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________________ तत्त्वभावना [ २०३ है मात्र शुद्ध भाव ही मुक्ति के हेतु हैं । इसलिए आचार्यका उपदेश है कि मोक्षके इच्छुक प्राणीको उचित है कि शुद्ध भावों की प्राप्तिका उद्यम करे और इस हेतुसे वह अपने आत्माके अनुभव करनेका अभ्यास करे यह तात्पर्य है। श्री पद्मनंद मुनि निश्चय पंचाशत् में कहते हैं-- शुद्धामछुमशुद्धं ध्यायन्नाप्मोत्यशुद्धमेव स्वम् । जनयति हेम्नो हैमं लोहाल्लोहं नरः कटकम् ॥१८॥ मावार्थ ----शुद्ध भाव से शुद्ध आत्मा का लाभ होता है तथा अशुद्ध रूप ध्यान से अशुद्ध भाव का ही लाभ होता है । जैसे सुवर्ण से सोनेका कड़ा व लोहेसे लोहे का ही मनुष्य का सनाता है। यह सिद्ध है शुद्ध भाव ही आनंद का हेतु हैमूल श्लोकानुसार शार्दूलविक्रीडिल छन्द अशुभ कर नरकं स्वर्ग शुभ भाव लाये । शिवपद सुखकारी शुद्ध परिणाम पावै ।। आतम बलकारी प्रगट हैं शुद्ध भावा । इम लख शिवकामो नित कर शुद्धमाया ॥७॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि चारों ही गति दुःखरूप है इसलिए सुख के लिए मोक्षका प्रयत्न हितकर है । शार्दूलविक्रीडित छन्द श्वमाणां अविसह्यमंतरहितं दुअल्पमन्योभ्यम् । दाहच्छेदविभेदनादिजनितं दुःखं तिरश्चां परम् ॥ नणां रोपवियोगजन्ममरणं स्वर्गकसां मानसम् । विश्वं वीक्ष्य सवेति कष्टहलितं कार्या मतिर्मुक्तये ।।७६
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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