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________________ तत्त्वभावना [६६ तीवनासप्रवायि प्रभवमतिजराश्वापदवासपाते। दुको अप्रत्ते भारतको विरो ।। भ्राम्यन्नप्रापि नत्वं कथमपि शमतः कर्मणोदुष्कृतस्य । नो चेद्धर्म करोषि स्थिरपरमधिया बंचितस्त्वं तवात्मन् ।४२४ भावार्थ-यह संसार वन महा भयानक है जहाँ तीव्र दुःखी को देनेवाले जन्म जरा मरणरूपी हिंसक जोवों के समूह विचर रहे हैं, व जहां दुःखों के कारणोंका ही जाल है, ऐसे वन में घूमते ' हुए पाप कर्मोंके कम होने से बहुत ही कठिनता से नरजन्म पाया है ऐसी स्थिति में हैं आत्मन ! यदि तू स्थिर वृद्धि करके धर्मका। साधन न करेगा तो तू बास्तव में यहाँ ठगा गया है, ऐसा माना जाएगा। मूल इलोकानुसार भुजंगप्रयात छन्द अवे मर्ण आवे न कोई बचाये। न माता न कांता सुत इन्द्र आवे || न वैद्या न विप्रा न राजा न चाकर। यही जान बुधजन निजातम करमकर ॥३३ उस्थानिका-आगे कहते हैं कि शरीर को क्षणभंगुर जानकर मोह का त्याग करना चाहिए। विविनरुपायः सदा पाल्यमानः । स्वकीयो न देहः समं यत्न याति ।। कथं बाह्यभ्र सानि विसानि तन । प्रबुद्धयेति कृत्यो न फुवापि मोहः ॥३४॥ अन्वयार्थ—(यन)जिस संसार में (विचित्र:)नाना प्रकार के
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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