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________________ ४४ ] में पहुंचता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्वारित्र मई निश्चय रत्नत्रय को जो स्वानुभवरूप है जैनधर्म कहते हैं। यह स्वानुभव परम वैराग्यमई है। यहां रागद्वेषसे रहित समतामयभाव है। इस स्वानुभाव में रुकी हुई परिणतिको वीतराग भाव कहते हैं तथा स्वानुभूति की रुचि रखते हुए स्वानुभूति के कारणरूप अर्हत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय तथा साधू इन पंचपरमेष्ठियों की भक्ति करना शास्त्र विचारकरना आदि कार्यों में रागभाव को शुभोपयोग कहते हैं। यह जैनधर्म परम कल्याणकारी है। इसी स्वानुभव रूप जैन धर्मकी शक्ति चार घातिया कर्मनाश हो जाते हैं और यह जीव केवलज्ञानी परमात्मा होजाता है । इसलिए यह धर्म पर्वतों के चूर्ण करनेको वच्चके समान है। यह संसार समुद्र - रागद्वेष के जलसे भरा हुआ है। इनमें अनेक विभावरूपी लहरें उठ रही हैं इससे पार होना बहुत कठिन है परन्तु जिनको वीतरागमय और जानमय धर्मरूप जहाज मिल जाता है वे इसके पार हो जाते हैं, यह जहाज सर्व साधारण के लिए है। किसीको इसपर चढ़नेकी मनाई नहीं है। जो संसार - समुद्र से तर जाने के लिए दिल में पक्के उत्साही हैं उनको यह धर्मरूपी जहाज वरण देता है क्योंकि यह जैनधर्म अहिंसा धर्मके व्याख्यान में बस स्थावर सर्व प्राणी मात्रकी रक्षाका उपदेश देता है व पूर्ण अहिंसाधर्मके धारी साधु - तदनुसार वर्तते हुए सर्व जीवमात्र को रक्षा करते हैं। अतएव उनका बर्तन पिता के समान होता है इसलिए यह जैनधर्म भी प्राणियोंकी रक्षाके उपाय बतानेके कारणसे पिता के समान है । ऐसे पवित्र जैनधर्मकी जो सेवा करेंगे वे दुःखों से बचकर उन्नति करते २ परमात्मापद में अवश्य पहुंच जाएंगे। धर्म की महिमा तत्त्वभावना
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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