Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरीशान्ति आचार्य महाप्रज्ञ । SCUOLL LLLL Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादक : मुनि दुलहराज © आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) मूल्य : पचपन रुपये / संस्करण २००० / मुद्रक : पवन प्रिंटर्स, दिल्ली-३२ Rs. 55.0, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति प्यास जीवन की शाश्वत अपेक्षा है और जल उसका चिरकालीन समाधान। कंठ और होठों में प्रकट होने वाली यह प्यास अन्तिम प्यास नहीं है। एक प्यास इससे भी गहरे में है। वह इससे अधिक तीव्र है। वह इतनी गूढ़ है कि उसके समाधान की दिशा अभी अनावृत नहीं है। उसके समाहित होने पर मनुष्य का हर चरण तृप्ति और सुख की अनुभूति के नीलोत्पल का स्पर्श करते हुए आगे बढ़ता है और उसकी असमाहित दशा में मानवीय चरण क्लेश और क्लांति की कंटकाकीर्ण पथ की अनुभूति में विदीर्ण हो जाता है। नियति का कितना क्रूर व्यंग्य है कि मनुष्य को साधन-सामग्री उपलब्ध है, किन्तु उसकी अनुभूति का महास्रोत उपलब्ध नहीं है। वह है. शान्ति। शान्ति चेतना की नकारात्मक स्थिति नहीं है। वह मन की मूर्छा नहीं है। वह अन्तःकरण की क्रियात्मक शक्ति है। अन्तःकरण जब अन्तःकरण का स्पर्श करता है, मन जब मन में विलीन होता है और चैतन्य का दीप जब चैतन्य के स्नेह से प्रदीप्त होता है तब क्रियात्मक शक्ति प्रकट होती है। वही है मन की शान्ति। शान्ति का प्रश्न जितना युगीन है उतना ही प्राचीन है। इसके शाश्वत स्वर को श्रव्य करने का यह विनम्र प्रयत्न आपके हाथों में है। इसकी मांग भी उतनी ही है जितनी शान्ति की है। इसकी मांग उस चाह की पूर्ति का निमित्त बन सके, इसके अतिरिक्त मेरे लिए अभिलषणीय क्या हो सकता है? आचार्य महाप्रज्ञ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम __ मैं और मेरा मन १. मैं २. मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न ३. स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य ४. सत्य क्या है? ५. सूक्ष्म की समस्या ६. बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न ७. मेरा अस्तित्व ८. ऐन्द्रियिक स्तर पर उभरते प्रश्न ६. सुख की जिज्ञासा १०. मन की चंचलता का प्रश्न ११. मनोविकास की भूमिकाएं १२. व्यक्ति और समाज १३. सामूहिकता के बीच तैरती अनेकता १४. क्या मैं स्वतंत्र हूं? १५. अहिंसा का आदि-बिन्दु १६. अहिंसा का अर्थ १७. अहिंसा की अनुस्यूति १८. सापेक्ष सत्य धर्म-क्रान्ति १. धर्म । क : कल्पनाएं तीन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭ ८४ ७ २. धर्म और संस्थागत धर्म ३. धर्म की आत्मा-एकत्व या समत ४. धर्म का पहला प्रतिबिम्ब-नैतिकता ५. अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ६. दुःख-मुक्ति का आश्वासन ७. धर्म की कसौटी ८ धर्म का रेखाचित्र ६. क्या धर्म श्रद्धागम्य है? १०. धर्म और उपासना ११. धर्म की परिभाषा १२. धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक १३. यम और नियम १४. व्रत की शक्ति १५. घेरे की शक्ति १६. क्षमा १७. मुक्ति १८ आर्जव १६. मार्दव १०४ २०. लाघव १०६ २१. सत्य १०८ २२. संयम ११० २३. तप ११२ २४. त्याग ११३ २५. ब्रह्मचर्य २६. कला और कलाकार ११७ २७. आस्था का एकांगी अंचल १२८ २८. सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा २६. शाश्वत सत्य और युगीन सत्य ३०. आग्रह और अनाग्रह १२८ ३१. अध्यात्म-विन्दु १०२ ११५ १२३ १२६ १२६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ १४१ मानसिक शान्ति के सोलह सूत्र व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्र : १. उदर-शुद्धि २. इन्द्रिय-शुद्धि ३. प्राणापान-शुद्धि ४. अपान वायु और मनःशुद्धि ५. स्नायविक तनाव का विसर्जन ६. ग्रन्थि-मोक्ष ७. संकल्प-शक्ति का विकास ८. मानसिक एकाग्रता १४७ १५० १५४ १५८ व : सामुदायिक साधना के आठ सूत्र : १८३ १८६ १६१ १. सत्-व्यवहार २. प्रेम का विस्तार ३. ममत्व का विसर्जन या विस्तार ४. सहानुभूति ५. सहिष्णुता ६. न्याय का विकास ७. परिस्थिति का प्रबोध ८. सर्वांगीण दृष्टिकोण ६. निगमन १५ १६६ २०३ २०६ २१२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं और मेरा मन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. मैं मैं मुनि हूं। आचार्यश्री तुलसी का वरद हस्त मुझे प्राप्त है। मेरा मुनि-धर्म जड़ क्रियाकाण्ड से अनुस्यूत नहीं है। मेरी आस्था उस मुनित्व में है जो बुझी हुई ज्योति न हो। मेरी आस्था उस मुनित्व में है, जहां आनंद का सागर हिलोरें भर रहा हो। मेरी आस्था उस मुनित्व में है, जहां शक्ति का स्रोत सतत प्रवाही हो। मैं एक परम्परा का अनुगमन करता हूं, किन्तु उसके गतिशील तत्त्वों को स्थितिशील नहीं मानता। मैं शास्त्रों से लाभान्वित होता हूं, किन्तु उनका भार ढोने में विश्वास नहीं करता। मुझे जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमें अतीत और वर्तमान का वियोग नहीं है, योग है। मुझे जो चेतना प्राप्त हुई है, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है। मुक्त है, मुझे जो साधना मिली है, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही मेरा जीवन-धर्म है। वही मेरा मुनित्व है। मैं उसे चादर की भांति ओढ़े हुए नहीं हूं। वह बीज की भांति मेरे अन्तस्तल से अंकुरित हो रहा है। एक दिन भारतीय लोग प्रत्यक्षानुभूति की दिशा में गतिशील थे। अब वह वेग अवरुद्ध हो गया है। आज का भारतीय मानस परोक्षानुभूति से प्रताड़ित है। वह बाहर से अर्थ का ऋण ही नहीं ले रहा है, चिन्तन का ऋण भी ले रहा है। उसकी शक्तिहीनता का यह स्वतः स्फूर्त साक्ष्य है। मेरी आदिम, मध्यम और अन्तिम आकांक्षा यही है कि मैं आज के भारत को परोक्षानुभूति की प्रताड़ना से बचाने और प्रत्यक्षानुभूति की ओर ले जाने में अपना योग दूं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति :: २. मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न 'रात की वेला थी । मैं बैठा था और मेरे सामने बिजली जल रही थी । उसका प्रवाह गया और घना अंधकार छा गया। दो पल में फिर उसका प्रवाह आया और फिर प्रकाश हो गया। दस मिनट में ऐसी तीन-चार आवृत्तियां हुईं। मैंने सोचा, प्रकाश स्वाभाविक नहीं है, वह कृत्रिम है । स्वाभाविक है अंधकार । उसका न कोई शक्तिस्रोत (पावर हाउस) है और न ही उसके लिए कोई बटन दबाना होता है । हर कोई समझ सकता है कि वह कृत्रिम नहीं है। प्रकाश के लिए कितना चाहिए - बिजली - घर, विद्युत्प्रवाह, प्रदीप आदि बहुत कुछ। 1 1 मैंने फिर सोचा, मनुष्य कैसा आग्रही है, जो स्वाभाविक है, उससे दूर भागता है और जो स्वाभाविक नहीं है, उसके लिए प्रयत्न करता है क्षमा स्वाभाविक नहीं है । स्वाभाविक है क्रोध । प्रतिकूल वातावरण में क्रोध सहज ही उभर आता है । क्षमा सहज ही प्राप्त नहीं होती । उसके लिए चिरकालीन अभ्यास करना होता है और अभ्यास करने पर भी अनगिन बार क्रोध क्षमा को पराजित कर देता है । मैंने मन-ही-मन सोचा - मैं मुनि हूं और मुनि होने के कारण उपदेष्टा भी हूं। मैं जनता को सम्बोधित कर रहा हूं कि वह क्षमा करे । मैंने क्षमा करने के लिए अनेक बार जनता को सम्बोधित किया है क्रोध करने के लिए उसे कभी सम्बोधित नहीं किया। फिर भी वह जितनी बार और जितना क्रोध करती है, उतनी बार और उतनी क्षमा नहीं करती तो फिर इसका क्या हेतु है कि मैं उसे क्षमा के लिए बार-बार सम्बोधित करूं? मैंने देखा, एक आदमी बहुत डरता है । वह डर का वातावरण उपस्थित होने पर ही नहीं डरता किन्तु मानसिक कल्पना से भी डरता 1 । वह जीवित है । वास्तविक मौत उसकी नहीं हो रही है, फिर भी वह काल्पनिक मौत से डरता है और बहुत बार डरता है । मैंने उसे समझाया कि वह डरे नहीं । मौत एक दिन निश्चित है, डरेगा तो भी और न डरेगा तो भी। डर के बिना जो मौत आएगी, वह दुःखद नहीं होगी । जो डर के साथ आएगी, वह भयंकर होगी। इतना समझाने पर भी वह जितना Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न ३ भीरु है, उतना अभय नहीं है । इस परिस्थिति के संदर्भ में मैं फिर उसी रेखा पर पहुंचता हूं कि भय स्वाभाविक है, अभय स्वाभाविक नहीं है । काल की लम्बी शृंखला में अनेक तत्त्वविद् हुए हैं। उन्होंने गाया है - 'काम ! मैं मेरा रूप जानता हूं । तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, फिर तू मेरे मन की परिधि में कैसे आएगा ? किन्तु ऐसे गीत गाने वाले भी उससे अनेक बार पराजित हुए हैं | ब्रह्मचर्य के लिए जिस कठोर संयम की साधना है, उसे देख हर कोई इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि अब्रह्मचर्य स्वाभाविक है, ब्रह्मचर्य स्वाभाविक नहीं है । मैं नहीं समझ सका - यह क्या है और क्यों है कि जिस वस्तु के प्रति सहज आकर्षण है, उसे हम हेय मान बैठे हैं और जिसके प्रति हमारा सहज आकर्षण नहीं है उसे उपादेय । आकर्षण उस वस्तु के प्रति होता है, जिसकी आवश्यकता हमें अनुभूत होती है। अन्न और जल की आवश्यकता प्रत्यक्ष अनुभूत है । दुनिया के किसी भी अंचल में कोई किसी को यह उपदेश नहीं देता कि तुम अन्न खाओ, जल पीओ । अन्न खाना और जल पीना जरूरी है । यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें पछतावा करना होगा। 'मैं सौगंध खाकर कहता हूं कि तुम अन्न खाओ, जल पीओ; तुम्हें सुख मिलेगा' - यह कहते मैंने किसी को नहीं सुना । उपदेश की जरूरत क्या है ? भूख लगती है तो वह अपने आप रोटी खाता है । प्यास लगती है तो वह अपने आप पानी पीता है। भूख लगने पर न खाने से कष्ट होता है और खाने से सुख मिलता है। हर आदमी चाहता है कि कष्ट न हो, सुख मिले। इसलिए वह खाता है। खाने के प्रति इसीलिए आकर्षण है कि उसके बिना कष्ट होता है, घुटने टिक जाते हैं, काम नहीं चलता । मैं आपसे पूछूं- क्या आपको धर्म की आवश्यकता का अनुभव होता है? क्या उसके बिना आपको कष्ट होता है ? घुटने टिक जाते हैं ? आपका काम नहीं चलता? ऐसा अनुभव नहीं है। यदि उसकी आवश्यकता का प्रत्यक्ष अनुभव होता तो उसके लिए उपेदश देने की जरूरत नहीं होती। सौंगंध खा-खाकर धर्म की प्रशंसा के पुल बांधने आवश्यक नहीं होते। ऐसा होता है, इसीलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति हैं कि धर्म स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक वह है जो शरीर की मांग है। स्वाभाविक वह है जो मन की मांग है। जीवन और क्या है? देह और मन का संयोग ही जीवन है। जीवन की परिभाषा है, स्वाभाविक मांग की पूर्ति। क्या धर्म जीवन की स्वाभाविक मांग है? मैं देखता हूं कि हजारों वर्षों से हजारों व्यक्तियों ने अस्वाभाविक को स्वाभाविक बनाने का प्रयत्न किया है, फिर भी वह पाषाण-रेखा मिट नहीं सकी। आज भी आहार, नींद और मैथुन के प्रति वही आकर्षण है, जो हजारों वर्ष पहले था। उपवास, जागरण और ब्रह्मचर्य से आज भी मनुष्य उतना ही कतराता है, जितना हजारों वर्ष पहले कतराता था। लड़ाई, घृणा और शोक उतने ही प्रिय हैं, जितने हजारों वर्ष पहले थे। शान्ति, प्रेम और प्रसन्नता से वह आज भी उतना ही दूर है, जितना हजारों वर्ष पहले था। ___आप पूछेगे-इस सूरज ने किया क्या? वह प्रतिदिन नील नभ में चमकता है, फिर भी अंधकार है और वह वैसा ही है। यह प्रकृति द्वन्द्व को चाहती है। इसीलिए अंधकार भी है और प्रकाश भी है। सूरज बेचारा क्या करे? __ आप पूछेगे-इन औषधों ने क्या किया? जैसे-जैसे उनका प्रयोग बढ़ा है, वैसे-वैसे बीमारियां बढ़ी हैं। यह प्रकृति द्वन्द्व को चाहती है। इसीलिए बीमारियां भी हैं और औषध भी हैं। वैद्य बेचारा क्या करे? ३. स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य सांझ की वेला थी। सूरज अभी आकाश पर था। अचानक बादल आए। आकाशसहित सूरज आवृत हो गया। बूंदें गिरने लगीं। देखते-देखते धारा-संपात हो चला। बिजली कौंधी। ओले बरसने लगे। मैं देखता हूं, सामने पेड़ पर एक बन्दर बैठा है। वह ठंड के मारे ठिठुर रहा है। मैं तत्काल सुदूर अतीत की ओर लौट चला। मैंने सोचा, आज आदमी भी ऐसे ही ठिठुरता, यदि उसमें शून्य को भरने का चैतन्य और पौरुष नहीं होता। शून्य स्वाभाविक है। पर प्रबुद्ध मनुष्य ने उसे सदा चुनौती दी है और उसे भरा है। गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण प्रकृति पर मनुष्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य ५ की महान् विजय है। ___मैंने देखा, चूल्हे में आग जल रही है। दूध उबल रहा है। आंच तेज हुई। दूध में उफान आया। पास में बैठी युवती ने जल के छींटे डाले। उफान शान्त हो गया। फिर उफान और फिर जल के छींटे-तीन-चार आवृत्तियों के बाद दूध का पात्र नीचे उतार लिया गया। उबलते दूध का उफनना स्वाभाविक है। क्या स्वाभाविक को चुनौती दिए बिना मनुष्य का पौरुष प्रज्वलित नहीं होता? मैं मन-ही-मन सोच रहा था। न जाने किस अज्ञात दिशा ने मुखर स्वर में कहा-हर पौरुष प्रकृति को चुनौती है। वह देकर ही मनुष्य दूध पी सकता है। ___मैं ऊपर की दोनों घटनाओं के संदर्भ में देखता हूं-हमारी दृश्य-सृष्टि में स्वाभाविक वही है, जिसे पौरुष की चुनौती नहीं मिली है। उसके मिलते ही जो 'है' वह 'होता है' के आकार में बदल जाता है। 'है' और 'होने' के बीच की जो दूरी है, वही पुरुष है। 'है' और 'होने' के बीच की दूरी को जो घटाता है, वह पौरुष है। मनुष्य है' की अपेक्षा 'होना है' को अधिक पसन्द करता है। इसीलिए उसका सनातन स्वर है-'पुरुष! तू पराक्रम कर।' मैं सागर के तट पर बैठा-बैठा अतल गहराई में छिपी हुई उसकी आत्मा को निहार रहा था। मैंने देखा, उसी क्षण सामने की ओर से ऊर्मियां आयीं और मेरी छाया से टकराकर फिर असीम विस्तार की ओर लौट गईं। क्या मैं इसे स्वीकार करूं कि सागर में ऊर्मियों का होना स्वाभाविक नहीं है? क्या यह स्वीकार सत्य के साथ आंख-मिचौनी जैसा नहीं होगा? क्या में उससे लाभान्वित होऊंगा? सागर का होना और ऊर्मियों का न होना वैसा ही असत् है, जैसा कि सूर्य का होना और दिन का न होना। क्या मैं इस तथ्य को स्वीकार करूं कि देह के सागर में मन का जल हिलोरे भर रहा है, किन्तु उसमें काम, क्रोध और भय की ऊर्मियां नहीं हैं? क्या इस स्वीकार मात्र से मैं अध्यात्म की चोटी पर चढ़ जाऊंगा? मैं सचाई को अनावृत करने में जो लाभ देखता हूं, वह आवृत करने में नहीं देखता। मैं कंबल से लिपटा हुआ कमरे के एक पार्श्व मैं बैठा हूं। उसका एक दरवाजा खुला है। खिड़कियां बन्द हैं। उत्तर की बर्फीली हवा से Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सारा वातावरण प्रकंपित हो रहा है। मैं समाचारपत्र में पढ़ रहा हूं कि आर्कटिक महासागर जम गया है। मैं बैठा-बैठा देख रहा हूं कि उस बर्फीले सागर में ऊर्मियां नहीं हैं। क्या मैं स्वीकार करूं कि यह सागर के स्वभाव का परिवर्तन नहीं है? क्या इस स्वीकार से मैं सत्य को अनावृत कर सकूँगा? सागर का सघन होना और ऊर्मियों का न होना वैसा ही सत् है जैसा कि सूर्य के अस्तित्व में अंधकार का न होना। क्या मैं इस तथ्य को स्वीकार करूं कि देह के सागर का जल जम गया है, उसमें काम, क्रोध और भय भी ऊर्मियां नहीं हैं? मन का सघन होना और ऊर्मियों का न होना एक ही तथ्य की स्वीकृति की दो भाषा-पद्धतियां हैं। मन का जल केन्द्रीकरण की प्रक्रिया से सघन हो जाता है और ऊर्मियां शान्त हो जाती हैं। मैं अभी केन्द्रीकरण की प्रक्रिया नहीं बता रहा हूं, किन्तु यह बता रहा हूं कि स्वाभाविक को बदल देना पुरुष का पौरुष है। इसीलिए यह सनातन-स्वर वायुमण्डल में प्रतिध्वनित होता रहा है-'पुरुष! तू पराक्रम कर।' पुरुष इसीलिए महान् है कि उसमें पौरुष है। पौरुष इसीलिए महान् है कि उसे स्वाभाविक मैं परिवर्तन लाने की क्षमता प्राप्त है। प्रबुद्ध और पराक्रमी पुरुष जो 'है' उसी से सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु जो ‘होना है' उसी ओर गतिशील रहता है। यह गतिशीलता ही स्वाभाविक को अस्वाभाविक और अस्वाभाविक को स्वाभाविक बना देती है। स्वाभाविकता स्थिति-सापेक्ष अनुभूति है। उसका निरपेक्ष रूप हमारी प्रत्यक्षानुभूति में नहीं है। मैंने देखा, एक आदमी खुजला रहा है और लहूलुहान हो रहा है। मैंने उससे पूछा- 'घाव पड़ रहे हैं, फिर क्यों खुजलाते हो? उसने सहज मद्रा में उत्तर दिया-'खजलाने में बहुत आनन्द है।' मैं उसके उत्तर से सहमत नहीं हो सका। मैं यह समझने में असमर्थ रहा कि खजलाने में भी कोई आनन्द है। मैं फिर थोड़े गहरे में गया। मेरी बुद्धि ने स्वीकृति दे दी, वह ठीक कह रहा था। खुजलाने में जो आनन्दानुभूति है, उसे वही जान सकता है, जो खुजली के कीटाणुओं से आक्रान्त है। मैं उन कीटाणुओं से मुक्त हूं, इसलिए उसके आनन्द की भूमिका तक कैसे पहुंच सकता हूं? