण हैं, उनके राग में फंसा हुआ प्राणी आत्महित से दूर हो जाता है। उनके निमित्त से बहुत से न करने योग्य कामोंको मोहो जीव क र डालता है । शरीर का सम्बन्धभी दुःख ही का हेतु है । क्षुधाता तो इसके नित्य के रोग हैं। ज्वर,खांसी स्वांस, फोड़ा, फुसी आदि अनेक रोग और इसके साथ लगे हुए हैं । जिस लक्ष्मी को पा करके ये प्राणो संतोष मानते हैं उसके बहने का बहुत कम भरोसा है । पुण्य के क्षय होते ही राज्य का भी नाश हो जाता है। क्षण मात्र में धनवान प्राणी निधन हो जाता है।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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