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________________ तस्वभावना [ २६३ अन्वयार्य--(ये) जो (मुक्तिविषये) मोक्ष के सम्बंध में (बद्धस्पृहा) अपनी उत्कंठा को बांधने वाले (निस्पृह) संसारीक इच्छाके त्यागी हैं और (सद्रत्नत्रयपोषणाय) सच्चे रत्नत्रय धर्म को पालने के लिए (त्याज्यस्य) त्यागने योग्य (वयुषः) इस शरीर की (रक्षापराः) रक्षामें तत्पर हैं और जो (धर्माभिः )धर्मात्मा (दातृभिः) दातारों से (दत्तं) दिए हुए (गतमलं) दोष रहित (अशन मात्रक) भोजन पात्रको (परिग्रह)ग्रहण करके (लज्जते) लज्जाको प्राप्त होते हैं (ते दमधराः) वे संयमके धारी यति (किं) क्या (संयमध्वंसकम्) संयम को नाश करने वाली (परिग्रह) परिग्रह को (गृह्णन्ति) ग्रहण करते हैं । भावार्थ- यहां आचार्य ने बताया है कि जनधर्म को यथार्थ पालने वाले साधुजन कभी भी परिग्रह को ग्रहण नहीं करते हैं। धन, धान्य आदि परिग्रह हिंसादि आरम्भ का कारण है जिसने महावत रूप साधुसंयम नहीं पाल सकता है । इसीलिए साधुजन सर्व परिग्रहको त्याग कर ही मुनि होते हैं । वे परिग्रहको ममता का निमित्त कारण जानते हैं। ऐसे साधुओंको किसी भी इंद्रिय भोगकी कोई इच्छा नहीं होती है। वे मात्र कर्मों से मुक्ति ही चाहते हैं । उनकी रातदिन भावना यही है कि हम आत्मध्यान करके कर्मोको काटकर मुक्त हो जावें, ऐसे साघु संघम पालने के लिए ही इस शरीर की रक्षा करना चाहते हैं । इसलिए वे ऐसा ही भोजनपान शरीरको देते हैं जिसे धर्मात्मा श्रावकों ने भक्ति पूर्वक दिया हो । तथा जिसमें उद्दिष्ट आदिका कोई दोष न हो। ऐसे भोजनको लेते हुए भी उनको लज्जा आती है और रातदिन यह भावना भाते हैं कि इस शरीरको पराधीनता मिटे और यह आत्मा निराकुल भाव में तल्लीन हो ऐसे साध कभी भी धन धान्यादि. परिग्रहको जिसे वे संयममें बाधक जानकर त्याग कर
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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