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य ७ क्या अब्रह्म और ब्रह्म की स्थिति इससे भिन्न है? अब्रह्मचर्य के कीटाणुओं से आक्रान्त व्यक्ति को भोग में आनन्दानुभूति होती है, किन्तु उस व्यक्ति को नहीं होती, जो उन कीटाणुओं से अनाक्रान्त है। ___ मैं आपसे पूछता हूं, क्या भूख लगने पर खाना सुख है ? मैं नहीं समझ सका, यह कोई सुख है। भूख क्या है? जो जठराग्नि की पीड़ा है, वही भूख है। यह रोज की बीमारी है, इसलिए हम इसे बीमारी नहीं मानते। जो पीड़ा कभी-कभी होती है, उसे हम बीमारी मान लेते हैं। मैं देख रहा हूं एक आदमी ज्वर से पीड़ित है। वह दवा ले रहा है। क्या दवा लेना भी कोई सुख है? यह सुख नहीं है, किन्तु रोग का प्रतिकार है। मैं इसी भाषा में दोहराना चाहता हूं कि रोटी खाना भी सुख नहीं है, किन्त रोग का प्रतिकार है। यह सही है, सुख के प्रति मनुष्य का आकर्षण होता है। यह भी उतना ही सही है-बहुत बार मनुष्य असुख को भी सुख मान बैठता है। जैसे-जैसे चैतन्य की अग्रिम भूमिकाएं विकसित होती हैं, वैसे-वैसे वह विपर्यय निरस्त होता चला जाता है। स्वाभाविक और सुख की मान्यताएं भी बदल जाती हैं। आकर्षण का केन्द्र भी कोई नया बन जाता है। वही शाश्वत स्वर फिर कानों से टकरा रहा है-'पुरुष! तू पराक्रम कर। पराक्रम परिवर्तन की भूमिका में प्रस्फुटित होता है। परिवर्तन पदार्थ के धरातल पर ही नहीं होता, चैतन्य-जगत् में भी होता है। जो है, वही स्वाभाविक है, इस स्वीकृति का अर्थ होता है, विकास का अवरोध। विकास के क्रम में स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य बदलते चले जाते हैं। मनुष्य ने इस क्रम को स्वीकृति दी, इसीलिए वह तात्कालिक आक्रमण से दीर्घकालीन समझौता-वार्तालाप तक पहुंच गया। वह चैतन्य जगत् में भी विकास की उस भूमिका तक पहुंच सकता है, जहां उसकी स्वाभाविकता को कोई दूसरी स्वाभाविकता चुनौती न दे सके। यही है उसका अस्तित्व-बोध, जो प्रत्यक्षानुभूति से सतत प्रवाहित होता रहा है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ४. सत्य क्या है? तुम्हें इसका अचरज है, कि मैं आत्मा को नहीं मानता। मुझे इसका अचरज है कि तुम आत्मा को नहीं जानते, फिर भी मानते हो कि वह है। क्या तुमने कभी देखा कि आत्मा है? क्या देखे बिना कोई जान सकता है कि वह है? जानता वही है, जो देखता है। जो जानता है, वह मानता नहीं और जो मानता है, वह जानता नहीं। तुमने मान रखा है कि आत्मा है। इससे तुम्हें प्रकाश कब मिला? तुम्हें प्रकाश तब मिलता, जब तुम जान पाते कि आत्मा है। मैंने मान रखा है कि आत्मा नहीं है। इससे मुझे अन्धकार कब मिला? मुझे अन्धकार तब मिलता, जब मैं जान पाता कि आत्मा नहीं है। तुम भी मान रहे हो और मैं भी मान रहा हूं। मानना आखिर मानना ही तो है। लो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊं एक गृह-स्वामिनी ने अपने नौकर से कहा- 'जाओ, बाजार से घी ले आओ।' वह बोला-'मैं इस समय नहीं जा सकता। मुझे अंधेरे में डर लगता है।' गह-स्वामिनी बोली-'तुम यह मान लो कि डर कुछ भी नहीं है।' बेचारा चला। सीढ़ियों से ही फिर लौट आया। गृह-स्वामिनी ने फिर वही उपाय बताया। वह फिर चला और फिर बीच में से ही लौट आया। तीसरी बार फिर उपदेश मिला। वह सीढ़ियों से नीचे उतरा और दो ही क्षणों में भरा बर्तन ला गृह-स्वामिनी के सामने रख दिया। उसने पूछा-'क्या घी ले आए? नौकर बोला-'हां, ले आया।' उसने सूंघकर कहा- 'अरे! घी कहां? यह तो गधे का मूत्र है।' नौकर बोला-'तुम मान लो यह घी ही है।' वह बोली-जो घी नहीं, उसे मैं घी कैसे मान लूं? नौकर बोला-'मुझे डर लगता है, तब मैं कैसे मान लूं कि डर कुछ भी नहीं है? यह तर्क के प्रति तर्क है। मानने की दुनिया में और है ही क्या? तर्क के प्रति तर्क और फिर तर्क के प्रति तर्क और तब तक तर्क, जब तक मानना समाप्त न हो जाए। मैं मानता हूं कि धर्म जीवन की स्वाभाविक मांग नहीं है। तुम मानते हो कि वह जीवन की स्वाभाविक मांग है। ये दोनों मान्यताएं हैं। सत्य क्या है? यह तुम भी नहीं जानते Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य क्या है? ६ और मैं भी नहीं जानता। ___मैं जब-जब जानने के साधनों के बारे में सोचता हूं तो मुझे लगता है कि हमारे दार्शनिक बहुत भ्रान्ति में हैं। उनकी सत्य की कल्पना मृगमरीचिका से अधिक अर्थवान नहीं है। उन्होंने कहा है-सत्य अतीन्द्रिय है। मैं आपसे कहूं हमारे पास जानने के दो साधन हैं इन्द्रिय और मन। मैं नहीं समझ सका, फिर उन्होंने यह किस ज्ञान से जाना कि सत्य इन्द्रिय और मन से परे है। हमारे कुछ दार्शनिक इन्द्रिय और मन से ज्ञात होने वाले पदार्थों को मिथ्या मानते हैं और सत्य उसे मानते हैं, जो इनके द्वारा नहीं जाना जाता। उनका मानना है कि इन्द्रिय और मन का ज्ञान संशय और विपर्यय से युक्त होता है, इसलिए वह अभ्रान्त नहीं होता। आंख का काम देखना है पर वातावरण धुंधला हो या दूरी हो तो पता नहीं लगता, सामने वाला कौन है, खंभा है या आदमी? सीपी पर सूरज की किरणें पड़ती हैं, तब जान पड़ता है कि वह चांदी है। कफ बढ़ जाता है, तब मीठी चीज भी कड़वी लगती है और सांप-काटे को नीम भी मीठा लगता है। हर इन्द्रिय का ज्ञान बाहरी वातावरण और परिस्थिति से इतना प्रभावित होता है कि उससे वास्तविक सत्य जाना ही नहीं जा सकता। __ इन्द्रिय की भांति मन भी संशय और विपर्यय के जाल में फंसा रहता है। क्या प्रशंसा से पेट भरता है? नहीं भरता, फिर भी आदमी उसके लिए खाली पेट रह जाता है। ___ गाली के प्रति गाली देने में सुख की अनुभूति होती है। दूसरे को अपने से छोटा मानने में सुख मिलता है। समझे आप उनका तर्क? इसी तर्क के सहारे वे कहते हैं कि इन्द्रिय और मन वास्तविक सत्य को नहीं जान सकते। इसी दृष्टि के आधार पर वे कहते हैं कि इन्द्रिय और मन का सुख वास्तविक नहीं है। पर मैं आपसे पूछू-क्या हमारे पास वास्तविकता की कोई कसौटी है? इन्द्रिय और मन के परे कोई वास्तविकता है तो होगी। हम उसे कैसे जानें? हमारे पास उनके अतिरिक्त जानने का कोई साधन ही नहीं। जो साधन हैं, उन्हें भ्रान्त मानकर उनके निर्णय को मिथ्या मानें और जो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति साधन नहीं हैं, उन पर विश्वास करें, क्या यह भ्रान्ति नहीं है? ५. सूक्ष्म की समस्या सूर्य आकाश में चमक रहा है। मैंने देखा, रात को असंख्य नक्षत्र और तारे आकाश में टिमटिमा रहे थे, किन्तु अब एक भी नहीं है। सारे दीप बुझ गए हैं। केवल एक सूर्य चमक रहा है। क्या यह सत्य है? ___एक सरसरी निगाह में यह सत्य है, किन्तु गहराई में यह सत्य नहीं है। सत्य यह है कि नक्षत्र और तारे सूर्य के प्रखर प्रकाश से आवृत हैं, अस्तित्वहीन नहीं हैं। क्या कोई अस्तित्व कभी विनष्ट होता है? क्या जो है, वह चिर भविष्य में नहीं होगा? क्या जो है, वह चिर-अतीत में नहीं था जो है, वह सदा था और सदा होगा। जो पहले नहीं था और आगे नहीं होगा वह आज भी नहीं हो सकता। मैं देख रहा हूं, जो पेड़ पतझड़ में नंगा था, वह वसंत में लहलहा रहा है। जो वसंत में लहलहा रहा था, वह पतझड़ में नंगा है। नंगा होना और लहलहाना पेड़ का अस्तित्व नहीं है। ये उसके अस्तित्व की अभिव्यक्तियां हैं। जीवन और मृत्यु हमारा अस्तित्व नहीं है। ये हमारे अस्तित्व की अभिव्यक्तियां हैं। जो व्यक्त है, वह अस्तित्व नहीं है। वह अस्तित्व की ऊर्मि-माला है। अस्तित्व उसके नीचे है। इन्द्रिय और मन ऊर्मि-माला के माध्यम से ही अस्तित्व तक पहुंच पाते हैं। इसीलिए उनकी स्वीकृति या अस्वीकृति प्रत्यक्षानुभूति की स्वीकृति या अस्वीकृति नहीं होती। खिड़की की जाली से छन-छनकर सूर्य की रश्मियां आ रही हैं। उनके आलोक में मैं असंख्य गतिशील रजकणों को देख रहा हूं जो कुछ क्षण पूर्व उपलब्ध नहीं थे। ध्वनि-ग्रहण का फीता घूम रहा है। मैं पूर्व-परिचित ध्वनि सुन रहा हूं। कुछ क्षण पूर्व यह ध्वनि उपलब्ध नहीं थी। सूक्ष्म जब स्थूल बनता है, आवृत जब अनावृत होता है और दूरस्थ जब निकटस्थ होता है, तब अव्यक्त व्यक्त और अनुपलब्ध उपलब्ध हो जाता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म की समस्या ११ मैं प्रकाश में देखता हूं, वह धुंधले में नहीं देख पाता। सूक्ष्मवीक्षण से देखता हूं, वह कोरी आंख से नहीं देख पाता। यह तारतम्य मुझे उस कोटि तक ले जाता है कि मैं अनावृत ज्ञान से देख सकता हूं, वह सूक्ष्मवीक्षण से नहीं देख सकता। ___ जहां तारतम्य है, वहां ‘अन्तिमेत्थ' भी है। वही सत्य की उपलब्धि का अन्तिम साधन है। वही भारतीय दर्शन की भाषा में अतीन्द्रिय ज्ञान है। उसकी भूमिका पर से ही यह कहा जाता है कि सत्य वही नहीं है, जो व्यक्त, स्थूल, अनावृत और निकटस्थ है। जो अव्यक्त, सूक्ष्म, आवृत और दूरस्थ है, वह भी सत्य है। मैं प्रतिभा की खिड़की को खोलकर झांकता हूं, तब मेरे सामने सत्य आकाश की भांति अनन्त और असीम होता है। और जब मैं इन्द्रिय और मन के किवाड़ों से प्रतिभा की खिड़कियों को बन्द कर झांकता हूं, तब मेरे सामने सत्य बन्द कमरे की भांति सान्त और ससीम हो जाता है। उस बन्द कमरे में मैं मान्यता (परोक्षानुभूति) के वातवलय से घिरा होता हूं। एक दिन मैं अपलक आकाश की ओर निहार रहा था। मेरी तात्त्विक मान्यता की भाषा ने मुझे स्मृति दिलाई, आकाश असीम है। उसी क्षण व्यावहारिक मान्यता की भाषा ने उसका प्रतिवाद किया, आकाश ससीम है। मैं द्विविधा में फंस गया। मेरे सामने प्रश्नचिह्न उभर गया, क्या आकाश असीम है या ससीम? मैं लम्बे समय तक उस प्रश्नचिह्न को पढ़ता रहा। अचानक खतरे का भोंपू बज उठा। विमानवेधी तोपों ने गोलियां दागनी शुरू कर दीं। शांत वातावरण तुमुल में बदल गया। यह सब क्यों हुआ, मैंने सहज ही जिज्ञासा की। मुझे उत्तर मिला, हमारी सीमा में शत्रु के विमान घुस आए हैं। उन्हें ध्वस्त किया जा रहा है। धरती की सीमा से हमारे पूर्वज परिचित थे। समुद्री सीमा से भी वे परिचित हो गए थे। धरती और समुद्र-दोनों असीम हैं। इसलिए उन्हें सीमा में बांधना उनको स्वाभाविक लगा होगा। आकाश में सीमा की कल्पना उन्होंने नहीं की होगी। इस चिन्तन के अनन्तर ही मेरी दृष्टि न्यायशास्त्र की सीमा में जा अटकी। वहां मुझे घटाकाश, पटाकाश, गृहाकाश जैसे शब्द-विन्यास मिले। अब मैं इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सका कि आकाश ससीम है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ___मैं यदि तर्क-प्रबुद्ध होता तो इस सत्य की उपलब्धि से संतुष्ट हो जाता। किन्तु मैं देखना चाहता था, इसलिए इस उपलब्धि ने मुझे सन्तोष नहीं दिया। मैं दर्शन की भूमिका में पहुंच तर्क के वातवलय से मुक्त हो गया। वहां मुझे दिखा, आकाश असीम है। आकाश असीम है, यह उसका अस्तित्व है और मेरा दर्शन। आकाश ससीम है, यह अस्तित्व और ममत्व का योग है और मेरा शब्द-बोध है। मनुष्य ने जहां अस्तित्व को ममत्व से आबद्ध किया है, वहां असीम सीमा में बंधा है। यह सीमाकरण मनुष्य की कृति है, आकाश का वास्तविक अस्तित्व नहीं है। घट है तब तक घटाकाश है। घट फूटा और घटाकाश विलीन हो गया। उसके साथ-साथ आकाश को ससीम मानने की मेरी बुद्धि भी विलीन हो गई। अब मुझे स्पष्ट दीख रहा है कि आकाश केवल आकाश है और वह सीमायुक्त नहीं है। उसे ससीम मानना ऊर्मि-माला से प्रतिफलित मान्यता है, अस्तित्व का वास्तविक बोध नहीं है। ____ आप पूछ सकते हैं, घटाकाश की मान्यता कैसे है? वह अपना काम कर रहा है-जल को टिकाए हुए है। हम मुक्त आकाश को घट मानें और उसमें जल डालें तो वह नीचे गिर जाएगा, कहीं टिकेगा नहीं। यह हमारी मान्यता हो सकती है। किन्तु जिसमें जल टिका हुआ है, वह केवल मान्यता नहीं हो सकती। मैं मान्यता के दो स्तर देख रहा हूं-एक काल्पनिक और दूसरा परिवर्तन से समुत्पन्न। मुक्त आकाश में घटाकाश का समारोपण मान्यता का काल्पनिक स्तर है। घटाकाश का बोध मान्यता का परिवर्तन से समुत्पन्न स्तर है। पहला स्तर वर्तमान आकार में असत् है। दूसरा स्तर वर्तमान आकार में सत् है। किन्तु वास्तविक अस्तित्व की मर्यादा यह है कि आकाश आकाश है और वह असीम है! मैं देख रहा हूं, एक चिड़िया दर्पण पर चोंच मार रही है। वह वस्तुस्थिति से अनजान है। इसलिए वह अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष मान रही है, यदि वह वस्तुस्थिति को जान पाती तो अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष नहीं मानती। रात का समय है। कोई मनुष्य दौड़ा जा रहा है। उसने देखा, उसके साथ-साथ कोई दूसरा व्यक्ति दौड़ रहा है। वह भयभीत हो मुड़ा। उसके Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म की समस्या १३ साथ दूसरा व्यक्ति भी मुड़ गया। वह जिधर घूमा, उधर दूसरा भी घूम गया। वह भय से घिर गया। उसके पैर वहीं रुक गए। यदि वह जान पाता तो अपनी छाया से भयाक्रान्त नहीं होता । चिड़िया अपने प्रतिबिम्ब को अपना प्रतिपक्ष मानती है । उसमें अज्ञान का घना अंधकार है। मनुष्य अपनी छाया से डरता है । उसमें मोह का घना अंधकार है । दीवार के उस पार कोई बोल रहा हैं। मैं उसे पहचान लेता हूं । उसमें परोक्षानुभूति का अंधकार है। मानने के नीचे वैसे ही अंधकार होता है, जैसे दीपक के तल में अंधकार। जानना वैसे ही सर्वतः प्रकाशमय होता है, जैसे सूर्य । सूर्य बादलों से घिरा होता है, प्रकाश मंद हो जाता है। ज्ञान आवरण और व्यवधान से घिरा होता है। जानना मानने में बदल जाता है। सूर्य को मैं जानता हूं किन्तु मानता नहीं हूं । सुमेरु को मैं मानता हूं किन्तु जानता नहीं हूं । अस्तित्व के साथ में सीधा सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा जानना है-प्रत्यक्षानुभूति है । अस्तित्व के साथ मैं किसी माध्यम से सम्पर्क स्थापित करता हूं, वह मेरा मानना है - परोक्षानुभूति है । प्रकाश जैसे-जैसे आवृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं जानने से मानने की ओर झुकता जाता हूं । प्रकाश जैसे-जैसे अनावृत होता जाता है, वैसे-वैसे मैं मानने से जानने की ओर बढ़ता जाता हूं । मानने से जानने तक पहुंचना भारतीय दर्शन का ध्येय है, और पहुंच जाना अस्तित्व का प्रत्यक्ष - बोध है । मैं सूर्य को जानता हूं, उससे सूर्य का अस्तित्व नहीं है । बीहड़ जंगलों में विकसित फूल को मैं नहीं जानता, उससे फूल का अनस्तित्व नहीं है । अस्तित्व अपनी गुणात्मक सत्ता है । वह न जानने - मानने से बनती है और न न- जानने-मानने से विघटित होती है । फूल की उपयोगिता मेरे जानने से निष्पन्न होती है और न जानने से विघटित हो जाती है । उपयोगिता मेरा और अस्तित्व का योग है । अस्तित्व दो का योग नहीं है किन्तु वह निरपेक्ष है । 'मैं हूं' - यह निरपेक्ष अस्तित्व है। दूसरे मुझे अनुभव करते हैं, इसलिए मैं नहीं हूं किन्तु मैं हूं, इसलिए मुझे दूसरे अनुभव करते हैं । मैं अपने आप में अपना अनुभव करता हूं, इसीलिए मैं हूं । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ६. बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूं। मैं मानता था कि दर्शनशास्त्र को पढ़े बिना सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मैंने भारतीय दर्शन पढ़े। पश्चिमी दर्शनों का भी थोड़ा-बहुत अध्ययन किया। किन्तु अब मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि उनमें दर्शन नहीं है, कोरा बुद्धिवाद का व्यायाम है। यह सचाई है, मनुष्य का सारा विकास बुद्धि पर अवलम्बित है। विज्ञान ने अकल्पित उन्नति की है। अन्तरिक्ष में यान भेजे हैं। एक यान भूमि से अन्तरिक्ष में उड़ता है और ठीक समय पर अन्तरिक्ष से भूमि पर उतर आता है। क्या यह सचाई नहीं है? विमान-वेधी तो सुदूर अन्तरिक्ष में तैरते हुए विमान को मार गिराती हैं। चालक-विहीन विमान ठीक लक्ष्य पर बम बरसा जाते हैं। कितने उदाहरण उपस्थित करूं! बीसवीं शताब्दी का कोई भी आदमी इस प्रत्यक्ष को आंखें मूंदकर अस्वीकार नहीं कर सकता। फिर भी हमारे दर्शनशास्त्री कहते हैं-जो दृश्य है, वह सत्य नहीं है, सत्य वह है जो अदृश्य है। जो बुद्धिगम्य है, वह सत्य नहीं है, सत्य वह है जो बुद्धि से परे है। बुद्धि कोई विचित्र नटी है। वह न जाने कितने रूप बदलना जानती है। सारी लीला उसकी है, फिर भी उसने अपने को पर्दे के पीछे रखकर किसी ऐसे ज्ञान की कल्पना की है, जिसका मनुष्य से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। मेरे मन की जिज्ञासा है, जिसने यह कहा कि जहां बुद्धि समाप्त होती है, वहां वास्तविक ज्ञान का आरम्भ होता है, वह आदमी बुद्धिमान् है या बुद्धिशून्य? यदि वह बुद्धिमान है तो उसने जो कहा, वह अपनी बुद्धि से ही कहा है। यदि वह बुद्धिशून्य है तो उसने ऐसा किस आधार पर कहा? यदि उसने सत्य का साक्षात् कर कहा है तो ऐसा वही कह सकता है, जिसने सत्य का साक्षात् किया है। हमें सत्य का साक्षात् नहीं है। हम वह बात किस आधार पर कह सकते हैं? जिसने सत्य को बुद्धि से परे कहा, वह आत्मदर्शी था, उसे सत्य का साक्षात् हुआ था-यह निर्णय हम किससे करते हैं? आत्म-दर्शन हमारे पास नहीं है, जिससे हम इसकी सचाई को साक्षात् देख सकें। हम उसकी सचाई का निर्णय अपनी बुद्धि से करते हैं। इस प्रकार हम घूम-फिरकर बुद्धि के ही साम्राज्य में Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न १५ पहुंच जाते हैं। बुद्धि से प्राप्त सचाई वास्तविक सचाई नहीं है और बुद्धि से परे की सचाई वास्तविक है, इसका निर्णय बुद्धि करती है। अब हमारे सामने प्रश्न यह रहता है कि बुद्धि के इस निर्णय को हम वास्तविक माने या अवास्तविक? मैं जब अपने शरीर की ओर निहारता हूं तो तत्काल मेरे संस्कार बोल उठते हैं, यह पौद्गलिक है, मुझसे भिन्न है। मैं आत्मा हूं, चेतन हूं। यह अनात्मा है, अचेतन है। मैं अविनाशी हूं, अजर-अमर हूं। यह विनश्वर है, जरा-मरणधर्मा है। शरीर और आत्मा को भिन्न देखना ही सम्यग्-दर्शन है। यही विवेकख्याति है और यही मोक्ष का मार्ग है। जब-जब यह संस्कार जागता है, तब-तब मैं रटता हूं कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। किन्तु दूसरे संस्कार के जागते ही यह भूल जाता हूं कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। जब कभी चिन्तन की मुद्रा में होता हूं, तब सोचता हूं क्या शरीर से भिन्न कोई आत्मतत्त्व है? यदि है तो उसका अस्तित्व कहां है? यदि शरीर से बाहर है तो वह अगम्य है। शरीर से बाहर कभी कहीं कोई चेतना ज्ञात नहीं हुई है। यदि वह शरीर के भीतर ही है तो इसकी पुष्टि किससे होती है कि वह शरीर से भिन्न है। चेतन और अचेतन के मध्य ऐसी लक्ष्मणरेखा किसने खींची कि चेतन चेतन ही है और अचेतन अचेतन ही। अचेतन चेतन नहीं हो सकता और चेतन अचेतन नहीं हो सकता, यह केवल तर्कशास्त्र का नियम है, या इससे कुछ अधिक भी है? हमारे तत्त्वविदों ने कहा है-आत्मा रथिक है, शरीर रथ है। रथ के बारे में हमें कोई सन्देह नहीं है। वह सबके सामने है। जितना सन्देह है, वह सब रथिक के बारे में है। जो कहते हैं कि रथिक है, उन्होंने भी नहीं देखा है कि वह है और जो कहते हैं कि रथिक नहीं है, उन्होंने भी नहीं देखा है कि वह नहीं है। जिसने यह प्रश्न खड़ा किया कि आत्मा है, तब उसके प्रतिपक्ष में यह स्वर उठा कि वह नहीं है। बुद्धि की सीमा को अधिकृत करने के लिए आस्तिक और नास्तिक-दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। दोनों के पास तर्क के तीखे तीर हैं। देखें, अब क्या होता है? Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ७. मेरा अस्तित्व मैं फ्लू से ग्रस्त था, इसलिए सो रहा था। छोटा गांव, छोटा मकान, मुक्त आकाश और मुक्त मन। सामने एक पेड़ था। उजली दुपहरी में सब के सब चमक रहे थे। मैंने एक बार पेड़ की ओर दृष्टि डाली और दूसरी बार आकाश की ओर। विराट आकाश के सामने वह पेड़ बहुत छोटा लग रहा था। छोटा किन्तु अनन्त। आकाश क्षेत्र और काल-दोनों दृष्टियों से अनन्त है, किन्तु काल की दृष्टि से पेड़ भी अनन्त है। उसका एक भी अणु कभी नष्ट होने वाला नहीं है। वह दर्शन के इस शाश्वत नियम से आबद्ध है “जो आज है, वह अतीत में था और भविष्य में होगा। जो पहले नहीं था और पश्चात् नहीं होगा, वह आज भी नहीं हो सकता।" _आकाश और पेड़ को अपने अस्तित्व के बारे में न सन्देह है और न निश्चय। फिर भी उनका अस्तित्व अनन्त और अबाध है। मैंने सोचा, इस विश्व में एक अणु भी ऐसा नहीं है जो आज है और कल नहीं होगा। तो फिर मैं अपने अस्तित्व के बारे में कैसे सन्देह कर सकता हूं? क्या मैं विश्व-व्यवस्था के उस शाश्वत नियम का अपवाद हूं? मैंने फिर सोचा, जब एक अणु भी उसका अपवाद नहीं है तब मैं उसका अपवाद कैसे हो सकता हूं? चिन्तन और आगे बढ़ा तो मैंने सोचा, फिर मनुष्य ही ऐसा अभागा क्यों, जिसे अपने अस्तित्व में सन्देह है ? मैंने देखा, मनुष्य की चेतना पेड़ की चेतना से विकसित है, इसलिए उसे अपने अस्तित्व के बारे में सन्देह होता है और उसकी चेतना योगी की चेतना की भांति विकसित नहीं है, इसलिए वह अपने अस्तित्व की अनन्तता का निश्चय नहीं कर पाता है। इस प्रकार वह सन्देह की पीठ पर चढ़कर भी निश्चय की चोटी तक नहीं पहुंच पाता है।। इस दुनिया में कुछ सत्य स्थूल हैं, कुछ सूक्ष्म और कुछ अमूर्त । मैं स्थूल सत्यों को स्थूल साधनों और सूक्ष्म सत्यों को सूक्ष्म साधनों से जान जाता हूं, किन्तु अमूर्त(अरूप) सत्यों को जानने का मेरे पास कोई साधन नहीं है। एक आम मेरे सामने है। आंख से उसे मैं देख लेता हूं। जीभ से उसे चख लेता हूं। घ्राण से उसकी गन्ध का अनुभव कर लेता हूं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा अस्तित्व १७ I त्वचा से उसका स्पर्श-ज्ञान कर लेता हूं। क्योंकि वह स्थूल सत्य है । अणु सूक्ष्म सत्य है। उसे मैं अपनी आंख, जीभ, घ्राण या त्वचा से नहीं देख पाता हूं, किन्तु सूक्ष्म-वीक्षण के सहारे उसे भी देख लेता हूं । अमूर्त सत्य सूक्ष्म होने के साथ-साथ अरूप होते हैं, इसलिए उन्हें किसी सूक्ष्मवीक्षण के माध्यम से नहीं देखा जा सकता । अपने अस्तित्व के साक्षात्कार में यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वह अरूप है। वह अरूप है, इसलिए इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है । वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, इसलिए मेरे ज्ञान की परिधि से बाहर है। यदि मेरा अस्तित्व मुझसे सर्वथा भिन्न होता तो मैं उसे जानने के लिए केवल शब्दों का सहारा लेता । उन लोगों के शब्दों का, जो कहते हैं कि हमने अपने अस्तित्व का साक्षात् किया है। हजारों-हजारों व्यक्ति शब्दों के सहारे अपने अस्तित्व की शाश्वतता स्वीकार करते हैं और अशाश्वत शरीर को उस शाश्वत चित् तत्त्व का परिधान मात्र मानते हैं । मानने के लिए यह मैं भी मान सकता हूं। किन्तु जब साक्षात् जानने के लिए उत्सुक होता हूं तब मानने का सोपान नीचे रह जाता है 1 इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शब्द - ये सब परोक्षानुभूति के माध्यम हैं । जाना प्रत्यक्षानुभूति है। वहां ये सब कृतकार्य नहीं होते। इस परिस्थिति में अपने अस्तित्व की शोध से हताश हो जाता हूं । यदि मेरे अस्तित्व का प्रकाश इन्द्रिय, मन और बुद्धि में प्रवाहित नहीं होता, इनकी संवेदन-शक्ति उससे विच्छिन्न होती तो मैं अपने प्रयत्न में हताश ही हताश होता । किन्तु मेरे अस्तित्व का प्रकाश इन्द्रिय, मन और बुद्धि के माध्यम से बाह्य जगत् में जाता और फिर लौटकर अपने क्षेत्र में आ जाता है। मैं बाह्य-दृष्टि हूं, उसके बाहर जाने की प्रक्रिया से परिचित हूं। मैं अन्तर्दृष्टि नहीं हूं, उसके फिर अंतस में लौट आने की प्रक्रिया से परिचित नहीं हूं। इसीलिए मैं अपने अस्तित्व से अपरिचित रहा हूं। एक दिन मेरे गुरु ने मुझे बताया कि चेतना का प्रवाह जिस मार्ग से बाहर को जाता है, उसे बन्द कर दो। मैंने वैसा किया तो पाया कि मैं अपने अस्तित्व के साक्षात् सम्पर्क में हूं। वहां अब 'मैं हूं' (अहमस्मि) इस आकार में नहीं रहा हूं । किन्तु 'मैं हूं' ( अहमस्ति ) इस आकार में बदल गया हूं यानी मैं अपनी सत्ता से अभिन्न हो गया हूं। अनुभव की Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति इसी भूमिका में मैंने बुद्धि के प्रामाण्य को अस्वीकार किया है; बुद्धि द्वारा प्रकल्पित, शरीर और आत्मा के अभेद या भेद को अस्वीकार किया है। ___इस भूमिका से पूर्व जो शोध हो रही थी, वह बुद्धि-प्रेरित थी। बौद्धिक भूमिका में मैं और चित् तत्त्व भिन्न-भिन्न प्रतीत हो रहे थे। मैं शोध करने वाला था और चित् तत्त्व था शोध्य। एक ही तत्त्व के शोध्य और शोधक-ये दो रूप नहीं हो सकते। बुद्धि ने मेरे और अस्तित्व के बीच में व्यवधान डाल रखा था। जैसे ही मैंने चेतना के प्रवाह का बुद्धि के स्रोत से जाना निरुद्ध किया, वैसे ही मेरे और मेरे अस्तित्व के मध्य का व्यवधान समाप्त हो गया। अब मैं अपने अस्तित्व से भिन्न नहीं हैं, इसलिए मेरा शोध्य-शोधक भाव भी समाप्त हो गया है। ... मैं देखता हूं, प्राचीन साहित्य में जो दीप जल रहा था, वह आज बुझने लगा है। आज दीप के आसन पर बल्ब आ बैठा है। जब लोग बिजली की शक्ति से अनजान थे, तब उनके आलोक का साधन दीप था। जब लोग बिजली से परिचित हुए, तब दीप का अवमूल्यन हो गया। मैं देखता हूं, एक दिन बुद्धि का भी अवमूल्यन होने वाला है। हम अपनी सहज चेतना की प्रकाश-धारा से अपरिचित हैं, इसलिए बुद्धि का प्रदीप हमें जगमगाता-सा लगता है। जैसे ही हम अपनी सहज चेतना से परिचित होंगे कि बुद्धि का आसन हिल जाएगा। बौद्धिक भूमिका में परोक्ष को प्रत्यक्ष माना जा रहा है। इन्द्रियों में प्रत्यक्षानुभूति की क्षमता नहीं है। उनका ग्रहण बहुत ही त्रुटिपूर्ण और बाह्य उपकरण सापेक्ष होता है। आंख देखती है पर प्रकाश और अंधकार, दूरी और निकटता आदि बाह्य उपकरण देखने में बहुत परिवर्तन ला देते हैं। यही गति शेष सब इन्द्रियों की है। मन और बुद्धि भी इसी नियम से नियन्त्रित हैं। यथार्थ का दर्शन इन्द्रियों से नहीं, किन्तु माध्यम-निरपेक्ष चेतना से होता है। मेरी अनुभूति के क्षेत्र में वही प्रत्यक्षानुभूति है। वहां परोक्षानुभूति से उत्पन्न मान्यताएं समाप्त हो जाती हैं। काल का प्रतिबन्ध भी टूट जाता है। उस कालातीत स्थिति के संदर्भ में मैं वर्तमान से विमुख और भविष्य के सम्मुख नहीं होता हूं। फिर मैं केवल होता हूं, और जैसा वर्तमान क्षण में होता हूं, वैसा ही भविष्यत् क्षण में होता हूं, और जैसा भविष्यत् क्षण में होता हूं, वैसा ही वर्तमान Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐन्द्रियिक स्तर पर उभरते प्रश्न १६ क्षण में होता हूं, और फिर मैं वर्तमान क्षण के विसर्जन से भविष्यत् क्षण का संवर्धन करने की स्थिति में नहीं होता हूं। किन्तु हर क्षण को अपनी सत्ता के अनुरूप बदलते पाता हूं। और देखता हूं कि मैं हर क्षण के साथ सामंजस्य स्थापित करता हुआ अपने अस्तित्व को गतिशील कर रहा हूं। ८ ऐन्द्रियिक स्तर पर उभरते प्रश्न मैंने बचपन में एक छोटा-सा ग्रंथ पढ़ा। उसका नाम 'तेरह द्वार' है। उसमें एक जगह लिखा है-मनुष्य खाता-पीता है, वह पुद्गल है। पहनता-ओढ़ता है, वह पुद्गल है। देखता-सुनता है, वह पुद्गल है। जितना दृश्य है, वह सारा पुद्गल है। जितना भोग्य है, वह सारा पुद्गल है। जो द्रष्टा है और भोक्ता है, वह आत्मा है। ___ मैंने अध्ययन की भूमिका को जरा विस्तार दिया तो जाना कि आत्मा न खाता है, न पीता है। वह न पहनता है, वह ओढ़ता है। वह न देखता है और न सुनता है। शरीर बेचारा जड़ है। वह क्या खाए-पीएगा? क्या पहने-ओढ़ेगा? और क्या देखे-सुनेगा? आखिर यह है क्या? वह कौन है, जो सारी क्रियाएं करता है? इस जिज्ञासा के समाधान में दर्शनशास्त्री कहते हैं, वह जीवच्छरीर है-न जीव और न शरीर, किन्तु जीव-युक्त शरीर। इतनी जटिल प्रक्रिया को इसलिए मानना पड़ा कि उन्होंने जीव को माना है और एक जीव को माना इसलिए न जाने कितना मानना पड़ा-पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, ईश्वर, कर्म, बन्ध, मोक्ष आदि-आदि। मनुष्य इन मान्यताओं से इतना घिर गया है कि उसने अपने वर्तमान को भविष्य के हाथ में सौंप दिया है, अपने प्रत्यक्ष को परोक्ष की कारा का बन्दी बना दिया है और अपनी अनुभूति को कल्पना के पंख लगा अनन्त अज्ञात की ओर प्रस्थित कर दिया है। पता नहीं सचाई किसे वरमाला पहनाएगी? बीते युग की बात है। एक सेठ का पुत्र मुनि बनने की धुन में Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति था। उसका नाम था जम्बूकुमार। उसने पहले दिन आठ कुमारियों के साथ विवाह किया और दूसरे दिन मुनि बनने लगा। रात को आठों पत्नियों के साथ चर्चा हुई। इसी प्रसंग में एक पत्नी ने कहा-'प्रिय! आप प्राप्त सुखों को छोड़कर काल्पनिक सुख की खोज में जा रहे हैं। यह भूल-भरा चरण है। मेरी बात याद रखिए, आगे आपको पछतावा करना होगा। मैं आपको एक कहानी सुनाऊ-- 'पुराने जमाने की बात है। मारवाड़ का एक किसान एक बार मेवाड़ जा पहुंचा। उसने गन्ने का रस पिया, गुड़ खाया, चीनी खायी और चीनी से बनी हुई चीजें खायीं। उसने सोचा-जहां गन्ने होते हैं, वह संसार कितना मधुर होता है? बजरी और गन्ने की कोई तुलना नहीं है। उसने गन्ने का बीज खरीदा और वह अपने गांव चला आया। घरवालों को एकत्र कर अपने मन की बात कही। उन्होंने कहा-यह फसल पकने को है, पहले इसे काट लें, फिर गन्ना बो लेंगे। वह अपनी बात पर अड़ा रहा। सारी सुनी-अनसुनी कर दी। पाकासन्न फसल कट गई। गन्ने की बआई हो गई। पानी कम था। सिंचाई परी हई नहीं। गन्ने की बुआई व्यर्थ! खड़ी फसल को काटने वाले किसान के लिए शेष बचा पछतावा। वैसे ही वर्तमान को छोड़ आगे के लिए दौड़ने वालों के लिए शेष बचता है पछतावा।' ६. सुख की जिज्ञासा मेरी आंखों के सामने नारियल का एक पेड़ है। एक सीधा-सा तना, कुछ पत्ते और कुछ नारियल। बस, इतना-सा दिखाई दे रहा है नारियल का पेड़। जो दृश्य है वही नारियल का पेड़ है या इसमें कुछ अदृश्य भी है? वह बीज दृश्य नहीं है, जो पेड़ का घटक है। वह शक्ति भी दृश्य नहीं है, जो पेड़ के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और जिसके द्वारा लिया जा रहा है आहार और श्वास। हमारी इन्द्रियों की सीमा दृश्य जगत् है। वे अदृश्य जगत् का प्रतिपादन नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह उन्हें ज्ञात नहीं है। वे उसका निरसन भी नहीं कर सकती क्योंकि अज्ञात का निरसन नहीं किया जा सकता। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख की जिज्ञासा २१ दृश्यता और अदृश्यता सापेक्ष है। मैं अब आगे बढ़ गया हूं। वह पेड़ मुझे नहीं दीख रहा है। दीवार का व्यवधान हो गया है। व्यवहित होने पर दृश्य भी इन्द्रियों के लिए अदृश्य बन जाता है। मैं अब समतल भूमि पर चल रहा हूं। फिर भी मुझे वह पेड़ नहीं दीख रहा है, क्योंकि अब मैं उससे बहुत दूर हो गया हूं। बहुत दूरी होने पर दृश्य भी इन्द्रियों के लिए अदृश्य बन जाता है। जो अणु सूक्ष्मवीक्षण से दिखाई देते हैं, वे कोरी आंखों से नहीं दीखते। मैं जो देखता हूं, वह स्थूल सृष्टि है। मैं जिसके द्वारा देखता हूं, वह स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म सत्य को वही दृष्टि पकड़ सकती है जो सूक्ष्म के साथ सम्पर्क स्थापित कर सके और सूक्ष्म पर आए हए स्थूल के आवरण को हटा सके। __मैं चित् को पेड़ की भांति नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि वह अमूर्त है। पेड़ मुझसे व्यवहित हो सकता है, दूर हो सकता है, किन्तु चित् मुझसे व्यवहित और दूर नहीं हो सकता, क्योंकि 'मैं' अर्थात् चित् का व्यक्त रूप, चित् और परमाणु का सम्पर्क-सेतु हूं। न चित् को भूख लगती है, न परमाणु को भूख लगती है। भूख मुझे लगती है। न चित् खाता है न परमाणु खाता है। मैं खाता हूं क्योंकि मैं चित् और परमाणु के संधि-स्थल में हूं। न चित् बोलता है और न परमाणु बोलता है। मैं बोलता हूं, क्योंकि मैं चित् और परमाणु के संधि स्थल में हूं। ___यह दृश्य जगत् चित् और परमाणु का संधि-स्थल है। सुख और दुःख इसी में है। ___शुद्ध चित् में न सुख है और न दुःख। वहां केवल अस्तित्व की अनुभूति है। उसे आप चाहें तो आनन्द कहें या न कहें। शुद्ध चित् में न बन्धन है और न मुक्ति। वहां केवल अस्तित्व की अनुभूति है। उसे आप चाहें तो स्वतंत्र कहें या न कहें। संधि-स्थल में अवस्थित चित् सुख-दुःख, बन्धन और परतन्त्रता से बाधित होता है, इसलिए शुद्ध अस्तित्व की उपलब्धि होने पर पूर्वापेक्षा से कहा जाता है-वह आनन्दमय है, मुक्त है, स्वतन्त्र है। वह अपने अस्तित्व के पूर्णोदय में है और असीम, अनन्त तथा अनाबाध आनन्द की अनुभूति में है। इस अनुभूति का धरातल ऐन्द्रियिक अनुभूति के Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति धरातल से ऊंचा है, इसीलिए जिसे यह दृष्टि प्राप्त होती है, वह ऐन्द्रियिक धरातल से उठकर इस धरातल पर आना चाहता है। भावी सुख के लिए वर्तमान सुख को छोड़ना, कल गढ़े में गिरने के लिए आज गढ़े से निकलने जैसा है। इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा, “बहुत आश्चर्य है कि तुम अप्राप्त काम-भोगों की प्राप्ति के लिए प्राप्त काम-भोगों को ठुकरा रहे हो? विद्यमान को ठुकरा कर अविद्यमान का संकल्प कर हत-प्रहत हो रहे हो?' - नमि राजर्षि ने कहा, “इन्द्र! तुम्हारी प्रज्ञा सम्यक् नहीं है। ये काम-भोग शल्य हैं। इनका घाव कभी भरा नहीं जा सकता। जो व्यक्ति काम-भोगों की प्रार्थना करता है, वह कामना के भंवरजाल में फंस जाता है। मैं उस जाल से मुक्त होने के लिए काम-भोगों को त्याग रहा हूं।" भृगु ने अपने पुत्रों से कहा था, “पुत्रो! वैभव, परिवार, पत्नी और काम-भोग, जिनके लिए तप तपा जाता है, वे सब तुम्हें प्राप्त हैं, फिर तुम किसलिए इन्हें छोड़ना चाहते हो?" भृगु-पुत्र बोले, "पिताजी! जो इनसे प्राप्त नहीं होता, उसी की प्राप्ति के लिए इन्हें छोड़ना चाहते हैं।" इन्द्रिय-सुख इतना सहज, इतना स्वाभाविक और इतना प्रिय है कि साधारण आदमी उसे त्यागने का स्वप्न भी नहीं ले सकता। उसे त्यागने की कल्पना वही आदमी कर सकता है, जिसे अपने अस्तित्व की विशुद्ध भूमिका की उपलब्धि का तीव्र अनुराग हुआ है। - जिस दिन मनुष्य को अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति हुई, उस दिन उसने सुख के स्तर और उनका तारतम्य निश्चित किया। ऐन्द्रियिक सुख का स्तर अतीन्द्रिय सुख के स्तर की तुलना में निम्न है। निम्नता के तीन हेतु हैं १. वह अनैकान्तिक है। २. वह साबाध है। ३. वह अनात्यन्तिक है। अतीन्द्रिय सुख ऐकान्तिक, निर्बाध और आत्यन्तिक है, इसलिए वह अधिक विश्वसनीय है। ऐन्द्रियिक सुख का सम्बन्ध भौतिक उपकरणों से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की चंचलता का प्रश्न २३ है, इसलिए वह स्पष्ट और सहज प्रतीत होता है । अतीन्द्रिय सुख अन्तर्दर्शन से सम्बन्धित है, इसलिए वह सहज होने पर भी असहज - सा प्रतीत होता है । सहज को असहज और असहज को सहज मानने की दृष्टि बदलने पर सुख की कल्पना बदल जाती है । १०. मन की चंचलता का प्रश्न जिसका मन शिक्षित नहीं है, वह धार्मिक भी नहीं है । धार्मिक वही है, जिसका मन शिक्षित है । मन शिक्षित नहीं है और वह धार्मिक है, यह विरोधाभास या आत्मभ्रान्ति है । धर्म के विद्यालय का पहला पाठ है-मन को शिक्षित करना । यह सरल होते हुए भी कठिन हो रहा है । माला फेरते - फेरते मनके घिस गए हैं और अंगुलियां भी घिस गई हैं, फिर भी यह प्रश्न समाहित नहीं हुआ कि मन स्थिर कैसे हो? जो प्रश्न पचास वर्ष पहले था, आज भी वह उसी रूप में खड़ा है। प्रक्रिया की ओर ध्यान न देने पर आज भी यह प्रश्न समाहित नहीं होगा । धर्म की पहली सीढ़ी हैं- मन पर विजय पाना । केशी ने गौतम से पूछा - 'शत्रुओं को आपने कैसे जीता? अपने आपको आपने कैसे जीता? उत्तर में गौतम ने कहा 'एगे जिया जिया पंच, दसहा उ जिणित्ताणं, पंच जिए जिया दस । सव्वसत्तू जिणामहं ॥' 