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________________ तत्त्वभावना तस्परः परमयोगसपवाम् पानमन न पुनर्वहिर्गतः। नापरेण चलितः पथेप्सितः स्थानलानविभयो विमाच्यते ।१० भावार्थ-जो आत्मध्यान में लीन हैं वही उत्तम योग की संपदा का पात्र होता है। जो आत्मध्यान से बाहर हैं बह योगी नहीं ले सकता है । जो कोई आत्मध्यान के सिवाय अन्य मागसे चलता है वह अपने इच्छित मोक्ष स्थान के लाभ को नहीं प्राप्त कर सकता है । अतएव आत्मध्यान ही को उत्तम कार्य मानना अ इसीका अभ्यास करना हितकर है। मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द ओ विषय विकारं त्याग निज आत्म जाने । पथिक सम विहारी देह में नित्य माने ॥ विषम भव समुन्नं तुर्त हो पार करता। पशुपद यत् क्षण में मुक्तितिय आप धरता ॥३॥ उस्थानिका-आगे कहते हैं कि जो संसारिक सुखसे विमख होता है वहीं आत्मसुख को पाता है : बाह्यं सौख्यं विषयलनिसं मुंचते यो दुरन्तं । स्थेयं स्वल्यं निरुपममसौ सौख्यमाप्नोति पूतम् ॥ योऽन्यजन्यं श्रुतिविरतये कर्णयुग्मं विधत्ते। तस्यच्छम्नो भवति नियतः कर्णमध्येऽपि घोषः ॥३६॥ अन्वयार्य--(यः) जो कोई (दुरन्त) दुःखदाई (बाह्य) बाहरी (विषयजनितं) इन्द्रिय जनित (सौख्यं) सुखको (मंचते) स्याग देता है (असो) वही (स्वस्थ )अपने आत्मामें स्थित(स्थेयं ) अविनाशी व(निरुपमम् )उपमारहित व (पूतम्)पवित्र (सोख्यम) सुखको (आयोति) पा लेता है (यः)जो कोई (अन्यः जन्यं श्रुतिः
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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