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________________ तत्त्वभावना [८६ लप्तु मन्मथमंथराः सुरवधूकिं चनोस्कनसे । रे प्रान्त्या झमृतोपमं जिनवचस्त्वं नापनोपद्यसे ॥२६॥ अन्वयार्थ- (रे) रे मन (त्वं) न कभी तो (अधः) पाताल में जाकर (भोगिनितंबिनीसुखं) नागकुमारी देवियों के सुख को (भोक्तंभोगने के लिए(चिता)चिता (पनीपत्स्यसे) करता रहता है, कभी (अनन्यलभ्यविभवं) दूसरेके पास प्राप्त न हो सके ऐसी विभूति वाले (राज्य) चक्रवर्ती के राज्यको (प्राप्त प्राप्त करनेके लिए (क्षोणी) इस पृथ्वी पर (चनीकस्यसे) आनेकी इच्छा किया करता है तथा कभी (मन्मथमंथरा:) कामसे उन्मत्त ऐसो (सुरवधूः) स्वर्गवासी देवों की देवांगनाओं को (लुप्त) पाने के लिए (नाक) स्वर्ग में (चनीस्कद्यसे) जानेको उत्कंठा किया करता है (भ्रान्त्या) इस भ्रम में पड़कर (हि) असलमें (हमतोपमं)अमृत के समान सुखदाई (जिनवचः) जिनवचन को (नापनीपद्यसे) नहीं प्राप्त करता है अर्थात् जिनवाणी के आनंदके लेनेसे दूर-२ भागता है यही खेद है। भावार्थ-यहां आचार्य फिर मन को उल्हना देते हैं कि तू बड़ा मूर्ख है जो रातदिन इंद्रियोंके विषयों में लम्पटी रहता है और यहीं चाहता है कि मैं भवनवासी देवों में पैदा होकर नाय. कुमारी स्त्रियों का भोग करूं व स्वर्ग में जाकर स्वर्ग की महा मनोहर स्त्रियोंके साथ काम चेष्टा करूं व नरलोकमें चक्रवर्तीके समान विभूति पाकर छियानवे हजार स्त्रियोंका एकसाथ अपनी विक्रिया के बलसे भोग करूं । खूब पांचों इन्द्रियों के विषयों को भोग इस चिंता में रहता हाव चाह की दाह में जलता हा कभी भी सूखी नहीं होता है। एक तो चाह करने मात्र से इन्द्रियों के सुख मिलते नहीं। यदि मिल भी जाते हैं तो उनके भोगोंसे तृप्ति होती नहीं और अधिक भोगने की चाह बढ़ जाती
SR No.090489
Book TitleTattvabhagana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherBishambardas Mahavir Prasad Jain Saraf
Publication Year1992
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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