'एक मन को जीता और चार कषायों पर विजय पा ली। इन पांच को जीतने से पांच इन्द्रियां भी विजित हो गईं। इस प्रक्रिया से सारे शत्रुओं पर मैंने विजय पा ली अर्थात् अपने आप पर विजय पा ली ।' जो मन को जीतना नहीं जानता, वह कषायों और इन्द्रियों पर विजय नहीं पा सकता। जो कषायों और इन्द्रियों को नहीं जीतता वह धार्मिक भी नहीं हो सकता, क्रियाकाण्डी हो सकता है । मन क्या है और उसकी चंचलता क्या है ? इस पर ध्यान दें। बच्चा रोता है, तब मां हौआ का भय दिखाती है । बच्चा चुप हो जाता है 1 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति वैसे ही मन की चंचलता कहीं हौआ तो नहीं है? मन क्या है? मन हमारी चेतना का ही एक द्वार है। चेतना अनन्त है। उसका एक द्वार मन है। उसे चंचल मानना हमारी भूल है। उसमें चंचलता का आरोपण किया गया है। युद्ध में लड़ने वाले सैनिक होते हैं। जीत होने पर विजय का श्रेय सेनापति को मिलता है और पराजय होने पर अपयश भी उसी का होता है। आरोपण की प्रक्रिया में एक का श्रेय-अश्रेय दूसरे को मिलता है। भलाई और बुराई दोनों का आरोपण किया जाता है। मन चंचल नहीं है। चंचल है श्वास और चंचल है शरीर। जब तक शरीर की चंचलता को छोड़ने का अभ्यास नहीं होगा और जब तक श्वास के विषय में हमारा ज्ञान गम्भीर नहीं होगा, तब तक हम इसी भाषा में सोचेंगे कि मन चंचल है। जिस दिन शरीर, वाणी और श्वास की स्थिरता सध जाएगी, उस दिन हमें ज्ञात होगा कि मन चंचल नहीं है। ११. मनोविकास की भूमिकाएं मन हमारी चेतना का एक बिन्दु है। हमारी प्रवृत्ति या निवृत्ति, हर कार्य में मन का योग रहता है। मन को जानना एक अर्थ में स्वयं को जानना है। मन की गतिविधि से अवगत रहना जागरूकता का लक्षण है। मन से परिचय मिल जाने से व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है। मन फीता नहीं है जिसे खींचकर बढ़ाया जा सके और उसका विकास किया जा सके। मन की क्षमता, योग्यता और कार्य-सम्पादन की पद्धति में विकास किया जा सकता है, यदि उससे परिचित हो लिया जाए। अज्ञान के कारण हम मन को नहीं जान पाते हैं। मन इन्द्रिय और आत्म-चेतना के मध्यवर्ती है। इन्द्रियों का सम्पर्क बाहरी जगत् से है और चेतना का केन्द्र अन्तर्जगत् है। मन दोनों (इन्द्रिय और चेतना) के द्वारा प्राप्त का विश्लेषण करने वाला या योग करने वाला है। मनोविज्ञान मानसिक विकास के दो साधन मानता है-वंशानुक्रम और वातावरण। पहला साधन स्वाभाविक क्षमता या प्राकृतिक देन है। दूसरा अभ्यास से होता है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविकास की भूमिकाएं २५ कवि भी दो प्रकार के होते हैं-प्रातिभ और अभ्यास-निष्पन्न। काव्य के क्षेत्र में हम देखते हैं आठ-दस वर्ष की अवस्था में भी कोई महान् कवि बन जाता है। दूसरे अभ्यास के पथ पर चलते-चलते महान् बनते हैं। हर क्षेत्र की यही स्थिति है। कृष्ण से पूछा गया-'मन का निग्रह कैसे किया जाए? उत्तर मिला 'असंशयं महाबाहो, मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन च कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते ॥' मन का निग्रह अभ्यास और वैराग्य से होता है। अभ्यास कृत होता है, अर्जित नहीं। वैराग्य स्वाभाविक होता है, कृत नहीं। योग के आचार्य पतंजलि ने भी यही कहा है-'अभ्यास और वैराग्य से मन का निरोध होता है।' अभ्यास करते-करते निरोध की अन्तिम सीढ़ी तक पहुंचा जा सकता है। अभ्यास से लब्ध नहीं होता तो पुरुषार्थ निष्फल हो जाता। अभ्यास से जो कल नहीं थे, आज बन सकते हैं। मन का विकास कैसे हो? इस प्रश्न पर आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रकाश डाला है। उन्होंने इसके लिए चार भूमिकाओं का उल्लेख किया १. विक्षिप्त, २. यातायात, ३. श्लिष्ट, ४. सुलीन। उन्होंने योगशास्त्र में अंतिम अध्याय को छोड़कर पूर्व के सभी अध्यायों में परम्परागत (सैद्धांतिक) ध्यान के विषय का सुन्दर प्रतिपादन किया है। अंतिम अध्याय में वे अपनी अनुभूतियां कहते हैं। अनुभूतियों में मार्मिकता है, आत्मा का स्पर्श है। कहीं-कहीं पर उनमें इतनी बेधकता आयी है, जितनी अन्यत्र कम है। विक्षिप्त यह पहली भूमिका है। इसमें साधक ध्यान करना प्रारम्भ करता है और Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति मन को जानने का प्रयत्न करता है। तब अनुभव करता है कि मन चंचल है। दिल्ली में जब साधना-शिविर चल रहा था उसमें एक भाई ने प्रश्न किया था-'ध्यान नहीं करता हूं तब मन स्थिर रहता है। ध्यान में मन अधिक चंचल हो जाता है, यह क्यों? - मैंने कहा-'ध्यान नहीं करते थे उस समय मन स्थिर था, यह भ्रांति है, अंकन में भूल है। ध्यान करने की स्थिति में आए तब अनुभव हुआ मन चंचल होता है। गांव के बाहर अकरडी है। हजारों उस पर चलते हैं, पर दुर्गन्ध की अनुभूति नहीं होती। उसकी सफाई के लिए कुरेदने पर बदबू भभक उठती है। क्या पहले दुर्गन्ध आती है? नहीं, जमा हुआ ढेर था, दुर्गन्ध दबी हुई थी। मन की भी यही प्रक्रिया है। मन में विचारों के, मान्यताओं के और धारणाओं के संस्कार जमे पड़े हैं। अनुभव नहीं होता कि मन चंचल है। जब मन को साधने का प्रयत्न करते हैं तब उसकी चंचलता समझने का अवसर मिलता है।' बहुत लोगों का कहना है कि माला जपते समय मन की चंचलता बढ़ती है, तब फिर माला जपने से क्या लाभ है? सामायिक में घरेल काम अधिक याद आते हैं, इसका कारण क्या है? चमार से पूछा गया-'क्या तुम्हें चमड़े की दुर्गन्ध आती है? उत्तर मिला-'नहीं।' बात भी सत्य है। यदि चमार को दुर्गन्ध की अनुभूति होने लग जाए तो उसका जीना दूभर बन जाए। दूसरे व्यक्ति को दुर्गन्ध आ सकती है, पर चमार को नहीं। चंचलता के वातावरण में रहने से चंचलता की अनुभूति नहीं होती। दूसरी भूमिका में जाने से चंचलता की अनुभूति होती है। यातायात जो चंचलता आती है वह बुराई नहीं है, विकास की ओर प्रयाण का पहला शुभ शकुन है। चंचलता का विस्फोट या उभार आए तो भी घबराएं नहीं, अन्तिम दिनों में स्थिरता की अनुभूति होने लगेगी। दीया बुझता है, उस समय अधिक टिमटिमाता है। चींटी के पंख आने का अर्थ है मृत्यु की निकटता। विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस से कहा-'गुरुदेव! वासना का इतना उभार आ रहा है कि मैं अपने को संभालने में अक्षम हूं।' Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविकास की भूमिकाएं २७ गुरु ने उत्तर दिया-'बहत अच्छा है।' विवेकानन्द-अच्छा कैसे है, जबकि मन चंचल हो रहा है? परमहंस-तुम्हारी वासना मिट रही है। जो जमा हुआ पड़ा था वह निकल रहा है। ध्यान में चंचलता आए उसे छोड़ दो, दबाने का यत्न मत करो। जिसका निरोध किया जाता है वह अधिक चंचल हो जाता है। जिसका निरोध किया जाता वह स्वतः शान्त हो जाता है। 'निवारितं बहु चंचलं भवति, अनिवारितं स्वयमेव शांतिमेति।' रोकने का प्रयत्न मत करो। तुम देखते रहो वह कितना तेज दौड़ रहा है? तीव्र गति में दौड़नेवाली मोटर को ब्रेक लगाने से क्या होगा? १०५ डिग्री बुखार को एक साथ उतारने में खतरा ही होता है। मन की गति को मत रोको। मन को खुला छोड़ दो। बच्चे को बांधने से न आप काम कर सकेंगे और न वह टिक सकेगा। बच्चे को खुला छोड़ने से आप भी काम कर सकेंगे, जरा-सा ध्यान रखें। मन को न रोकने से आप देखेंगे, कभी वह चंचल है तो कभी शान्त। यातायात की भूमिका में मन कभी स्थिर रहता है और कभी चंचल। श्लिष्ट श्लिष्ट यानी चिपकना। मन को ध्येय के साथ चिपकाना यानी उसके साथ सम्बन्ध स्थापित करना। अभ्यास करते-करते मन इस भूमिका पर आ जाता है। सुलीन सुलीन का अर्थ है-ध्येय में लीन हो जाना। जैसे दूध में चीनी घुल जाती है। घुलने से चीनी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता अपितु उसमें विलीन हो जाता है। दूध में मिठास चीनी का अस्तित्व बताता है। इस भूमिका में मन ध्येय में लीन हो जाता है, मन को ध्येय से भिन्न नहीं देख सकते। योग की भाषा में आचार्यों ने इसे समरसी भाव और समापत्ति कहा है। जहां ध्येय और ध्याता की एकात्मकता सध जाती है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति वह सुलीन भूमिका है। पतंजलि ने इसका कुछ भिन्नता से प्रतिपादन किया है। विक्षेप में मन का उतार-चढ़ाव रहता है, वहां आनन्द नहीं है। यातायात में एक प्रकार के थोड़े-से आनन्द का अनुभव होता है जो भौतिकता में नहीं मिलता। श्लिष्ट में बहु-आनन्द मिलता है। सुलीन की भूमिका में बहुतर यानी परमानन्द की अनुभूति होती है। कुछ लोग पदार्थों में सुख और आनन्द की कल्पना करते हैं। वास्तव में पदार्थ के बिना जो आत्मा में आनन्द की अनुभूति होती है वह पदार्थों से नहीं होती। हमारे शरीर में दो ग्रन्थियां सटी हुई हैं-एक सुख की और एक दुःख की। सुख की ग्रन्थि को उत्तेजित करने पर अखण्ड सुख की अनुभूति होने लगती है। बाह्य परिस्थिति का दुःख उत्पन्न करने पर भी उसे दुःख की अनुभूति नहीं होती। दुःख की ग्रन्थि खुलने पर चारों ओर उसे दुःख ही दुःख दिखाई देता है। हमारी साधना के द्वारा सुख की ग्रन्थि आहत हो जाती है। एक व्यक्ति ने बताया कि जब मैं ध्यान करने बैठता हूं तो दो दिन तक बैठा रहता हूं। किसी स्थिति के कारण बीच में छोड़ना पड़ता है तो दुःख होता है। चोट-सी लगती है। . खाने में आनन्द आ सकता है पर बिना खाए-पीए भी आनन्द आ सकता है, यह कल्पना करना भी कठिन है। अन्तर हृदय में आनन्द का सागर हिलोरें ले रहा है, लेकिन अज्ञान के कारण हम आनन्द से वंचित रह जाते हैं। १२. व्यक्ति और समाज मेरे सामने एक पेड़ है और एक पत्र है, एक जलाशय है और एक मछली है; एक जलराशि है और एक जलकण है। पत्र पेड़ से उत्पन्न हआ है और उससे अलग होकर वह जी नहीं सकता। अतः उसका अस्तित्व पेड़ से भिन्न नहीं है। मछली जल से उत्पन्न नहीं है, किन्तु वह जल के बिना जी नहीं सकती, अतः उसका अस्तित्व जल से भिन्न Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति और समाज २८ नहीं है। जलकण जलराशि से उत्पन्न नहीं है, किन्तु वह जलराशि से विलग टिक नहीं सकता, अतः उसका अस्तित्व जलराशि से भिन्न नहीं है । पेड़ और पत्र का सम्बन्ध समाज और व्यक्ति का सम्बन्ध नहीं हो सकता । पत्रों के समूह से पेड़ नहीं बनता किन्तु पत्र पेड़ से उत्पन्न होते हैं। समाज व्यक्तियों के समूह से बनता है, किन्तु व्यक्ति समाज से उत्पन्न नहीं होते। मछली का कर्मक्षेत्र जलाशय है । व्यक्ति का कर्मक्षेत्र समाज है । जलकण का विस्तार क्षेत्र जलराशि है । व्यक्ति का विस्तार - क्षेत्र समाज है। मछली का अस्तित्व जलाशय से भिन्न नहीं है, फिर भी समाज और व्यक्ति के सम्बन्धों की तुलना उनसे नहीं हो सकती । समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध का आधार एक जातीयता है, जबकि जल और मछली भिन्न जातीय हैं। समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध जलराशि और जलकण से तुलित होते हैं । समाज और व्यक्ति में वैसे ही सजातीयता है जैसे जलराशि और जलकण में है । फलित की भाषा में समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध का निकष है - एकजातीयता से निष्पन्न एकात्मकता । व्यक्ति समाज से एकात्मक है । कोई भी एकात्मकता अमर्यादित नहीं होती । जहां सामाजिक सापेक्षता है वहां व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग है । जिस परिधि में सामाजिक सापेक्षता नहीं होती, वहां व्यक्ति सामाजिक रेखा का एक बिन्दु है । यह निरपेक्षता अध्यात्म की परिधि में प्राप्त होती है। मैं देख रहा हूं कि एक आदमी धनार्जन कर रहा है और घर के सभी लोग उसका उपभोग कर रहे हैं। धन भौतिक है इसलिए वह प्रसरणशील है - एक द्वारा अर्जित होने पर भी दूसरे द्वारा भुक्त हो सकता है। मैं देखता हूं कि एक आदमी धन का विनिमय कर रहा है। धन भौतिक है इसलिए उसका विनियम हो सकता है - एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु दी जा सकती है। अध्यात्म भौतिक वस्तु नहीं है इसीलिए वह प्रसरणशील भी नहीं है और उसका विनिमय भी नहीं हो सकता । वह आत्म- केन्द्रित है और नितान्त वैयक्तिक है। बिजली दृश्य वस्तुओं को प्रकाशित कर देती है पर उनमें अपनी प्रकाश-शक्ति नहीं भर सकती। एक व्यक्ति का Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आध्यात्मिक अस्तित्व दूसरे को आलोकित कर देता है किन्तु अपना आलोक दूसरे में आरोपित नहीं करता, जैसे एक प्रज्वलित दीप से दूसरा अप्रज्वलित दीप प्रज्वलित हो उठता है। हर मनुष्य में आध्यात्मिक आलोक है, और उतना ही है जितना कि महान् माने जाने वाले किसी व्यक्ति में है। ____ मैं देख रहा हूं अगरबत्ती जल रही है और सारा वातावरण सुगन्ध से भर गया है। अग्नि एक निमित्त है, जो अगरबत्ती की सुगन्ध को व्यक्त करती है। ऐसा ही कोई निमित्त पाकर व्यक्ति की सुगन्ध फूट पड़ती है और उसका वातावरण महक उठता है। पर यह सारा का सारा नितान्त वैयक्तिक है। ___ समाज की सत्ता मान लेने पर भी वैयक्तिकता को अमान्य करने में प्रमाद दिखाई देता है। समाज प्रवृत्ति-केन्द्र हो सकता है, किन्तु चैतन्य-केन्द्र नहीं हो सकता। वह हो सकता है व्यक्ति। व्यक्ति समाजाभिमुख होकर शक्ति-स्फोट करता है और समाज व्यक्ति अभिमुख होकर उपयोगी बनता है। व्यक्ति और समाज की निरपेक्ष व्याख्या हमें सत्य से दूर ले जाती है। १३. सामूहिकता के बीच तैरती अनेकता जैसा मैं हूं वैसा ही दूसरा है, यह अस्तित्व की गहराई का स्वीकार है। व्यवहारनीति का स्वीकार यह है कि जैसा मैं हूं, वैसा दूसरा नहीं है और जैसा दूसरा है, वैसा मैं नहीं हूं। मेरी क्षमता के तार जैसे झंकृत हैं, दूसरे की क्षमता के तार वैसे झंकृत नहीं हैं और यह झंकार-भेद ही व्यक्ति का व्यक्तित्व है-सर्वथा स्वतंत्र और सर्वथा निजी। हम संघीय जीवन जीते हैं। हम अनेक होकर एकता का प्रदर्शन करते हैं-एक साथ खाते-पीते हैं, उठते-बैठते हैं, बातचीत करते हैं, सुख-दुःख का विनिमय करते है, सहयोग और सहानुभूति का अभिनय करते हैं और इतना करने पर भी हम अनेक ही रहते हैं, एक नहीं हो पाते। हम अनेक हैं, इसीलिए हमारे सम्मुख व्यवहार है, उपचार है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामूहिकता के बीच तैरती अनेकता ३१ एकता व्यवहार और उपचार से ऊपर उठ जाती है। हम अनेक हैं, इसीलिए हमारे सम्मुख तुलादण्ड है, मापदण्ड है। एकता तौल और माप से ऊपर उठ जाती है। ___ हम व्यवहार की भूमिका में हैं, इसलिए कोई भी तुलातीत या मापातीत नहीं है। हमारे पास तौल-माप का कोई सर्वसाधारण तुलादण्ड और मापदण्ड भी नहीं है। हम अपने ही तुलादण्ड से दूसरों को तौलते हैं और अपने ही मापदण्ड से दूसरों को मापते हैं। इसी बिन्दु पर हमारी अनेकता अपना असली रूप प्रदर्शित करती है। मैं एक हूं, किन्तु अनेक लोगों के सम्पर्क में हूं, इसलिए अनेक चक्षुओं में मेरे अनेक प्रतिबिम्ब हैं। क्या मैं सचमुच अनेक हूं? मैं जानता हूं कि मैं अनेक नहीं हूं। मैं एक हूं और वस्तु-सत्य यह है कि मैं एक हूं। अनेकता का आरोपण मेरा अपना धर्म नहीं है, वह उनका है, जो अनेक हैं। हम अनेक हैं, इसीलिए हैं, इसीलिए मैं अपने ढंग से सोचता हूं और दूसरा व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है। मैं उसके चिंतन में संदेह करता हूं और वह मेरे चिंतन में संदेह करता है। मैं उसकी कार्य-पद्धति में त्रुटि देखता हूँ और वह मेरी कार्य-पद्धति में त्रुटि देखता है। मैं उसे भोला या मूर्ख मानता हूं और वह मुझे भोला या मूर्ख मानता है। इस प्रकार हम एक समूह में रहते हुए भी अपनी अनेकता को सुरक्षित रखे हुए हैं। हमारी अनेकता का एक हेतु है व्यक्तित्व की स्वतंत्रता और दूसरा है अपरिचय। हम व्यक्तिशः स्वतंत्र हैं, वह स्थिति समापनीय नहीं है। समाप्य स्थिति यह है कि हमारा परस्पर अपरिचय न हो। मैं जिससे परिचित नहीं हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त नहीं हूं और वह मेरे प्रति भ्रान्त नहीं है। मैं जिसकी सतह से परिचित हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त हूं और मेरे प्रति वह भ्रान्त है। मैं जिसकी गहराई से परिचित हूं, उसके प्रति मैं भ्रान्त नहीं हूं और मेरे प्रति वह भ्रान्त नहीं है। सामाजिक जीवन में मैं दूसरे से भिन्न हूं, उसका प्रमुख हेतु अपरिचय-जनित भ्रान्ति है। सामाजिक एकता की क्रान्ति का मुख्य सूत्र होगा परिचय, निकट का परिचय अर्थात् अभ्रान्ति। _ क्या मैं दूसरे से परिचित हूं? क्या दूसरा मुझसे परिचित है? क्या मैं दूसरे से परिचित हो सकता हूं? क्या दूसरा मुझसे परिचित हो सकता है? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति पहले प्रश्न के उत्तर में मैं कह सकता हूं कि दूसरे व्यक्ति के नाम-रूप और स्थूल व्यवहारों का परिचय मुझे प्राप्त है। मेरे नाम-रूप और स्थूल व्यवहारों का परिचय उसे प्राप्त है। किन्तु मन की गहराइयों और उनमें उपजने वाले सूक्ष्म व्यवहारों से मैं भी परिचित नहीं हूं और वह भी नहीं है। एक-दूसरे से परिचित होने की सम्भवता को मैं स्वीकार करता हूं। यदि हम तीन आवर्तों का पार पा जाएं तो वह सम्भव है, मेरे लिए भी और दूसरे के लिए भी। अज्ञान पहला आवर्त्त है। कुछ विचारक कहते हैं-जानने से दुःख होता हैं मैं इस विचार का प्रतिवाद इस भाषा में नहीं करूंगा कि नहीं जानने से दुःख होता है। किन्तु इस भाषा में करूंगा कि नहीं जानना स्वयं दुःख है। दुःख की सत्ता नहीं जानने की सत्ता पर अवलम्बित है। जैसे ही नहीं जानने की स्थिति समाप्त होती है, वैसे ही दुःख की सत्ता समाप्त हो जाती है। दूसरा आवर्त सन्देह है। कुछ चाणक्य-पुत्र कहते हैं-दूसरों के प्रति सहसा विश्वास नहीं करना चाहिए। मेरे गुरु ने मुझे दूसरी तरह समझाया है। वह समझ है कि दूसरों के प्रति सहसा अविश्वास नहीं करना चाहिए। सन्देह, सन्देह और फिर सन्देह-इस शृंखला का कहीं भी अन्त नहीं है। सन्देह का अन्तिम उपचार विश्वास है। विश्वास में कहीं खतरा सम्भव हो सकता है, किन्तु अविश्वास स्वयं खतरा है। विश्वास के खतरे की सक्षम जागरूकता के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है, किन्तु अविश्वास सर्वथा अचिकित्स्य है। ___ मोह तीसरा आवर्त्त है। कुछ दूरदर्शी लोग शठ के प्रति शठता का व्यवहार-इसी नीति-सूत्र में सारी सफलता को निहित देंखते हैं। शुद्ध व्यवहार से मनुष्य का हृदय-परिवर्तन किया जा सकता है, इनमें उन्हें विफलता के दर्शन होते हैं। मेरे गुरु ने मुझे सफलता का सूत्र दिया है- 'अशठ व्यवहार'-शठ और अशठ दोनों के प्रति। यह सूत्र विवेकहीन प्रतीत होता है। तिमिर और आलोक दोनों के प्रति समनीति क्या विवेक-सम्मत होगी? किन्तु मेरा गुरु-मंत्र बहुत उल्टा है। उसकी परिधि में तिमिर और आलोक दो हैं ही नहीं। हर तिमिर की गहराई में आलोक भरा है और हर आलोक तिमिर से आवृत है। मैं अशठ व्यवहार इसलिए करता हूं, जिससे गहराई में रहा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मैं स्वतंत्र हूं? ३३ आलोक सतह पर आ जाए और मैं शठता का व्यवहार इसलिए नहीं करता हूं, जिससे आलोक तिमिर के आवरण से मुक्त हो जाए। १४. क्या मैं स्वतंत्र हूं? मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मैं स्वतंत्र नहीं हूं। मैं क्या, जिसके पन्दिर में प्राण का प्रदीप जल रहा है, वह कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है। प्राणवायु प्रवाहित हो रहा है, मैं जी रहा हूं। अनाज उपज रहा है, मैं खा रहा हूं। जल बरस रहा है, मैं पी रहा हूं। मेरी पुष्टि अन्न और जल के अधीन है। मेरी जीवन-यात्रा प्राणवायु के अधीन है। जीवन का अर्थ है, पराधीनताओं की स्वीकृति। __मैं देख रहा हूं, सामने दीवट है, दीप जल रहा है। एक मृन्मय पात्र, तेल, बाती, हवा और अग्नि-दीप इन सबकी अधीनता स्वीकार कर प्रकाश दे रहा है। मैं देख रहा हूं, बीज अंकुरित हो रहा है। उर्वरभूमि, जल, धूप, प्रकाश और हवा-बीज इन सबकी अधीनता स्वीकार कर रहा है। क्या दीप प्रकाश देने में स्वतंत्र है? क्या बीज अंकुरित होने में स्वतंत्र है? काल, स्वभाव, नियति, भाग्य और पुरुषार्थ की श्रृंखला से कोई भी मुक्त नहीं है। फलतः कोई भी स्वतंत्र नहीं है। एक पिंजड़ा टंगा हुआ है। उसके मध्य में एक सुग्गा बैठा है। पिंजड़े का द्वार खुला, सुग्गा उड़ गया। मैंने अपने आपसे पूछा, वह भोला पक्षी घर को छोड़ जंगल में क्यों चला गया? पिंजड़े में छितरे हुए मेवों को छोड़ सूखे पेड़ों की शरण में क्यों चला गया? कोई अज्ञात स्वर गूंज उठा-पिंजड़ा बन्धन है। अनन्त शून्य की गोद में स्वच्छन्द विहरने वाला सुग्गा बंधन को कैसे पसन्द कर सकता है? मैंने इसका अर्थ यह समझा कि अनन्त शून्य से घिरा हुआ है, इसलिए घेरे की शून्यता मान्य नहीं है। ___गति-पर्याय से घिरा हुआ जल क्या कभी सेतु को मान्यता देता है? बांध का अर्थ है, जल की विवशता। वह गति के अधीन है, इसलिए उसे स्थिति मान्य नहीं है। मैं यही कहना चाहता हूं कि बंधन का अर्थ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति है, अपरिहार्य अधीनता के आकाश में परिहार्य अधीनता का संगम। और स्वतन्त्रता का अर्थ है, केवल अपरिहार्य अधीनताओं का अवशेष। कोई कैसे कह सकता है कि आदमी को स्वतंत्रता प्रिय है, परतंत्रता प्रिय