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________________ तस्वभावना [ ११५ व उनपर कोई भापत्ति आती है तो इसे बड़ा खेद होता है । सांसारिक पदार्थोका सम्बन्ध व रक्षण आदिकी विधि करते हुए महान संकटों को सहना पड़ता है। जो कोई मर्ख कर्मों के उदयसे प्राप्त चेतन व अचेतन सम्पदा को अपनी मानता है वह मानो कर्ज लाकर पर की लक्ष्मी को अपनी मानता है। जो कर्ज लेकर व्याज सहित धन चुकाता नहीं है वह अन्त में राजदण्ड आदि पाता है । बुद्धिमान कर्ज के मन में कभी ममता नहीं करते हैं। वह उसको परका ही मानते हैं व सोन हो उसको दे डालना चाहते हैं इसी तरह कर्मोके उदयसे प्राप्त पदार्थोंको ज्ञानी जीव अपना कभी नहीं मानते हैं- कमोके छूटने पर छूट जाने वाल हैं । ज्ञानी अपनी आत्मीक शानदर्शन सुख वीर्यमई सम्पत्ति के सिवाय और किसी को अपनो नहीं मानता है। तत्वज्ञानी को यही भाव अपने मन में रखकर आत्मतत्वका मनन करना चाहिए । शानी ऐसा विचारते हैं जैसा स्वामी अमितगतिजी ने सभाषितरत्नसंदोह में कहा है किमिहपरमसौख्यं निःस्पृहस्वं यदेतरिकमथ परमदुःखं सस्पृहरवं यवेतत् । ति मनसि विधाय त्यक्तसंगाः सवा ये, विधति जिनधर्म ते नराः पुण्यवन्तः॥१४॥ भावार्थ-जो मनुष्य ऐसा मनमें निश्चय करके कि इच्छा रहितपना हो परम सुख है तथा इच्छा सहितपना हो महान दुःख है परिग्रहों को छोड़कर जिनधर्म को धार करके सेवते हैं यह ही पुण्यात्मा हैं। मूलश्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडित छन्द नाना दुख करकर्मसंग बराते, पाई सकल संपदा । बनितापुत्रसुमित राजलक्ष्मी, ष नाश करती सदा।
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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