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________________ सत्यभाभदा मेरे मन में वैराग्य पैदा हो जावे। सम्यग्दष्टि ऐसा नित्य विचार करता रहता है तथा जिसे आत्मा पर दृढ़ विश्वास हो गया है व जिसके स्वरूप का दर्शन सम्यक्त होते समय हो चुका है वह इस आत्मा का ही अनुभव समय-समय करता रहता है और इसी भेदविज्ञान के अभ्याससे उसके काय कर्म धीरे-धीरे दुबल होते चले जाते हैं। इसीलिए वैराग्य की भावना परम कार्यकारी है। तत्वभावना से ही आत्मा का कार्य बनता है । मूल झलोकानुसार मालिनी छन्द विषय सुख असारा दुःख भयप्रद अपारा। दुर्गति दुखवाता संत निवित बिचारा ।। हैं अपिर विचारू खेद ! नहि भोग त्या। शरण काफी लूँ कौन शुभ यल लागू ॥१५॥ उत्थानिका-आगे भावना करने वाला विचारता है कि थी जिनेन्द्र के चरण मेरे हृदय में सदा जमे रहे यह ही एक उपाय है मोहध्यान्त मनेकदोषजनक मे भरिसुतुं वोपकापुरकीर्णायिन कोलिताविव हृदि स्यताविवेन्द्रार्चितौ ॥ आश्लिष्टाविय बिबिताधिव सदा पादौ निखाताविव ! स्थेयास्तां लिखिताविवाघदहनौ बद्धाविवाहस्तव ।।१६।। अन्वयार्थ (अहम ) है अहंन्त देव (मे) मेरे (हृदि) हृदय में (अनेकदोषजनक) अनेक रागादि दोषों को पंदा करने वाले (मोहटवातं) ऐसे मोहरूपी अंधेरे को (भत्सित) हटाने के लिए (दीपको) दोपक के समान (इन्द्र।चितो) इन्द्रों के द्वारा पूजने योग्य तथा (अघदनो) पापों के जलाने वाले (तव) आपके
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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