नहीं है? पैरों से चलना उतना प्रिय नहीं है, जितना प्रिय है दूसरों के सहारे चलना। मैं देखता हूं कि दिल्ली के राजपथ कारों से भरे हैं और उनमें बैठे हजारों लोग इधर-उधर आ-जा रहे हैं। यदि वे घेरे की शक्ति से परिचित नहीं होते तो कारों में नहीं बैठते। वे जानते हैं कि अपने पैरों से चलने वाला घंटे में तीन-चार मील ही चल सकता है। यदि मैं घेरे की शक्ति से परिचित नहीं होता तो परम्परा से नहीं जुड़ता। परम्परा, सम्प्रदाय, जाति और राष्ट्र-ये सब घेरे हैं, सीमा-बद्ध हैं। इनमें शक्ति नहीं होती तो ये कभी समाप्त हो जाते। पर ये जी रहे हैं और इसीलिए जी रहे हैं कि विद्युत् का प्रवाह बल्ब से घिर कर ही आलोक देता है। दृति से घिरा हुआ पवन जो कार्य कर सकता है, वह मुक्त आकाश में नहीं कर सकता। गोली में शक्ति तभी आती है, जब वह बन्दूक से दागी जाती है। बाण में शक्ति तभी आती है, जब वह धनुष से फेंका जाता है। . मनुष्य ने बन्धन का स्वीकार मूर्खतावश नहीं किया है। वह भाषा के बंधन से बंधा हुआ है, इसीलिए सोचता है और दूसरों तक पहुंचता है। वह इंद्रिय और मन से बंधा हुआ है, इसीलिए गतिशील है। वह भूख से बंधा हुआ है, इसीलिए कार्यरत है। पर के प्रति व्याप्त होने के प्रेरक तत्त्व ये ही हैं-शरीर, भाषा, इन्द्रिय, मन और भूख। इनका प्रवृत्ति-क्षेत्र ही समाज है। स्व यदि स्व ही रहता तो मैं पूर्ण स्वतंत्र होता। जिसके पैर स्वस्थ हों, उसे बैसाखी की अपेक्षा नहीं होती। मेरी अपूर्णता ने भी मुझे सापेक्षता की ओर झुकाया है। मेरे वाच्य का निगमन यह है कि मैं अपूर्ण हूं, इसलिए सापेक्ष हूं, और सापेक्ष हूं, इसीलिए इस प्रश्न से आलोकित हूं, कि क्या मैं स्वतंत्र हूं? स्वतंत्र वह है जो ऊपर उठता है। परतंत्र वह है जो नीचे जाता है। लिप्त नीचे जाता है, निर्लेप ऊपर उठता है। हल्का ऊपर उठता है, भारी नीचे जाता है। तुम्बे पर मिट्टी के लेप चढ़ाए। वह जल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मैं स्वतंत्र हूं? ३५ में डूब गया। जैसे-जैसे लेप उतरे, वह ऊपर आ गया। धुआं इसीलिए ऊपर गया कि वह हल्का है। पत्थर इसीलिए नीचे आया कि वह भारी है। ऊपर जाना लाघव की अधीनता है और नीचे जाना भार की अधीनता। लेप ने निर्लेपता की अनुभूति दी है और अधःपात ने ऊर्ध्वगमन की। __यदि अंधकार नहीं होता तो प्रकाश का वह मूल्य नहीं होता, जो आज है। स्वास्थ्य, सुख और शान्ति का मूल्य रोग, दुःख और अशान्ति के संदर्शन में ही आंका जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि निरपेक्ष मूल्यांकन से अतीत है और इसका अर्थ यह हुआ कि वह कालातीत है। मैं व्यक्त हूं, इसलिए कालाक्रांत हूं। मैं कालाक्रांत हूं, इसलिए भूत, भविष्य और वर्तमान की मर्यादा से मर्यादित हूं। क्या कोई मर्यादित व्यक्ति यह जिज्ञासा कर सकता है कि मैं स्वतंत्र हूं? । कुम्हार का चाक कुछ क्षण पहले उसकी उंगली के अधीन होकर चल रहा था। अब वह उस वेग के अधीन चल रहा है जो उंगली द्वारा प्रदत्त है। मैं कभी उंगली के अधीन चल रहा हूं और कभी वेग के अधीन। दुनिया की सारी गतिशीलता अधीनता द्वारा नियंत्रित है। एक बार एक राजा और मंत्री में विवाद हो गया। मंत्री ने कहा-सारे लोग पत्नी की अधीनता स्वीकार कर चल रहे हैं। राजा ने इसका प्रतिवाद किया। आखिर परीक्षा की घड़ी आयी। दो खेमे लगे। पत्नी की अधीनता को मान्यता देने वाला खेमा भर गया। दूसरे खेमें में सिर्फ एक व्यक्ति गया। राजा के पूछने पर उसने बताया कि मेरी पत्नी ने कहा-भीड़-भाड़ में मत फंसना, इसलिए मैं अकेला खड़ा हूं। सारे नगर में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जो पत्नी द्वारा चालित न हो। सारी दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो अपेक्षाओं द्वारा संचालित न हो। - मैं एक बार जंगली माषों के पौधों से घिरा बैठा था। दोपहरी की वेला थी। सूरज अपनी प्रखर रश्मियों से उन पौधों पर आग बरसा रहा था। उन पर लगी फलियों में तड़-तड़ की ध्वनि हो रही थी। मैंने सस्मय दृष्टि से देखा-फलियां टूट रही हैं, दाने आकाश में उछल रहे हैं। उछलने में स्वतंत्रता के आनन्द की अनुभूति थी। अनुभूति ने मुझे यह संबोध दिया कि दाने को फली की अधीनता मान्य हो सकती है, यदि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति वह पकने के बाद दाने को मुक्त करने के लिए प्रस्तुत हो । फल को वृन्त की अधीनता मान्य हो सकती है, यदि वह पकने के बाद फल को मुक्त करने के लिए प्रस्तुत हो । इस संचर्चा के बाद मेरे मन पर वह प्रश्न नहीं उभर रहा है कि क्या मैं स्वतंत्र हूं ? किन्तु यह विश्वास उभर रहा है कि मैं स्वतंत्र होने के लिए परतंत्र हूं । १५. अहिंसा का आदि-बिन्दु मैं अपने आपको अपूर्ण मानता हूं, फिर भी कोई व्यक्ति मेरी अपूर्णता की ओर इंगित करता है तो मेरी पूर्णता की आग प्रज्वलित हो उठती है । अपूर्णता की स्मृति क्षण भर के लिए लुप्त हो जाती है । मैं सोचता हूं, ऐसा क्यों होता है? शायद इसीलिए होता है कि इंगित करने वाला मेरी पूर्णता को लक्ष्य करके ही मेरी अपूर्णता की ओर इंगित करता है । उसके मन में एक चित्र मेरी पूर्णता का होता है और वह इंगित करता है मेरी अपूर्णता की ओर । वह मेरी अपूर्णता को लक्ष्य में रखकर उसकी ओर इंगित करे तो मुझे अपनी अपूर्णता की विस्मृति का क्षण न देखना पड़े । अहिंसा में मेरी आस्था है । यदा-कदा उसके प्रयोग भी करता हूं । किन्तु हिंसा के चिर संचित संस्कारों को चीरकर मैं अहिंसा की प्रतिष्ठा कर चुका हूं. यह मैं मानूं तो मेरा दम्भ होगा। मैं इतना ही मान सकता हूं कि मैं अहिंसा की दिशा में चल रहा हूं। कब तक कहां पहुंच पाऊंगा - यह प्रश्न केवल वर्तमान से ही जुड़ा होता तो मैं इसके उत्तर की रेखा खींच डालता किन्तु यह प्रश्न मेरे अतीत से जुड़ा हुआ है, इसलिए अहिंसा की दिशा में चल रहा हूं, इससे आगे कहने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मेरे प्रिय आलोचक ! मैं इतना सा तुम्हें बता सकता हूं कि मैं रूढ़ नहीं हूं। मैं प्रवहमान जल को स्वच्छ मानता हूं और यह भी मानता हूं कि गढ़े में अवरुद्ध जल की स्वच्छता नष्ट हो जाती है । मैं जो हूं, वही रहूं और जैसा हूं, वैसा ही रहूं, इस मनोवृत्ति में मेरी कोई आस्था नहीं है और इसलिए नहीं है कि इसमें मैं हिंसा की पौध Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का अर्थ ३७ को पनपते देखता हूं। ___मैं अपूर्ण हूं और पूर्ण होना चाहता हूं यही मेरी अहिंसा का आदि-बिन्दु है। अपूर्ण पूर्ण तभी होगा, जब जो है, वह नहीं रहेगा और जो नहीं है, वह होगा। यह है मेरा अपना आलोचन अपनी ही लेखनी द्वारा प्रसूत! १६. अहिंसा का अर्थ मैं अपने जीवन का सिंहावलोकन करता हूं तब कल्पनालोक से उतर धरती पर आ जाता हूं और कल्पना के पंखों को छोड़ अपने पैरों से चलने लग जाता हूं। मैं देखता हूं, एक दिन मैंने संकल्प किया था, मैं अहिंसा का पालन करूंगा। उस समय मेरे लिए अहिंसा का अर्थ था जीवों को न मारना। जहां जीव मरे, वहां भी अहिंसा हो सकती है, यह मेरे लिए अतर्कणीय था। ___जीव-दया की अर्थ-गरिमा भी कम नहीं है। आत्मतुला के भाव की चरम परिणति में अतुल आनन्दानुभूति होती है। समय-समय पर मुझे इसकी अनुभूति हुई है। मैं जैसे-जैसे बड़ा हुआ, सहधर्मियों की मनोभूमिका पर विहरने लगा, तब मुझे प्रतीत हुआ मेरी अहिंसा की समझ अधूरी है। अहिंसा की परिपूर्ण वेदिका के निर्माण के लिए मैं तड़प उठा। मैंने समझा, अहिंसा का अर्थ है, परिस्थिति के मर्मभेदी परशु से मर्माहत न होना। इस कुशल जगत् में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो परिस्थिति के मृद् पुष्प से प्रमत्त और कठोर वज्र से आहत न हो। मुझे लगा जो व्यक्ति अपनी जीवन-धारा को परिस्थिति के प्रभाव-क्षेत्र की ओर प्रवाहित कर देता है, वह अहिंसा की अनुपालना नहीं कर सकता। परिस्थिति की मृदुता से आने वाली मूर्छा के साथ-साथ चेतना मूर्छित हो जाती है और उसकी कठोरता से उपजने वाली कुण्ठा के साथ-साथ वह कुण्ठित हो जाती है। अहिंसा चेतना की स्वतन्त्र दशा है। जो सर्दी से अभिभूत हो जाए, वह स्वतन्त्र नहीं हो सकती। जो गर्मी से अभिभूत हो जाए, वह भी स्वतन्त्र नहीं हो सकती। स्वतन्त्र वह हो सकती हैं जो किसी से अभिभूत Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति न हो। अब मेरी अहिंसा का प्रकाश-स्तम्भ यही है। इसमें प्राणी-दया के प्रति मेरा मन पहले से अधिक संवेदनशील बना है, दूसरे की पीड़ा में अपनी पीड़ा की तीव्र अनुभूति होने लगी है, यदि मैं परिस्थिति की कारा का बन्दी बना बैठा रहता तो दूसरों के प्रति निरन्तर संवदेनशील नहीं रह पाता। ___ परिस्थिति निरन्तर एक रूप नहीं रहती। उसके प्रतिबिम्ब को स्वीकार करने वाली चेतना भी एकरूप नहीं रह सकती। कुछ लोग मुझे व्यवहार-कुशल मानते हैं तो कुछ लोग मानते हैं कि मैं व्यवहार-कुशल नहीं हूं। कुछ लोग मानते हैं, मैं आध्यात्मिक हूं तो कुछ लोग मानते हैं, यह मेरी सारी राजनीति है। अनेक तुलाएं हैं और अनेक मापदण्ड। मैं तुलनीय हूं, इसलिए तोला जाता हूं। मैं माप्य हूं, इसलिए मापा जाता हूं। यदि मैं तुलातीत और मापातीत होता तो मेरी अहिंसा प्रस्तर-जगत् की अहिंसा और मेरी शान्ति श्मशान की शान्ति होती। मेरी अहिंसा चेतना-जगत् की अहिंसा है और मेरी शान्ति तुमुल के मध्य में स्नात शान्ति है। इसका साक्ष्य यही है कि मैं दूसरों की तुला से तुलित अपने व्यक्तित्व का निरीक्षण-परीक्षण करता हूं पर मान्यता उसी व्यक्तित्व को देता हूं, जो मेरी अपनी तुला से तुलित है। मेरे लिए मानदण्ड भी मेरा अपना है। इसमें मेरा अहं नहीं बोल रहा है। यह मेरे अस्तित्व का बोध है जो किसी अपर सत्ता से प्रतिहत नहीं होता। यह अस्तित्व का अप्रतिघात ही मेरी आज की अहिंसा है। ____ अहिंसा के दो आयाम हैं-प्रतिरोध और प्रतिकार। हिंसा के भी ये दो आयाम हैं। प्रतिरोध अपना बचाव है और प्रतिकार है परिस्थिति पर आघात। अहिंसा में प्रतिरोध और प्रतिकार की शक्ति नहीं रही तो अहिंसक निर्वीर्य बन जाएगा, शक्ति-संतुलन हिंसा के हाथ में चला जाएगा। आज जन-साधारण में अहिंसा के प्रति जो भ्रम है, वह निरस्त होना चाहिए। उसे यह अनुभव होना चाहिए कि अहिंसा निर्वीर्य नहीं है। उसमें प्रतिरोध और प्रतिकार की क्षमता हिंसा की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और तीव्र है। हिंसा में विश्वास करने वाला उसका प्रतिरोध और प्रतिकार उससे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का अर्थ ३६ प्रभावित होकर करता है, हिंसा को स्वीकार करके करता है। हिंसा और हिंसा-परस्पर सजातीय हैं। इसीलिए हिंसा हिंसा को मारती नहीं, उबारती है, उसे परम्परा-पात में प्रवाहित करती है। __ अहिंसा में विश्वास करने वाला हिंसा का प्रतिरोध और प्रतिकार उससे अप्रभावित होकर करता है-हिंसा की परिस्थिति को मान्यता न देते हुए करता है। हिंसा और अहिंसा परस्पर विजातीय हैं। इसीलिए अहिंसा से हिंसा निरस्त हो जाती है, उसकी परम्परा समाप्त हो जाती है। अहिंसा की प्रतिरोध-शक्ति है-स्वतन्त्र चेतना का अनावृतीकरण और उसकी प्रतिकार शक्ति है-प्रेम का विस्तार और उतना विस्तार, जिसमें शून्य न हो, अप्रीति के लिए कोई अवकाश न हो। मैं विमल दृष्टि से देखता हूं-यदि मैं परिस्थिति-परतन्त्र चेतना को मान्यता देकर चलता तो मेरा शक्ति-बीज अंकुरित होने से पहले ही विलुप्त हो जाता। ___ मैंने न जाने कितनी बार इस सूत्र की पुनरावृत्ति की है-“वह पराजय को निमन्त्रण देता है जो क्रिया से विमुख हो प्रतिक्रिया के सम्मुख चलता है।' प्रेम का विस्तार, यह मेरी क्रिया है। इसमें मेरी चेतना का स्वतन्त्र कर्तृत्व है। इससे प्रतिहत होकर हिंसा अपनी मौत मर जाती है। __मैं हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करने लगूं तो वह मेरी प्रतिक्रिया होगी। मेरे द्वारा नियन्त्रित क्रिया नहीं किन्तु सम्मुखीन परिस्थिति द्वारा नियंत्रित क्रिया होगी, यानी प्रतिक्रिया होगी। इस प्रतिक्रिया से मुझे बल नहीं मिलता। किन्तु मेरा बल उसमें जाता है, जिसके प्रति मैं क्रिया करता हूं। इसका अर्थ होता है, मेरी विरोधी परिस्थिति मेरे बल का संबल पाकर अपनी प्रहार-शक्ति को तीव्र बना लेती है। क्या मेरी मूर्खता का इससे अनुपम उदाहरण और कोई हो सकता है कि मैं अपनी शक्ति का दान उसके लिए करूं, जो मुझे शक्ति-शून्य करना चाहती है? 'आत्म-विश्वास जितना शून्य होता है, उतना ही उसमें परिस्थिति को अवकाश मिलता है'-इस सूत्र ने मुझे जो आलोक दिया है, उससे मैं लाभान्वित हुआ हूं और अमा की अंधियारी में भी अपना पथ देख लेता हूं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : मैं कई वर्षों से इस साधना के प्रति प्रयत्नशील हूं कि मेरे मन में अप्रियता की अनुभूति का स्रोत सूख जाए। वह स्रोत, जो मेरे भीतर प्रवाहित होकर मेरी सुखानुभूति की पौध को पल्लवित नहीं करता, किन्तु सुखाता है । 'अप्रियता की अनुभूति जिसके प्रति होती है, वहां तक पहुंचे बिना ही वह लौटकर अपने उद्गम में आ जाती है और वहां अपना काम करती है' - इस सत्य की अनुभूति मुझे जब से हुई है, तब से मैं मानता हूं कि मैंने अहिंसा-देवता को अपनी आस्था अर्पित की है I मैं आज अन्तःकरण का उद्घाटन नहीं कर रहा हूं। मैं उस शाश्वत सत्य के आलोक में अपना अन्तःकरण पढ़ रहा हूं । सुख-दुःख की मनोग्रन्थियों से मुक्त वही है, जो सर्दी और गर्मी से प्रभावित नहीं है । बन्धन को तोड़ sa में सक्षम वही है, जो परिस्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं है । बिम्ब और प्रतिबिम्ब का जगत् प्रतिक्रिया का जगत् है । उस जगत् का शब्दकोश स्वतन्त्रता जैसे शब्द से शून्य है । वहां न स्वतःस्फूर्त क्रिया है और न अपना कर्तृत्व, न अपनी शक्ति है और न अपना आनन्द । वहां जो कुछ है, वह है प्रतिबिम्ब और आभास, खेद और आयास, और तब तक जब तक हिंसा का रंगमंच आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बना हुआ है। १७. अहिंसा की अनुस्यूति मैंने कई बार सोचा- अपने आपको अनावृत कर दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह आवरण ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक आवरण रहेगा तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास अनावरण में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए इस परदे की सृष्टि हुई । यदि यह संसार सीधा-सरल होता, कहीं कोई घुमाव या छिपाव नहीं होता तो सन्देह जन्म ही नहीं ले पाता । पर सृष्टि द्वन्द्व चाहती है, सबको एक होने देना नहीं चाहती, इसलिए अनेक घुमाव और छिपाव हैं। जहां-जहां घुमाव और छिपाव हैं, वहां-वहां सन्देह है Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की अनुस्यूति ४१ मैंने कई बार सोचा- कोई ऐसा दीप जलाऊं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह अन्धकार ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक अन्धकार रहेगा, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास प्रकाश में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए वह प्रकाश के साथ-साथ अन्धकार को भी अवकाश देती है । मैंने कई बार सोचा - इस हिमालय के उत्तुंग शिखरों को तोड़ डालूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें । यह ऊंचाई ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक ऊंचाई रहेगी तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास समतल में उपजता है । इस सृष्टि को विषमता पसन्द है । इसीलिए उसने दो समतलों के बीच एक ऊंचाई चिन रखी है। मैंने कई बार सोचा - इस अनन्त जलराशि को सुखा दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें। यह गहराई ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है । जब तक गहराई रहेगी, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा । विश्वास समतलों में उपजता है । इस सृष्टि को विषमता पसन्द है, इसीलिए उसने दो समतल के बीच एक गहराई बिछा रखी है। मैंने कई बार सोचा - इस प्रासाद वास को छोड़ दूं, जिससे मेरे साथी मुझे साक्षात् देख सकें। यह दीवार का व्यवधान ही उन्हें संदिग्ध किए हुए है। जब तक व्यवधान रहेगा, तब तक सन्देह निरस्त नहीं होगा। विश्वास अव्यवधान में उपजता है । इस सृष्टि को द्वन्द्व पसन्द है । इसीलिए यह प्रासाद-सृष्टि हुई है। यदि आकाश मुक्त ही होता तो सन्देह उपज ही नहीं पाता। जहां-जहां मनुष्य ने आकाश को बांधा है, वहां-वहां सन्देह को जन्म मिला है। मैंने फिर सोचा- मैं कहीं पतवार -विहीन नौका की भांति कल्पना के अविराम प्रवाह में बहा तो नहीं जा रहा हूं? मैंने फिर सोचा- मैं कहीं चक्रवात में उलझे हुए पंछी की भांति अनन्त आकाश में उड़ा तो नहीं जा रहा हूं? क्या मेरी नौका को कोई तट प्राप्त है? क्या मेरे पंछी का कोई धरातल है ? क्या अनावरण, प्रकाश, अव्यवधान और समतल वास्तविक हैं ? व्यावहारिक हैं ? क्या इन कठपुतलियों के लिए ये संभाव्य हैं ? एक के बाद एक प्रश्न मेरे मन में उठने लगे और मेरे साथियों के Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : असंख्य स्वर मेरे कानों में गूंजने लगे-वे अवास्तविक हैं, अव्यावहारिक हैं और असंभाव्य हैं- इन कठपुतलियों के लिए, जो चालित हैं, किन्तु स्वयं के द्वारा नहीं । वे स्वर बहुत मीठे थे। पर न जाने क्या हुआ, वे मुझे नहीं मोह सके। सांपकाटे को नीम मीठा लगता है । यह विपर्यय है पर मिथ्या नहीं है । मैं सर्प-दष्ट नहीं था, यह कैसे कहूं? जिसमें हिंसा का एक संस्कार भी शेष है, जिसके चैतसिक दर्पण में उसका धुंधला - सा प्रतिबिम्ब भी अंकित है, वह विषविमुक्त नहीं है और उसे नीम मीठा लगना ही चाहिए । शेष दुनिया को जो कड़वा लगे, वह विष - व्यथित को मीठा न लगे तो समझना चाहिए, उसकी चेतना मूर्च्छित हो चुकी है। वह असाध्य अवस्था तक पहुंच चुका है। तब दुनिया को कड़वे लगने वाले अध्यात्म के स्वर मुझे मीठे लगे, मैंने सोचा मुझमें जहर है। मिठास की अनुभूति ने मुझे आश्वस्त भी किया कि मैं असाध्य रोगी नहीं हूं । मेरे चिकित्सक ने किसी को असाध्य माना ही नहीं था । उसका ध्वनि-निर्घोष है यह मेरी दवा उन सबके लिए है जो विष की वेदना से व्यथित हैं, भले फिर वे - जागृत हों या निद्रा - रत स्फूर्त हों या अलस गतिशील हों या स्थितिशील शोथ - युक्त हों या शोथ - मुक्त आबद्ध हों या निर्बन्ध । मेरे चिकित्सक ने मुझे इतना प्रभावित कर दिया कि मैं अपने साथियों को सन्तोष नहीं दे सका। मैं जैसे-जैसे विषमुक्त होता जा रहा हूं, वैसे-वैसे मेरी मान्यताएं प्रश्नचिह्न बनती जा रही हैं । मैंने मान रखा था - चीनी मीठी है, नीम कड़वा है। आज वह प्रश्नचिह्न बन गया है- क्या चीनी मीठी है? क्या नीम कड़वा है? मैंने मान रखा था - अग्नि गर्म है, बर्फ ठण्डी है। आज वह प्रश्नचिह्न बन गई है- क्या अग्नि गर्म है? क्या बर्फ ठण्डी है? Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की अनुस्यूति ४३ मैंने मान रखा था-यह अन्धकार है, यह प्रकाश है। किन्तु किसी अज्ञात से प्रश्नचिह्न उभर रहा है-क्या अन्धकार अन्धकार ही है? क्या प्रकाश प्रकाश ही है? इन प्रश्नचिह्नों ने मेरा मन आन्दोलित कर दिया। मेरी मूर्छित चेतना जाग उठी। अब मैं देखता हूं, सुनता नहीं हूं। अब मैं जानता हूं, मानता. नहीं हूं। मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-स्वार्थ की समरेखा में सब सबके लिए मधुर हैं और स्वार्थ की विषमरेखा में सब सबके लिए कटु हैं। कोई किसी के लिए नितान्त मधुर नहीं है और कोई किसी के लिए नितान्त कटु नहीं है। जो मधुर है, वह कटु भी है और जो कटु है, वह मधुर भी है। ___मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-शक्ति-शून्य सत्ता के सम्मख सब गर्म हैं और शक्ति-सम्पन्न सत्ता के सम्मख सब ठंडे हैं। कोई किसी के लिए नितान्त गर्म नहीं है और कोई किसी के लिए नितान्त ठण्डा नहीं है। जो गर्म है, वह ठण्डा भी है और जो ठण्डा है. वह गर्म भी है। ____ मैं देख रहा हूं और साक्षात् देख रहा हूं-जो दृष्टि से विपन्न है, उसके लिए चहुं ओर अन्धकार ही अन्धकार है और जो दृष्टि से सम्पन्न है, उसके लिए चहुं ओर प्रकाश ही प्रकाश है। नितान्त अन्धकार जैसा भी कुछ नहीं है और नितान्त प्रकाश जैसा भी कुछ नहीं है। जो अन्धकार है, वह प्रकाश भी है और जो प्रकाश है, वह अन्धकार भी है। इस अहिंसा की अनुभूति ने मुझे उस संदर्भ तक पहुंचा दिया-जो आने का मार्ग है, वही जाने का मार्ग है, और जो जाने का मार्ग है, वही आने का मार्ग है। इसी सत्य की अनुभूति से अनुप्राणित हो, एक बार मैंने लिखा था-जो आरोहण के सोपान हैं, वे ही अवरोहण के सोपान हैं और जो अवरोहण के सोपान हैं, वे ही आरोहण के सोपान हैं। आरोहण और अवरोहण के सोपान दो नहीं हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति १८ सापेक्ष सत्य मेरी आंखों के सामने एक वृद्ध का चित्र उभर रहा है। वह अपने यौवन में बहुत स्वस्थ और सुन्दर रहा है। उसमें जितनी कर्मजा शक्ति थी, उतना ही वह कर्म-कुशल था। वह चर्म-चक्षुओं और कर्म-चक्षुओं-दोनों के लिए आकर्षण-केन्द्र था। अब वह वृद्ध हो गया है। उसका सुन्दर शरीर वलि-संवलित हो गया है। उसकी ललित केशराशि पलित हो गई है। उसका स्वस्थ शरीर रुग्ण हो गया है। अब वह चर्म-चक्षुओं का आकर्षण-केन्द्र नहीं है। उसके ज्ञानेन्द्रिय शिथिल हो चुके हैं और कर्मेन्द्रिय शक्तिहीन। अब वह कर्म-कुशल नहीं है और चर्म-चक्षुओं का आकर्षण-केन्द्र भी नहीं है। वह अतीत की स्थिति का स्मरण कर दुःख का संवेदन कर रहा है। यह दुःख वर्तमान में है, किन्तु वर्तमान की स्थिति से प्राप्त नहीं है। वह अतीत के संदर्भ में वर्तमान की स्थिति से प्राप्त है। यदि वह अतीत में स्वस्थ और सुन्दर नहीं होता, यदि वह अतीत में कर्मठ और कर्म-कुशल नहीं होता और जनता के लिए आकर्षण-केन्द्र नहीं होता तो वह इतना दुःखी नहीं होता। ___ यदि अतीत और वर्तमान की स्मृति-शृंखला उसमें नहीं होती, मैं वही हूं-यह प्रत्यभिज्ञा नहीं होती तो वह दुःखी नहीं होता। ____ मैं जिस पर्याय में आकर्षण-केन्द्र था, वह पर्याय सम्पन्न हो चुका है। मैं अभी जिस पर्याय में हूं, वह अभिनव पर्याय उत्पन्न हुआ है। उसमें आकर्षण-केन्द्र बनने की क्षमता नहीं है। इस प्रकार वस्तुगत एकता में अवस्थागत भिन्नता का सम्यक् संवेदन होता तो वह दुःखी नहीं होता। - यदि उसका ज्ञान और दर्शन सम्यक् होता तो वह दुःखी नहीं होता। यह अतीत से आवृत वर्तमान भगवान् महावीर का नैगम नय है। एक किसान ने अपनी पत्नी से कहा-'मैं भैंस ला रहा हूं।' वह बोली-'भले लाओ, पर दूध की मलाई अपनी मां को खिलाऊंगी।' किसान बोला- 'यह कैसे हो सकता है? भैंस मैं लाऊं और मलाई खाए तुम्हारी मां! इस बात पर विवाद बढ़ गया। दोनों लड़ पड़े। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्ष सत्य ४५ पड़ोसी आया। लाठी को घुमा घड़े फोड़ डाले। किसान भुनभुनाया तो वह बोला- 'तेरी भैंस मेरा खेत चर गई। किसान ने कहा-'मेरे घर भैंस है ही नहीं, फिर तुम्हारा खेत कहां से चर गई? पड़ोसी बोला-'अभी भैंस ही नहीं है तो फिर मलाई की लड़ाई कैसी? यह भविष्य से प्रभावित वर्तमान है और नैगम नय का एक चरण । जब मैं पदार्थ-परिवर्तन की प्रक्रिया को देखता हूं तो मुझे दिखाई देता है संघटन और विघटन का लीलाचक्र। सिन्धु और क्या है? बिन्दु-बिन्दु का संघटन। बिन्दु और क्या है? सिन्धु का विघटन। संघटन में विस्तार है। उसकी अपनी उपयोगिता है। जल-पोत बिन्दु पर नहीं तैर सकते। विघटन में संक्षेप है। उसकी अपनी उपयोगिता है। चिड़िया की चोंच में सिन्धु नहीं समा सकता। इसीलिए सिन्धु भी सत्य है और बिन्दु भी सत्य है। कपड़े का अपना उपयोग है। वह सर्दी से, धूप से बचाता है। धागे का अपना उपयोग है। वह दो को सांधता है। पर सांधने में कपड़े का और सर्दी से बचाने में धागे का कोई उपयोग नहीं है। इसीलिए कपड़ा भी सत्य है और धागा भी सत्य है। इन दो सापेक्ष सत्यों की स्वीकृति महावीर का संग्रह और व्यवहार नय है। ____ मेरी दृष्टि के सामने एक उपवन है। उसमें पचासों गुलाब के पौधे हैं-आकर्षक और मनोरम। उनमें बहुरंगी फूल बड़े लुभावने हैं। उनसे सौरभ फूट रही है। उपवन में आने वाला हर व्यक्ति उन्हें ललचाई आंखों से देखता है। ___ मैं कुछ वर्षों बाद देखता हूं, वह उपवन उजड़ रहा है। माली की उंगलियां जल-सेक से विरत हो गई हैं। पौधे सूख गए हैं। उस ओर आने वाला हर व्यक्ति उन्हें दया की दृष्टि से देखता है। गुलाब के पौधों का अतीत का वैभव असत् हो गया है। अब सत् है उनका भंग। यह वर्तमान सत्य महावीर का ऋजुसूत्र नय है। ___एक संगोष्ठी हो रही थी। एक प्रवचनकार शास्त्र का निरसन कर रहे थे। मैंने मन-ही-मन सोचा, शास्त्र का समर्थन भी शास्त्र के द्वारा होता है और शास्त्र का निरसन भी शास्त्र के द्वारा होता है। यदि शब्दात्मक ज्ञान नहीं होता तो कौन किसका समर्थन करता और कौन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति किसका निरसन? क्या प्रवचनकार शब्द का सहारा लिये बिना शास्त्र का निरसन कर सकते थे? वस्तुतः वे शास्त्र का निरसन नहीं कर रहे थे, किन्तु प्राचीन शास्त्र पर अपने शास्त्र का समारोपण कर रहे थे। यह समारोपण एकांगी दृष्टि से होता है। काल-परिवर्तन के साथ ध्वनि के अर्थ-परिवर्तन को मान्यता दी जाए तो शास्त्र में निरसन जैसा क्या बचेगा? दिल्ली एक शब्द है। वह दिल्ली नामक भूखण्ड का वाचक है। दिल्ली थी, दिल्ली है और दिल्ली रहेगी-इन तीनों शब्दों का अर्थ एक नहीं है। अंग्रेजों की दिल्ली से कांग्रेसी-शासन की दिल्ली भिन्न है और किसी भावी शासन की दिल्ली कांग्रेसी-शासन की दिल्ली से भिन्न होगी। सक्ष्म का स्पर्श करें तो कल की दिल्ली से आज की दिल्ली भिन्न है और आज की दिल्ली से कल की दिल्ली भिन्न होगी। ___ यह काल-बोध से प्रभावित होने वाला शब्द का अर्थबोध महावीर का शब्द नय है। आज हम आचार्य तुलसी के साथ मण्डोर के उद्यान में परिव्रजन कर रहे थे। सामने पहाड़ की चढ़ाई थी, सीढ़ियां बनी हुई थीं। आचार्यश्री ने सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते कहा- 'यह तो उद्यान है।' मेरी स्मृति तत्काल उस अर्थ-संज्ञा से अभिभूत हो गई कि उद्यान का वाच्य है-ऊर्ध्व-भूमि पर बना हुआ उपवन। वाच्य और वाचक का परस्पर गहरा अनुबन्ध है। ऐसा कोई भी वाच्य नहीं है, जिसका दो वाचकों द्वारा प्रतिवचन किया जा सके। निरुक्त की भिन्नता के साथ-साथ अर्थ की भिन्नता आ जाती है। यह महावीर का समभिरूढ़ नय है। ____ एक राज्याधिकारी दो दीप जलाते थे। एक राजकीय तेल से और एक अपने तेल से ! जब वे सरकारी काम करते तब राजकीय तेल से दीप जलाते थे और जब घरेलू काम करते तब अपने तेल से दीप जलाते थे। इसी प्रकार की कई घटनाएं और प्राप्त होती हैं। एक राज्याधिकारी जब सरकारी काम के लिए जाते हैं, तब राजकीय मोटर कार का उपयोग करते हैं और जब घरेलू काम के लिए जाते हैं, तब उसका उपयोग नहीं करते, बस में बैठकर चले जाते हैं, क्योंकि उस समय वे राज्याधिकारी नहीं होते। वे राज्याधिकारी उसी क्षण होते हैं, जिस क्षण राज्याधिकार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्ष सत्य ४७ का कार्य कर रहे होते हैं। यह महावीर का एवम्भूत नय है। ___ हम सापेक्ष सत्यों के जगत् में जीते हैं, इसीलिए उनकी व्याख्या हमारे लिए अधिक मूल्यवान है। उसका मूल्यांकन कर हम अनेक समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं। सब समस्याओं का स्रोत है-आग्रह का संरोहण। आग्रह असत्य हो जन्म देता है और असत्य समस्याओं को। सापेक्षदृष्टि का प्रतिपादन भारतीय विचारधारा को महावीर की बहुत बड़ी देन है। इससे अनाग्रह का विकास होता है। अनाग्रह से सत्य का स्पर्श और सत्य के स्पर्श से समस्याओं का समाधान होता है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-क्रान्ति - - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्म एक : कल्पनाएं तीन मेरे सामने एक चित्र उभर रहा है। उसके तीन पहलू हैं पहला-एक आदमी धार्मिक क्रियाकाण्ड कर रहा था। मैंने पूछा-'यह किसलिए करते हो, भैया? उसने सहज मुद्रा में उत्तर दिया-'इससे परलोक सुधरेगा।' दूसरा-एक आदमी व्यापार करता था। उसने अनेक प्रयत्न किए पर वह सफल नहीं हुआ। वह निराश हो गया। उसने सारा समय धार्मिक क्रियाकाण्ड में लगाना शुरू कर दिया। एक दिन मैंने पूछा-'तुम तो बहुत समय लगाते हो इस क्रियाकाण्ड में? वह बोला-'पिछले जन्म में बुरे कर्म किए थे, इसलिए यहां दुःख पा रहा हूं। यहां कुछ कर लूं जिससे अगला जन्म सुधर जाए, वहां इतना दुःख न भुगतना पड़े।' । तीसरा-एक आदमी बहुत झगड़ालू था। जितना झगड़ालू, उतना ही धर्म-प्रेमी। धर्म-प्रेम और कलह दोनों एक साथ इतने हो सकते हैं, यह मैं नहीं समझ सका। पर वह अपने को धर्म-प्रेमी मानता था और दूसरे लोग भी उसे धर्म-प्रेमी कहते थे। मैंने एक दिन कहा-'तुम दिनभर लड़ते-झगड़ते हो, फिर धर्म करने का क्या अर्थ होगा? वह बोला'महाराज! लड़ने की तो आदत पड़ गई। वह अब कैसे छूटे? यह जीवन तो अब जैसा है वैसा ही रहेगा। अच्छा है धर्म करने से परलोक सुधर जाए।' तीनों पहलुओं का समग्र चित्र जो उभरता है, उसका आकार यह है कि धार्मिक लोगों को परलोक सुधारने की जितनी चिन्ता है, उतनी इहलोक सुधारने की नहीं है। उनमें परलोक को सुखमय बनाने की जितनी धुन है, उतनी इहलोक को सुखमय बनाने की नहीं है। यह अकारण भी नहीं। उनकी मान्यता है कि इस जीवन में जो बुरा कर्म हो धार्मिक लोगों को परला उनमें परलोक को सुखमय है। यह Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति रहा है, उसका कोई उपाय नहीं। वह तो पिछले जन्म के किए हुए बुरे कर्मों का फल है। इस जीवन में जितना अच्छा कर्म करेंगे, उतना ही अगला जीवन अच्छा होगा। उनके अच्छे जीवन की कल्पना है-पास में खूब धन हो, अच्छा मकान हो, अच्छा परिवार हो, नौकर-चाकर हों तथा सुख-सुविधा के सब साधन उपलब्ध हों। अप्रामाणिकता, झूठ, विश्वासघात आदि उनके अच्छे जीवन की कल्पना में बाधक नहीं हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। उन्हें व्यापार कर जीविका चलाना है। क्या प्रामाणिकता, सचाई आदि से जीविका चलाई जा सकती है? ये तर्क उनके व्यवहार को कभी विशुद्ध नहीं होने देते। उनकी धर्म की कल्पना को मैं एक घटना के द्वारा स्पष्ट करूं। एक दिन गोष्ठी में एक नया चेहरा दिखाई दिया। उपस्थित गोष्ठी-सदस्यों ने जिज्ञासा के साथ पूछा-'तुम्हारे जीवन की विशेषता क्या है? वह बोला-'मेरे जीवन की विशेषता यह है कि मैं धर्म को कभी नहीं छोड़ता।' सबने उसकी ओर आश्चर्यभरी दृष्टि से देखा तो उसका उत्साह आगे बढ़ा। वह बोला-'मैंने जरूरत पड़ने पर शराब पी ली, जुआ खेल लिया, पर धर्म को नहीं छोड़ा। भूख की समस्या बड़ी जटिल है, उसके लिए कभी-कभी चोरी भी की और डाका भी डाला, पर धर्म नहीं छोड़ा। मन की दुर्बलता हर आदमी में होती है। उसके वशीभूत हो वेश्यागमन भी कर गया, पर धर्म नहीं छोड़ा। कभी-कभी क्रोध के वश में आ खून भी कर डाला, पर धर्म नहीं छोड़ा।' वह आंख मूंदकर अपनी प्रशंसा के गीत गाता ही चला गया। एक सदस्य ने ससम्मान पूछा- 'तो महाशय! आपका धर्म क्या है? वह गर्व की भाषा में बोला-'मैंने अछूत के हाथ का नहीं खाया। हजार कठिनाइयां सहीं, सब कुछ किया, पर धर्म पर अडिग रहा।' ऐसी अनेक घटनाएं हैं और अनेक कहानियां। लोक-मानस में धर्म का जो चित्र है, उसे वे हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ऐसे धर्म-चित्र से तृप्ति न हो, ऐसे लोग भी कम नहीं हैं। मनुष्य अपने आवेगों के उभार में रसानुभूति करता है। उसने धर्म-क्षेत्र को भी उससे अछूता नहीं छोड़ा है। धर्म का स्वरूप है आवेगों का उपशमन। पर क्या ऐसा धर्म आचरण में रहा है? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और संस्थागत धर्म ५३ अपने आपको धार्मिक मानने वाले व्यक्ति में भी भय, शोक, घृणा और विकार उतना ही है, जितना किसी अधार्मिक में है। “सब जीव समान हैं' के व्याख्याता भेदभाव से भरपूर और 'सब जीव एक ही ब्रह्म की सन्तति हैं' के व्याख्याता क्रूर हों तो सहज ही यह धारणा बन जाती है कि दर्शन का क्षेत्र बुद्धि और व्याख्या ही है। ____ मैं नहीं समझ सका-आत्मा है, वह पुनर्भवी है, वह कर्म का कर्ता और भोक्ता है, अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे का बुरा होता है, इस धारणा में विश्वास रखने वाला भी बुरा कर्म करते हुए संकोच नहीं करता, तब आस्तिक नास्तिक की भेद-रेखा क्या है? २. धर्म और संस्थागत धर्म कुछ लोगों का मत है कि धर्म मनुष्य के लिए सदा उपयोगी है, क्योंकि वह शाश्वत है। कुछ लोग उसे अनुपयोगी मानते हैं। उनका मानना है कि वह अब पुराना हो गया है, उस पर आवरणं आ गए हैं, अब उससे चिपके रहना उचित नहीं है। क्या हम इस अभिमत को अपना समर्थन दें कि धर्म की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है? अथवा इस अभिमत की पुष्टि करें कि वर्तमान परिस्थिति में धर्म हमारे लिए उपयोगी है? इस प्रश्न पर जब मैं चिन्तन करता हूं तब मेरे सामने धर्म के दो रूप उभर आते हैं-एक संस्थागत धर्म और दूसरा धर्म। धर्म आकाश की तरह अनन्त, असीम और उन्मुक्त है। उसे जब छोटी-छोटी सीमाओं में बांध दिया जाता है, तब वह संस्थागत धर्म (सम्प्रदाय धर्म) हो जाता है। मुक्त आकाश पर किसी का अधिकार नहीं होता और ममत्व भी नहीं होता। परन्तु उसी आकाश को जब हम कमरों में बांध लेते हैं, भवन का आकार दे देते हैं, तब उस पर हमारा अधिकार और ममत्व हो जाता है। मुक्त आकाश की शरण में सब जा सकते हैं किन्तु कमरों में बंधे हुए आकाश में सब नहीं आ-जा सकते। वहां प्रवेश निषिद्ध किया जा सकता है। धर्म की स्थिति भी ठीक यही हुई है। यह असीम सत्य है। सबके लिए ग्राह्य और सबके द्वारा अनुमोदित। परन्तु उसे कमरों में बांधकर, भवन का आकार देकर सीमित कर दिया गया है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति इसीलिए धर्म का द्वार सबके लिए खुला नहीं है। बंद दरवाजे वाला धर्म सीमाबद्ध हो जाता है। जैसे-हिन्दू-धर्म, जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म, ईसाई-धर्म, इस्लाम-धर्म आदि-आदि। इन संस्थागत धर्मों के आस-पास अनगिन रेखाएं खिंच जाती हैं और बाड़े बन जाते हैं। मनुष्य बंट जाता है। मेरे धर्म का आदर करे, पालन करे वह आदमी है और जो मेरे धर्म का स्वागत नहीं करता, वह आदमी नहीं है, ऐसी धारणाएं रूढ़ हो जाती हैं। इसीलिए संस्थागत धर्म के द्वारा जनता का बहुत भला नहीं हुआ, और न ही हो पा रहा है। कुछ लोगों ने इस संस्थागत धर्म की निष्पत्तियों के आधार पर धर्म को अनावश्यक ठहराने का प्रयत्न किया है। जीवन की प्राथमिक अपेक्षाओं की पूर्ति में बाधक मान मानसिक मानचित्र से उसे लुप्त करने का प्रयत्न किया है। क्या यह सही चरण है? मैं सही और गलत की लम्बी चर्चा में नहीं जाऊंगा। मैं संक्षेप का प्रेमी हूं, इसलिए संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि रोटी, कपड़ा और मकान-ये जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं। इनकी पूर्ति में मनुष्य के पुरुषार्थ की कृतकृत्यता नहीं है। उसकी कृतकृत्यता सत्य की खोज और सत्य की उपासना में है। मनुष्य साधारणतः श्रद्धालु होता है। यह अच्छा है, किन्तु उसे शल्य-चिकित्सक भी होना चाहिए। शरीर में श्रद्धा होने का यह अर्थ नहीं कि उसमें हुए फोड़े की शल्य-चिकित्सा न की जाए। श्रद्धा और शल्य-चिकित्सा-दोनों समन्वित रहते तो धर्म का शरीर अस्वस्थ नहीं होता। धर्म की आत्मा विस्मृत क्यों हुई? धर्म का शरीर अस्वस्थ क्यों हुआ? इन प्रश्नों की गहराई में जाने पर मुझे प्रतीत होता है कि शास्त्रावलम्बी श्रद्धा से धर्म की आत्मा विस्मृत हुई है और शल्य-चिकित्सा से वियुक्त श्रद्धा से धर्म का शरीर अस्वस्थ हुआ है। आज हर धार्मिक शास्त्रों की दुहाई देता है। कोई गीता की, कोई आगमों की, कोई पिटकों की, कोई कुरान की और कोई बाइबिल की। क्या धार्मिक इस चिन्तन में व्याप्त नहीं होते कि हजारों वर्ष पहले निर्मित शास्त्रों में जो लिखा है, वह सब ठीक है? क्या हम उसे ठीक-ठीक समझ रहे हैं? क्या हमने उन सत्यों का अनुभव किया है, साक्षात् किया है? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और संस्थागत धर्म ५५ जिस सत्य का हमने अनुभव नहीं किया, साक्षात् नहीं किया, प्रयोग नहीं किया, क्या वह सत्य की सरिता अनुभव की ऊंचाई से प्रवाहित हो सकती है? कवि की कल्पनाओं को काव्य की भाषा में दुहराने से हमारा काम चल सकता है पर अध्यात्म के सत्यों को शास्त्र की भाषा में दुहराने से काम नहीं चल सकता। सोमरस-पान का यशोगान करने वाला शास्त्र की गरिमा नहीं बढ़ा सकता। कलह और लड़ाई की धूनी रमाने वाला अहिंसा के गीत गाकर उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। मैं कई बार कुछ लोगों से पूछ लेता हूं- 'अहिंसा अच्छी है, अपरिग्रह अच्छा है, इसका तुम्हें कोई अनुभव है? उत्तर मिलता है, 'अनुभव तो नहीं है।' 'तो फिर तुम कैसे कहते हो कि अहिंसा अच्छी है, अपरिग्रह अच्छा है? तत्काल उत्तर मिल जाता है, 'अमुक शास्त्र में लिखा है इसलिए हम कहते हैं।' तब मैं सोचता हूं इन्हीं धार्मिकों के कारण धर्म निस्तेज बना है, अहिंसा और अपरिग्रह की गरिमा कम हुई है। जब-जब शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है तब शास्त्र तेजस्वी और धर्म निस्तेज हो जाता है। जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है तब धर्म तेजस्वी और शास्त्र निस्तेज हो जाता है। धर्म की प्रतिष्ठा चाहने वाले क्या आज कुछ नये सत्य का उद्घाटन कर रहे हैं? कोई नया तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं? आज का युग वैज्ञानिक युग है। आज का युग बौद्धिक और तार्किक युग है। इस युग में अतीत के अन्धकार और भविष्य के गह्वर में विश्वास करने वाले लोग कम होंगे। वर्तमान में विश्वास करने वालों की संख्या अधिक होगी। इसलिए धर्म को वर्तमान की कसौटी पर कसकर ही प्रस्तुत करना होगा। आज का युग व्यक्तिवादी युग नहीं है। यह समाजवाद का युग है। जीवन के सामुदायिक प्रयोग विकसित हो रहे हैं। पहले लोग छोटे-छोटे गांवों में रहते थे। आज कलकत्ता और बम्बई जैसे विशाल नगर बन गए हैं। पहले लोग व्यक्तिगत सवारी-ऊंट, घोड़ों की-करते थे। आज रेल आदि की सामूहिक सवारी होती है। सामूहिक व्यापार, सामूहिक कृषि और सामूहिक भवन इस प्रकार वैयक्तिकता सामूहिकता में बदल रही है। आज के लोग धर्म को भी व्यक्तिवादी देखना नहीं चाहते। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि धर्म व्यक्तिनिष्ठ होते हुए भी सामुदायिक है, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति 1. सामाजिक है । साधना की दृष्टि से वह व्यक्तिनिष्ठ है किन्तु परिणाम की दृष्टि से वह सामाजिक है । धर्म व्यक्ति को लाभान्वित करने के साथ-साथ समाज को भी लाभान्वित करता है। व्यक्तिगत व्यवहार में धर्म की अपेक्षा रखने वाले और सामाजिक व्यवहार में धर्म की उपेक्षा करने वाले लोग जाने-अनजाने ऐसा चाहते हैं कि उनकी उपासना का परिणाम उन्हें मिले और उनकी अप्रामाणिकता का परिणाम समूचे समाज को मिले | यह कितना हास्यास्पद है ! धर्म की भूमिका यह होनी चाहिए कि अपनी बुराई को व्यक्ति स्वयं में समेटे और अपनी अच्छाई को समाज में फैलाए । व्यक्ति की उपासना से समाज का सीधा सम्बन्ध नहीं होता । उसका सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से होता है । जिसके जीवन में धर्म है, उसके जीवन से असदाचार का प्रवाह नहीं निकल सकता । जल की धारा से अग्नि का स्फुलिंग नहीं उछल सकता। एक धार्मिक के जीवन से असदाचार का प्रवाह फूटे तो क्या उससे दूसरे लोगों में धर्म की आस्था का अंकुर फूटेगा ? चिन्तन की इस पृष्ठभूमि पर आप धर्म का मूल्य आंकें । आज यदि धर्म के अस्तित्व को बनाए रखना है, उसे आकर्षण का केन्द्र बनाना है तो यह प्रमाणित करना होगा कि धार्मिक का जीवन बुराइयों को आमंत्रण नहीं दे रहा है। किन्तु उनसे निरन्तर जूझ रहा है। हम व्यक्तिगत उपासना को दूसरा स्थान दें और आचार-व्यवहार को पहला । आचार-व्यवहार को दूसरा और उपासना को पहला स्थान देने पर धर्म का प्रवाह उल्टा बहने लग जाता है । मैं उपासना का खण्डन नहीं कर रहा हूं। मैं उसके स्थान की सही समझ प्रस्तुत कर रहा हूं । महाकवि कालिदास के शब्दों में पूज्य की पूजा का व्यक्तिक्रम नहीं होना चाहिए, इसकी सूचना दे रहा हूं । कोरी उपासना धर्म का छिछला प्रयत्न है । आध्यात्मिकता और नैतिकता के साथ सम्बद्ध उपासना में धार्मिक प्रयत्न की गहराई आ जाती है । एक आदमी कुआं खोदने लगा । पानी पचास हाथ की गहराई में था । उसने एक जगह पांच हाथ का गढ़ा खोदा । पानी नहीं निकला, फिर दूसरा गढ़ा खोदा, वहां भी नहीं पानी नहीं निकला फिर तीसरा खोदा | इस प्रकार उसने दस गढ़े खोद डाले, पर पानी नहीं निकला । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की आत्मा एकत्व या समत्व ५७ तब निराश होकर बैठ गया । धर्म का छिछला प्रयत्न भी निराशा पैदा करता है । यदि वह एक जगह ही पचास हाथ का गढ़ा खोद लेता तो पानी निकल आता । उपासना और आचार की संयुक्त गहराई के बिना आनन्द का स्रोत नहीं निकलता । योगेन्द्ररस के साथ स्वर्ण न हो तो वह निकम्मा है । उपासना के साथ आचार-शुद्धि न हो तो उसकी उपयोगिता कम हो जाती है 1 आज एक वैसे धर्म का उदय अपेक्षित है, जो संदर्भ तथा विशेषणहीन हो । आकाश की भांति उसकी शरण में सब हों पर वह किसी का भी न हो । मेरी समझ में किसी का नहीं होना ही धर्म का होना है । ३. धर्म की आत्मा : एकत्व या समत्व मैं देखता हूं, एक ओर हमारे सामने विराट् विश्व है और दूसरी ओर बहुत छोटा-सा व्यक्ति । आज का बहुत सारा चिन्तन विराट् की ओर जा रहा है, सामुदायिकता की परिक्रमा कर रहा है । जो भी सोचा जाता है, वह व्यापक स्तर पर सोचा जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी समस्या कम नहीं हुई है। मैं देखता हूं कि जितनी समस्याएं विराट् - विश्व की हैं, उतनी ही एक व्यक्ति की हैं। जो पिण्ड में है, वह ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है, वह पिण्ड में है । इसकी सचाई में सन्देह करने का कोई कारण मुझे नहीं लगता । हम कोरी सामुदायिक चिन्ता या कोरी व्यक्तिचिन्ता कर एकांगी हो जाते हैं और यह एकांगिता की बीमारी आज सर्वत्र व्याप्त है । सर्वांगीण दृष्टिकोण यह हो सकता है कि हम समुदाय की चिन्ता करते समय व्यक्ति को विस्मृत न करें और व्यक्ति - चिन्ता के समय समुदाय की स्मृति बनाए रखें। भगवान् महावीर का एक सिद्धान्त है - ' जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वही एक को जानता है ।' हमें समस्याओं का समाधान इसीलिए नहीं मिल रहा है कि हम एक को भी नहीं जानते। एक परमाणु को जानने के लिए अन्य सभी वस्तुओं को जान लेना अनिवार्य हो जाता है । परमाणु से भिन्न सभी वस्तुओं से Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति उसके सादृश्य-असादृश्य तथा सम्बन्ध-असम्बन्ध का ज्ञान किए बिना परमाण का पूरा ज्ञान हो नहीं सकता। इसीलिए एक परमाणु के विश्लेषण में सृष्टि के असंख्य नियम जान लिये जाते हैं। आज हमारा ध्यान विस्तार पर अटक गया है। संक्षेप को जानने की रुचि हममें नहीं है। उपनिषदों में कहा गया है-जो नानात्व को देखता है, वह मौत से भी भयंकर स्थिति की ओर जा रहा है। एक को यानी व्यक्ति को जाने बिना नानात्व को यानी समाज को जानने की बात सचमुच भयंकर होती है। व्यक्ति की समस्याओं के तीन वर्ग हैं-१. शारीरिक, २. सामाजिक, ३. मानसिक और आत्मिक। शारीरिक समस्याओं-जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभ्यता के आदिकाल में ही अर्थसत्ता का अस्तित्व उदय में आया। अर्थसत्ता के आगमन के साथ एक दूसरी समस्या खड़ी हो गई। लूट-खसोट, छीनाझपटी शुरू हुई। सबल निर्बल को आतंकित करने लगे। इस सामाजिक समस्या को सुलझाने के लिए राज्यसत्ता का प्रादुर्भाव हुआ। ____ अर्थसत्ता से उत्पन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए राज्यसत्ता पनपी किन्तु वह भी पवित्र न रह सकी। राज्यसत्ता की उच्छृखलता पर अंकुश लगाने के लिए नैतिकसत्ता या धर्मसत्ता की अपेक्षा हुई। धर्मसत्ता के आविर्भाव का एक कारण व्यक्ति के अन्तर् की आकुलता भी है। इन सत्ताओं का प्रादुर्भाव होने पर भी व्यक्ति की समस्याएं सुलझीं नहीं। व्यक्ति आज भी गरीब है, अभाव से ग्रस्त है। वह सामाजिक सहयोग से आज भी वंचित है। उसकी चेतना आज भी कुण्ठित है। इसका हेतु क्या है? मेरी समझ में हेतु अस्पष्ट नहीं है। व्यक्ति के समाधान के लिए जिन सत्ताओं के गले में वरमाला डाली थी, वे स्वयं समस्या बन गई हैं। मुझे एक पौराणिक कहानी याद आ रही है। एक चूहे ने तपस्या कर शंकर से वरदान प्राप्त किया और वह बिल्ली बन गया। वह बिल्ली के डर से बिल्ली बना पर कुत्ते का डर अब भी बना हुआ था। वह वर प्राप्त करते-करते बिल्ली से कुत्ता, कुत्ते से चीता, चीते से शेर और शेर से मनुष्य बन गया। एक दिन शंकर ने पूछा-'अब तो कोई डर नहीं सता रहा है? 'मौत का डर सता रहा है, उसने उत्तर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की आत्मा : एकत्व या समत्व ५६ दिया, 'मनुष्य होने पर भी मेरी समस्या सुलझ नहीं पायी है। मैं चाहता हूं कि मुझे फिर चूहा बना दिया जाए।' शंकर ने वर दिया और चूहा अपने मूल रूप में आ गया। आज का मनुष्य भी शायद अपने आदिकाल में लौटने की सोच रहा होगा। क्योंकि उसके सामने जो भी समाधान का स्रोत आता है. वह समस्या बनकर खड़ा हो जाता है। मनुष्य ने जिस धन को समस्या के समाधान के लिए मूल्य दिया था, वही आज जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। एक ओर धन के अम्बार लगे हैं तो दूसरी ओर हाहाकार हो रहा है। धन का सम्बन्ध आवश्यकता से कम रह गया है, उच्चता के मानदण्ड से अधिक हो गया है। व्यवस्था और सुरक्षा के लिए जिस राज्यसत्ता का उदय हुआ था, वह आत्मानुशासन-विहीन होकर सुरक्षा का आश्वासन देने में असमर्थ है। राज्यसत्ता को आत्मानुशासन की ओर प्रेरित करने वाली धर्मसत्ता अपने आप में उलझी हुई है। धर्म अपने आप में शक्तिशाली नहीं है। उसका स्वर राज्यसत्ता के पीछे-पीछे भटक रहा है। कहां धर्म का वह प्राचीन तेज और कहां यह निष्प्रभ रूप? लोगों ने धर्म को क्रियाकाण्डों तक सीमित कर दिया, इसलिए ऐसा हुआ है। क्या धर्म के लिए यह शोभनीय है कि उसे अपनी सुरक्षा के लिए राजनीति का सहारा लेना पड़े? सचमुच ज्योति राख से ढंक गई। धर्म का प्रज्वलित रूप है-एकत्व या समत्व की अनुभूति। आज एक नया चिन्तन स्फुरित हो रहा है। उसमें धर्म का मूल भी उन्मूलित हो सकता है। लोग सोचते हैं, हजारों वर्षों की धार्मिक आराधना के बाद भी क्या मनुष्य की समस्याएं सुलझी हैं? उनका मानना है कि नहीं सुलझी हैं। मैं उनके स्वर में अपना स्वर मिलाने में असमर्थ हूं। फिर भी मैं उनके प्रश्न को टालने की चेष्टा नहीं करूंगा। वे जिस भाषा में सोचते हैं, उस भाषा में कोई भी आदमी कह सकता है कि धर्म से मनुष्य की समस्या नहीं सुलझी है। आप लोग धर्म के द्वारा धन पाना चाहते हैं, रोग मिटाना चाहते हैं और मुकदमा जीतना चाहते हैं। ऐसा चाहने वाले धर्म के द्वारा जिसे सुलझाना चाहिए उसे नहीं सुलझाकर कुछ अन्य ही सुलझाना चाहते हैं। कितना अच्छा हो, ऐसा चाहने वाले लोग किसी कुशल व्यापारी, डॉक्टर और वकील की शरण में जाएं। इन समस्याओं के समाधान का धर्म से Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सीधा संबंध नहीं है किन्तु अधिकांश लोग ऐसी ही समस्याओं को सुलझाने के लिए धर्म का उपयोग कर रहे हैं। ___ हमने धर्म के नाम और रूप को पकड़ा है। हमारी दुर्बलता है कि आंखें बाहर की ओर देखती हैं, कान बाहर की सुनते हैं। फलतः हम रूप और नाम की ही प्रतिष्ठा करते हैं। हम एक साधु के पवित्र जीवन का सम्मान करना नहीं जानते। हम आकार का सम्मान करना जानते हैं। जैन-साधु के रूप को देख एक वैष्णव का सिर श्रद्धा से नहीं झुकता है और एक वैष्णव साधु के रूप को देख एक जैन का सिर श्रद्धा से नत नहीं होता है। इसका कारण आकार की प्रतिष्ठा है, प्रकार की प्रतिष्ठा से हम अपरिचित हैं। आकार के नीचे प्रकार दब जाता है। हमारी दृष्टि नाम और रूप की दीवार के इस पार तक ही पहुंचती है, उस पार तक उसकी पहुंच नहीं है। कहा जाता है कि धर्म के कारण युद्ध हुए। मैं इस उक्ति-प्रवाह को बराबर चुनौती देता रहा हूं। मेरे पक्ष की स्थापना यह है कि युद्ध धर्म के कारण नहीं हुए, किन्तु नाम और रूप के कारण हुए हैं। धर्म की आत्मा है एकात्मकता। धर्म की आत्मा की हत्या किए बिना युद्ध लड़ा ही नहीं जा सकता। वेदान्त का सिद्धांत हैं-सब जीवों का मूल स्रोत एक है। जैन दर्शन का सिद्धांत है-सब जीव समान हैं। यह सैद्धांतिक एकत्व या समत्व की अनुभूति यदि मनुष्य के व्यवहार में अनुस्यूत होती तो क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से लड़ सकता? क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण कर सकता? क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से घृणा कर सकता? यह लड़ाई, पद, शोषण और घृणा, अनेकता और विषमता की भूमिका पर पनप रही है। एक आदमी दिनभर कठोर श्रम कर धन कमाता है। सारे परिवार के लोग उसका उपभोग करते हैं। पर उनके मन में कोई शिकायत नहीं होती। एक भद्र पति अपनी पत्नी से यह शिकायत नहीं करता कि मैं कमाता हूं और तुम बैठी-बैठी खाती हो। परिवार के साथ एकत्व होता है, इसलिए ऐसी शिकायत का अवसर ही नहीं आता। शिकायत वहीं होती है, जहां अनेकता होती है। क्या कोई राज्यकर्मचारी अपने लड़के से रिश्वत लेता है? क्या कोई दुकानदार अपने लड़के को धोखा देता है? यह रिश्वत और यह Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की आत्मा एकत्व या समत्व धोखादेही वहीं होती है, जहां एकत्व की अनुभूति नहीं है। धर्म की आत्मा है - सबके साथ एकत्व या समत्व की अनुभूति । इसका जितना तादात्म्य होता है, उतना ही व्यक्ति के जीवन में धर्म का उदय होता है । चिन्तन की इस भूमिका पर देखता हूं तब मुझे लगता है कि हमने धर्म के कल्पवृक्ष की आत्मा का स्पर्श नहीं किया, केवल उसका वल्कल ओढ़ा है । यह स्पर्श समुद्र के किनारे रेत में पड़ी सीपियों, घोंघों और केकड़ों का है, उसके अन्तराल में छिपे रत्नों का नहीं है । ऐसी स्थिति में हम करें क्या? महर्षि टॉल्स्टॉय ने यही प्रश्न खड़ा किया था कि हम करें क्या? ६१ परिस्थिति की जटिलता से मुक्ति पाने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है । पुरुषार्थ से परिस्थिति के चक्र को घुमाया जा सकता है । परन्तु भारतीय लोग कर्मवाद में सीमा से अधिक विश्वास कर बैठे हैं । करोड़ों लोग भाग्य - भरोसे या राम भरोसे जी रहे हैं । न जाने कितने लोग भाग्य के भरोसे बैठकर दुःख के भंवर में फंस गए हैं और फंसते जा रहे हैं। जो होना है, वही होगा और जो भाग्य में लिखा है, वही होगा - इन दो धारणाओं ने भारतीय जीवन को जितना क्षतिग्रस्त किया है, उतना किसी भंयकर भूचाल और तूफान ने भी नहीं किया। जिसमें अपना पुरुषार्थ नहीं है, उसे दूसरा कौन सहारा देगा? और क्यों देगा ? मैं आपको एक कहानी सुनाऊं, बहुत मार्मिक और बहुत हृदयवेधी | एक चोर चोरी कर रहा था। घरवाले जाग गए। हल्ला किया । आस-पास के लोग जाग उठे। चोर भागा। आगे-आगे वह भाग रहा था पीछे-पीछे लोग दौड़ रहे थे। इस दौड़ में पुलिस भी उसका पीछा करने लगी । वह दौड़ता-दौड़ता थक गया । कहीं छिपने को कुछ नहीं मिला । जंगल में एक देवी का मंदिर था। वह उस मन्दिर में चला गया । उस प्रदेश में देवी की बहुत बड़ी प्रभावना थी । हजारों लोग उसकी पूजा किया करते थे । 'वहां जाकर कोई भी निराश नहीं लौटता,' यह जनप्रवाद निरन्तर फैल रहा था । मन्दिर के प्रांगण में पहुंच चोर कुछ आश्वस्त हुआ । उसने देवी को प्रणाम किया । वह भक्ति भरे स्वर में बोला - ' मां ! मुझे बचा, मैं तेरी शरण में हूं।' देवी उसकी विनम्रता से प्रसन्न हो गई । वह बोली- 'जब तुझे कोई पकड़ने आए तब हुंकार कर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति देना, फिर कोई भी तेरे सामने नहीं आ सकेगा।' चोर-'मां! डर के मारे मेरा गला रुंध गया है, हुंकार मैं नहीं कर सकता।' देवी-'जो तुझे पकड़ने आए, उसके सामने आंख उठाकर देख लेना फिर तुझे कोई भी नहीं पकड़ सकेगा। चोर-'मां! डर के सारे मेरी आंखें पथरा गई हैं, मैं आंख उठाकर सामने नहीं देख सकता।' देवी-'अच्छा, मन्दिर के किवाड़ बन्द कर लेना, फिर तुम नहीं पकड़े जा सकोगे।' __चोर-'हां! तुम कहती हो, वह ठीक है पर डर के मारे मेरे हाथ सठिया गए हैं, मैं किवाड़ बन्द नहीं कर सकता।' देवी-'जा, मेरी प्रतिमा के पीछे छिप जा।' चोर-‘मां! बहुत ठीक कहती हो पर डर के मारे मेरे पैर स्तब्ध हो गए हैं, मैं चल नहीं सकता।' देवी ने क्रुद्ध स्वर में कहा-'तो ऐसे निर्वीर्य और निकम्मे आदमी की सहायता मैं भी नहीं कर सकती।' सफलता के लिए हमें नये पुरुषार्थ की आवश्यकता है। आइए, हम एक नया पुरुषार्थ करें और सर्वप्रथम अपनी धर्म-सम्बन्धी धारणाओं का परिष्कार और नये सम्बन्धों या अनुबन्धों की सृष्टि-संरचना करें। अर्थसत्ता की फलोपलब्धि ऐश्वर्य है। उसके साथ सहानुभूति और संवेदनशीलता का अनुबन्ध होना चाहिए। इससे शोषण और संग्रह-दोनों वृत्तियों पर अंकुश लगता है। राज्यसत्ता की फलोपलब्धि अधिकार है। उसके साथ आत्मानुशासन का अनुबन्ध होना चाहिए। इससे अधिकार का उच्छृखल उपयोग नहीं होता। धर्मसत्ता की फलोपलब्धि पवित्रता है। उसके साथ नैतिक अनुबन्ध होना चाहिए। धार्मिक की दृष्टि केवल परलोक की ओर दौड़ती है, वर्तमान जीवन की ओर कम दौड़ती है। धर्म नहीं करने से परलोक के बिगड़ने का डर रहता है घर अनैतिक व्यवहार करने से परलोक बिगड़ जाएगा, यह डर नहीं रहता। एक दिन माला-जप नहीं होता तो मन में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता ६३ ग्लानि का अनुभव होता है और सोचते हैं कि आज का दिन निकम्मा चला गया । किन्तु अनैतिक व्यवहार करने में न ग्लानि का अनुभव होता है और न दिन की व्यर्थता प्रतीत होती है। क्योंकि वे इस धारणा से कड़े हुए हैं कि दो घड़ी धर्म करने से लाखों पाप धुल जाते हैं । आज के धार्मिक से लोग शंकित हैं। उसके बाहरी और भीतरी रूप में सामंजस्य नहीं है । उसका खण्डित व्यक्तित्व धर्म के प्रति जन-मानस में सद्भावना उत्पन्न करने का हेतु नहीं बन रहा है। धार्मिक और अधार्मिक, आस्तिक और नास्तिक के व्यवहार में कोई लक्ष्मणरेखा नहीं रही है। धार्मिक के लिए यह गम्भीर चिन्तन का विषय है । धर्मसत्ता के शक्ति-संवर्धन का एक ही मार्ग सूझ रहा है - वह है एकत्व या समत्व की अनुभूति का विकास और धर्म के साथ नैतिकता का अनुबन्ध । ४. धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता धर्म शब्द बहुत पुराना है । जन-मानस उससे बहुत परिचित है। भारतीय मानस और अधिक परिचित है । वह जितना धर्म शब्द से परिचित है, उतना अन्य किसी शब्द से नहीं है । मुझे लगता है अति परिचय के कारण ही शायद धर्म से लगाव या तादात्म्य कम हो गया है। पुराने जमाने में हम धर्म को श्रद्धा के सन्दर्भ में स्वीकार करते थे। आज के वैज्ञानिक युग में प्रयोग के सन्दर्भ में उसे स्वीकार किया जा सकता है धर्म के सम्बन्ध में दो विचारधाराओं के लोग हैं । वे दोनों दो छोर पकड़ कर खड़े हैं। रस्सी के एक सिरे पर वे लोग हैं जो परम्परा से चिपके रहना चाहते हैं। परम्परा या वंशानुक्रम से धर्म का जो रूप प्राप्त हुआ है उसमें परिवर्तन या संशोधन करना नहीं चाहते । धर्म की शल्य-चिकित्सा उन्हें प्रिय नहीं है । रस्सी के दूसरे सिरे पर वे लोग हैं जो धर्म को सर्वथा अस्वीकार करते हैं। ये दोनों धाराएं संतुलन स्थापित नहीं कर सकतीं। धर्म का आनुवंशिक गुण के रूप में स्वीकार हमें इष्ट नहीं है तो उसका अस्वीकार सर्वथा अनिष्ट है । मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या धर्म का अस्वीकार किया जा सकता है? जिस व्यक्ति में यत्किंचित् Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति को समझे बिना नहीं करते। समाज था, तब चैतन्य है, जो एकता, समता और प्रेम की भाषा में सोचता है, वह धर्म को अस्वीकर कर ही नहीं सकता। संस्थागत धर्म और धर्म के पार्थक्य को समझे बिना कुछ लोग इस आत्म-भ्रान्ति में उलझ जाते हैं कि हम धर्म को स्वीकार नहीं करते। समाज की निष्पत्ति चेतना और अध्यात्म के द्वारा ही हुई है। व्यक्ति एकाकी था, तब वह जंगली पशु की तरह निरंकुश भटकता था। जब उसने समूह बनाकर रहना प्रारम्भ किया, तब उसमें अहिंसा की पहली किरण फूटी थी। इस भाषा को बदलकर भी कहा जा सकता है कि जिस दिन व्यक्ति में अहिंसा की पहली किरण फूटी थी, उस दिन उसने समूह बनाकर रहना प्रारम्भ किया। सामाजिकता का पहला सूत्र है-दूसरे की अस्तित्व की स्वीकृति और मर्यादा का निर्वाह। आप अपने घर में प्रवेश करते हैं, दूसरे के घर में नहीं। अपनी पगड़ी सिर पर रखते हैं, किसी दूसरे की पगड़ी उठाकर सिर पर नहीं रखते। यह व्यक्ति की मर्यादा है, भले कहिए, समाज की मर्यादा है। मर्यादा व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के सुख में बाधा डालने से रोकती है। यह मर्यादा कहां से आयी? इस प्रश्न के उत्तर में मैं कहूंगा-इसका उत्पत्ति-स्रोत धर्म की भावना है, अहिंसा और अपरिग्रह की भावना है। यह कर्तव्य है; यह अकर्तव्य है; यह खाध है; यह अखाद्य है; यह अमृत है, यह विष है; यह घास है, यह अनाज है-यह पृथक्करण हमारा विवेक है। इसका प्रवाह धर्म-चेतना से धरातल से प्रवाहित होता है। धर्म अपनी आधार-भित्ति-आध्यात्मिकता से बिछुड़कर आरोपित नियमों की जकड़ में आ गया है। जकड़ा हुआ धर्म चेतना को विकास देने के बदले कुण्ठा देता है। मैं नियमों की उपेक्षा नहीं करता और न आपको उस मार्ग की ओर ले जाना चाहता हूं। आचार्य शंकर के शब्दों में-'जब तक इस पिण्ड में अविद्योत्थ जीवत्व है तब तक शंकर भी विधि और निषेधों का किंकर है।' किन्तु अध्यात्म की प्रेरणा से शून्य कृत्रिम नियमों की कारा में बन्दी बनना मुझे पसन्द नहीं है। मैं चाहता हूं मेरा धर्म मेरी स्वतन्त्र चेतना की परिणाति हो। वह जन्मना आरोपित न हो। कोई अपने को हिन्दू मानता है, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध और कोई सिक्ख। इस मान्यता का आधार Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता ६५ धर्म-भावना है या वंशानुक्रम ? वंशानुक्रम धर्म का प्रेरणा-स्रोत बन सकता है किन्तु उसकी आत्मा नहीं बन सकता। धर्म की आत्मा अध्यात्म है । जिसमें अध्यात्म की चेतना स्फूर्त है वही धार्मिक है । फिर वह किसी भी वंशानुक्रम या परम्परा से सम्बद्ध क्यों न हो । कुछ लोग सोचते हैं, अमुक शासन पद्धति आ गई तो हमारे धर्म का क्या होगा? यह चिन्तन धर्म की निष्प्राण सत्ता से निकलता है । यदि धर्म का अस्तित्व तेजस्वी हो तो उसे कोई भी शासन पद्धति चुनौती नहीं दे सकती। मैं हूं। मेरा अस्तित्व है, तो धर्म का अस्तित्व क्यों नहीं होगा ? धर्म को अपने अस्तित्व से भिन्न मान लेने पर ही उसके अस्तित्व की सुरक्षा का प्रश्न उठता है । धर्म को अनुपयोगी मानने वाली शासन-पद्धति से धर्म की परम्परा को खतरा हो सकता है किन्तु वह भी स्थायी नहीं होगा । जो शासन आरम्भ में परम्परा का विघटन करता है, वही मध्यकाल में उसका सूत्रपात करता है, अन्त में उसका प्रेमी बन जाता है | हमें जितनी चिन्ता परम्परा की है, उतनी धर्म की नहीं है । धर्म रहा तो परम्परा अपने आप रह जाएगी। कोरी परम्परा रही और धर्म नहीं रहा तो वह रहकर भी भला क्या करेगी? मैं पतझड़ से कभी चिन्तित नहीं होता क्योंकि हर पतझड़ के बाद बसन्त आता है । मेरी सारी चिन्ता इसमें व्याप्त होती है कि पेड़ का मूल सुरक्षित रहे । धर्म की आत्मा आनन्द और चैतन्य है । वह धर्म का बहुत ही आकर्षक रूप है। हम उसे कम देख पाते है; क्योंकि हम अन्तर्मुखी दृष्टि का उपयोग कम करते हैं । धर्म बाहर से आया हुआ या स्वीकार किया हुआ नहीं होना चाहिए। उसका स्रोत अन्तर से फूटना चाहिए। कुएं में जल का स्रोत अन्तर से फूटता है । खोदने वाले का काम इतना ही है कि है भूमि के भीतर बहने वाले जल से बाहरी दुनिया का सम्पर्क स्थापित कर दे । परम्परा या सम्प्रदाय का काम भी इतना ही है कि हर व्यक्ति के अन्तस्तल में बहने वाले धर्म के स्रोत से हमारे स्थूल व्यक्तित्व का सम्पर्क स्थापित कर दे । जिसे अपनी आन्तरिक सम्पदाओं का ज्ञान नहीं होता, वह समृद्धि से वंचित रह जाता है । जिसे आपने आप पर भरोसा नहीं होता, वह हतप्रभ और क्षीणबल हो जाता है । बाह्य की स्वीकृति और अन्तर की अस्वीकृति से अन्तर्द्वन्द्व पैदा होते हैं । ऐसा युग Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति इतिहास में पागलखानों के विकास का युग कहलाएगा। पुरानी पीढ़ी के लोग नयी पीढ़ी की धार्मिक अरुचि से चिंतित हैं। किन्तु इस चिन्ता में जीवट नहीं है। क्या वे धर्म का ऐसा रूप रूपायित करने को प्रस्तुत हैं, जिससे नयी पीढ़ी धर्म के प्रति आकृष्ट हो सके? गांव में एक नया डॉक्टर आता है-अपरिचित और अनजान। वह एक-दो अच्छी चिकित्सा करता है और समूचे गांव के आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। उस आकर्षण के साथ जनता के लाभ का अनुबन्ध है। हम धार्मिक लोगों के लिए यह चिंतनीय है कि हमारे धर्म के साथ लाभ का अनुबन्ध है या नहीं? धर्म के साथ लाभ का जो अनुबन्ध है वह सारा का सारा परोक्ष, अत्यन्त परोक्ष है, जो मरने के बाद प्राप्त होता है। महान् जैनाचार्य उमास्वाति ने कहा- 'मोक्ष इसी जन्म में हो सकता है।' जब इस जन्म में मोक्ष हो सकता है तो स्वर्ग क्यों नहीं हो सकता? क्या वह धार्मिक है, जिसे इस जन्म में स्वर्ग की अनुभूति नहीं है? मोक्ष की अनुभूति नहीं है? अत्यन्त परोक्षता में आकर्षण पैदा नहीं हो सकता। मरने के बाद स्वर्ग पाने का आकर्षण पहले कभी रहा होगा। आज के चिन्तनशील व्यक्ति में वह नहीं है। वह जीवन पर धर्म की वार्तमानिक प्रतिक्रिया देखना चाहता है। हमारी धार्मिक परम्परा वर्तमान की ओर कम ध्यान दे रही है, इसीलिए वह आकर्षण की केन्द्र नहीं बन रही है। मैं सुदूर भविष्य की चिन्ता नहीं करने का समर्थन नहीं कर रहा हूं। मैं इस तथ्य पर बल देना चाहता हूं कि हम वर्तमान की चिन्ता से विमुख न हों। - आज धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की आवश्यकता अनुभूत हो रही है। धर्म का वह रूप वर्तमान और भविष्य-दोनों को लाभान्वित कर सकता है, जिसकी आधारभित्ति अध्यात्म और फल-परिणति नैतिकता हो। नैतिकता सापेक्ष शब्द है। समाज-सम्मत कर्तव्य की रेखाओं को नैतिकता मान लेने पर उनका स्वरूप कभी स्थिर नहीं होता। देश और काल के परिवर्तन के साथ समाज की नैतिक मान्यताएं भी बदल जाती हैं। ऐसे कार्य बहुत कम मिलेंगे, जिनकी समाज द्वारा कभी निन्दा, कभी प्रशंसा न हुई हो। धर्म से प्रतिफलित होने वाली नैतिकता की कसौटी सामाजिक धारणा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ६७ नहीं, किन्तु व्यक्ति की अपनी पवित्रता होती है । धार्मिक के व्यवहार में शोषण, उत्पीड़न, कुटिलता, दर्प और आवेश नहीं होता । जिस व्यवहार में ये नहीं होते, वह प्रामाणिकता, सचाई और सरलता से ओत-प्रोत होता है । उसी व्यवहार का नाम नैतिकता है । जो जलने पर भी सुवास न दे, क्या हम उसे अगरबत्ती मानेंगे? जिसके व्यवहार में धर्म का प्रतिबिम्ब न हो, क्या हम उसे धार्मिक मानेंगे ? जिस प्रकार धुएं की अग्नि के साथ व्याप्ति है, उसी प्रकार नैतिकता की धर्म के साथ व्याप्ति है । धुएं को देखकर हम परोक्ष अग्नि को जान लेते हैं, वैसे ही नैतिकता को देखकर हम व्यक्ति के अन्तस्तल में प्रवहमान धर्म की धारा का साक्षात् कर लेते है । मैं यदि ठीक सोचता हूं तो मेरा अभिमत है कि धर्म का पहला प्रतिबिम्ब है नैतिकता और दूसरा प्रतिबिम्ब है उपासना । इस क्रम का व्यतिक्रम यह सूचित करता है कि हमारी गति में स्वाभाविकता नहीं है, प्लुत संचार है, छलांग भरने की चेष्टा है । नींव की मजबूती के बिना खड़ा किया हुआ प्रासाद क्या लम्बे समय तक टिक सकेगा ? क्या नैतिकता - शून्य उपासना का भव्य भवन इसे त्राण दे सकेगा? मैं इस प्रश्न का उत्तर इस भाषा में देना चाहता हूं कि नैतिकता के बिना उपासना का प्रासाद ढह जाएगा और धर्म का अस्तित्व भूगर्भ में ही सुरक्षित होगा, हमारी दुनिया में नहीं । ५. अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय एक तोता पिंजरे में बैठा है । वह कुछ बोल रहा है । उसे जो रटाया गया, उसी की पुनरावृत्ति कर रहा है। तोते में स्मृति है पर चिन्तन नहीं है । मनुष्य में स्मृति और चिन्तन दोनों हैं। मनुष्य कोरी रटी - रटाई बात नहीं दुहराता । वह नयी बात सोचता है, नया पथ चुनता है और उस पर चलता है । एक भैंसा हजार वर्ष पहले भी भार ढोता था और आज भी ढो रहा है । वह हजार वर्ष पहले जिस ढंग से जीता था, उसी ढंग से आज भी जी रहा है। उसने कोई प्रगति नहीं की है, क्योंकि उसमें स्वतंत्र चिन्तन नहीं है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : मनुष्य ने बहुत प्रगति की है । वह प्रस्तर-युग से अणु-युग तक पहुंच गया है। वह झोंपड़ी से सौ मंजिले प्रासाद तक पहुंच गया । उसने जीवन के हर क्षेत्र में विकास और गति की है। स्मृति और स्वतन्त्र-चिन्तन की सम्बन्ध - श्रृंखला परम्परा है । यदि मनुष्य परम्पराविहीन होता तो भैंसे से बहुत अतिरिक्त नहीं होता । मानवीय विकास का इतिहास परम्परा का इतिहास है । अतीत की अनुभूतियों के तेल से मनुष्य का चिन्तन दीप जला है और उसके आलोक में उसे वर्तमान की अनेक पगडण्डियां उपलब्ध हुई हैं । कुछ लोग परम्परा का विच्छेदन करना चाहते हैं पर ऐसा हो नहीं सकता । जिसमें स्मृति है वह कोई भी व्यक्ति परम्परामुक्त नहीं हो सकता । स्मृति और परम्परा में गहरा अनुबन्ध है । मैं निश्चय की भाषा में कहूं तो मुझे कहना चाहिए कि स्मृति ही परम्परा है । हम मनुष्य हैं | स्मृति हमारी विशेषता है । हम अतीत से लाभान्वित होना चाहते हैं इसलिए परम्परा से मुक्त नहीं हो सकते, उसका परिष्कार कर सकते हैं। प्रशिक्षण की यही उपयोगिता है । प्रशिक्षण पशु-पक्षियों को भी दिया जाता है, उनमें पटुता भी आती है पर वे स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में मनुष्य की भांति पटु नहीं बन सकते । एक बन्दर को प्रशिक्षित किया गया । वह राजा की परिचर्या में रहता था । एक दिन राजा सो रहा था । बन्दर नंगी तलवार हाथ में लिये पहरा दे रहा था । राजा के गले पर मम्खी बैठ गई । बन्दर ने उसे उड़ाने की चेष्टा की । वह उड़ी नहीं तो बन्दर ने क्रोध में आकर उस पर तलवार चला दी। राजा का गला लहूलुहान हो गया । बन्दर के पास शिक्षा थी, पर मनन नहीं था । वह सन्दर्भ को नहीं समझता था । मनुष्य संदर्भ को समझता है । प्रशिक्षण के साथ अपने मनन तथा दर्शन का योग न हो तो वह विकासशील नहीं बनता । आज तक विकास की जितनी रश्मियां इस भूमि पर आयी हैं, वे सब स्मृति, परम्परा, प्रशिक्षण, मनन और दर्शन के वायुमंडल से छनकर आयी हैं। हम धर्म की चर्चा इसीलिए करना चाहते हैं कि इन रश्मियों के केन्द्र में धर्म प्रतिष्ठित है । धर्म की उपेक्षा कर मनुष्य विकास से ही विमुख नहीं होता, किन्तु सामुदायिक जीवन की Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ६६ आधारभित्ति से भी विमुख हो जाता है। सत्य और विश्वसनीय व्यवहार के बिना क्या सामाजिक जीवन का कोई अस्तित्व है? मनुष्य एक-दूसरे के विश्वास पर समुदित हुआ है। इसी विश्वास के आधार पर जीवन का व्यवहार चल रहा है। गोद में सोए हुए का सिर काटने की मनोवृत्ति यदि व्यापक होती तो मनुष्य अकेला होता, जंगली होता, सामाजिक जीवन जीने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं होता। पर ऐसा नहीं है। मनुष्य में सत्य की आस्था है। सत्य के पौधे पर विश्वास के फूल खिले हुए हैं। उन्हीं की सुगन्धि से प्रमुदित मनुष्य सामुदायिकता के मंच पर अनेक प्रकार के अभिनय कर रहा है। सत्य को केन्द्र से रखे बिना सामाजिक विकास नहीं हो सकता तो क्या धर्म की उपेक्षा कर वह किया जा सकता है? मैं पूरी निष्ठा के साथ कहूंगा कि नहीं किया जा सकता। धर्म और क्या है? वह सत्य ही तो धर्म है। एक संस्कृत कवि ने कहा है-'जिस व्यक्ति के दिन धर्म से शून्य होते हैं, वह लोहार की धौंकनी की भांति श्वास लेता है, पर जीता नहीं है।' यदि यह बात मैं कहता तो मेरी भाषा यह होती कि वह श्वास भी नहीं ले सकता। क्या भूखे भेड़िये की शरण में जाकर कोई श्वास ले सकता है? क्या हिंसा, क्रूरता, असत्य और चौर्य के साम्राज्य की सष्टि कर मनुष्य सामाजिक जीवन जी सकता है? यह असम्भव है तो मैं कहूंगा कि धर्य के बिना जीना असम्भव है। पतझड़ आता है। पेड़ के पत्र, पुष्प और फल सभी झड़ जाते हैं। वसन्त आता है और पेड़ फिर पत्र, पुष्प और फल से भर जाता है। यह क्रम चलता ही रहता है। धर्म की परिधि में सत्ता और अर्थ आ जाते हैं, तब एक विचार-क्रान्ति होती है। और धर्म की परिधि सिमट जाती है। फिर उसके अनुशासन की अपेक्षा प्रतीत होती है और उसकी परिधि व्यापक हो जाती है। पतझड़ में भी पेड़ का अस्तित्व सुरक्षित रहता है। धर्म के परिवार का लोप हो जाने पर भी उसका अस्तित्व कभी विलुप्त नहीं होता। एक प्रासाद बनता है और पुराना होने पर ढह जाता है। प्रासाद बनने पर आकाश व्यक्त होता और उसके ढह जाने पर वह अव्यक्त हो जाता है पर आकाश का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। धार्मिक लोग अच्छे होते हैं, धर्म व्यक्त हो जाता है। धार्मिक लोग बाहरी क्रियाकाण्डों में उलझ जाते हैं, धर्म Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति अव्यक्त हो जाता है। किन्तु अव्यक्ति और अनस्तित्व एक नहीं है। भौतिकवाद का विकास हो रहा है। लोग धर्म को भुलाते जा रहे हैं। मार्क्स ने कहा, धर्म अफीम है, मादक द्रव्य है। वह व्यक्ति में उन्माद पैदा करता है। इस दर्शन के आधार पर चलने वाले धर्म को विकास में सर्वोपरि बाधा मानते हैं। साम्यवादी देशों ने धर्म के उन्मूलन का प्रयत्न भी किया है। किन्तु यह सब धर्म के शरीर पर घटित हो रहा है। धर्म के शरीर को भुलाया जा सकता है, धर्म को नहीं भुलाया जा सकता। जिसके प्रति श्रद्धा होती है, वह मनुष्य के लिए मादक बन जाता है। राष्ट्रनिष्ठ लोगों के लिए क्या राष्ट्र मादक नहीं बनता? भाषानिष्ठ लोगों के लिए क्या भाषा मादक नहीं बनती? जाति, वर्ण आदि जो भी मानवीय उपकरण हैं, वे मनुष्य की श्रद्धा प्राप्त कर मादक बन जाते हैं। हम इस सचाई को क्यों अस्वीकार करें कि धर्म में मादकता है। प्रस्तुत प्रसंग में एक सत्य को अनावृत करना भी आवश्यक है। यह मादकता धर्म के शरीर में है, उसकी आत्मा में नहीं है। धर्म का शरीर है सम्प्रदाय और उसकी आत्मा है अध्यात्म। शरीर सहज ही प्राप्त हो जाता है। आत्मा की प्राप्ति साधना द्वारा होती है। आत्मा तक पहुंचने वाले धार्मिक बहुत कम होते हैं। अधिकांश धार्मिक शरीरसेवी होते हैं। वे साम्प्रदायिक मादकता से बच ही कैसे सकते हैं? जब अध्यात्म को विच्छिन्न कर मनुष्य धर्म-शरीर से चिपकते हैं, तब धर्म निष्प्राण हो जाता है। फिर आत्मानुशासन और व्यापक दृष्टिकोण समाप्त हो जाता है। धर्म कृत्रिम नियमों और संकीर्ण दृष्टिकोण का पुंज बन जाता है। वैसा धर्म सामाजिक परिवर्तन में बाधा डालता है। तब सामाजिक क्रान्ति करने वाले उसे सब रूढ़ियों को शरण देने वाला संस्थान मानकर उसके उन्मूलन का प्रयत्न करते हैं। ऐसे रूढ़ और अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म-शरीर के प्रति हमारी कोई निष्ठा नहीं है। धर्म के क्षेत्र में बहुत बड़ी क्रान्ति अपेक्षित है। आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से इसे नेतृत्व दिया है और क्रान्ति के बीज बोए जा रहे हैं। जन्म से मृत्यु-पर्यन्त धर्म करने वालों में व्यापक दृष्टि और मैत्री विकसित नहीं होती। इसका फलित है अध्यात्म की प्रतिष्ठा प्राप्त किए बिना धर्म हमारे जीवन में अलौकिक परिवर्तन नहीं ला सकता। लौकिक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ७१ परिवर्तन के लिए हमारा लौकिक विज्ञान पर्याप्त है। उसके लिए हमें धर्म की शरण में जाने की कोई अपेक्षा नहीं है। प्रभु के नाम की माला जपने वाला किसी दिन माला नहीं जपता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है कि आज का दिन व्यर्थ चला गया। वह अनैतिक और अप्रामाणिक व्यवहार करता है, उसे ऐसी अनुभूति नहीं होती कि आज का दिन व्यर्थ चला गया। धर्म की समझ जीवन में परिवर्तन लाने के लिए नहीं है, किन्तु जीवनगत अशुद्धियों को यथावत् बनाए रखने के लिए है। धर्म का आचरण इसलिए नहीं हो रहा है कि जीवन-व्यवहार की बुराइयां मिट जाएं, किन्तु वह इसलिए हो रहा है कि बुराइयों से प्राप्त होने वाला दोष धुल जाए। एक आदमी आयुर्वेद-विशारद से कह रहा है कि मैं स्वाद-लोलुपता को छोड़ने में असमर्थ हूं। मुझे ऐसी औषधि दो, जिससे खूब खाऊं और बीमार न बनूं। क्या धार्मिक भी इसी भाषा में नहीं सोच रहा है? दो व्यक्तियों के बीच न्यायालय में मामला चल रहा है। दोनों उसे जीतने के लिए धर्म की आराधना करते हैं। जो झूठा है, वह क्या धर्म से अधर्म की, सत्य से असत्य की विजय नहीं चाहता? यदि चाहता है तो धर्म या सत्य में उसकी आस्था कहां है? उसने धर्म को अपनी स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र मान रखा है। धर्म जब-जब कामना की पूर्ति का साधन बनता है, तब-तब उसके आसपास विकार घिर आते हैं। विकारों से घिरा हुआ धर्म भूत से भी अधिक भयंकर हो जाता है। भगवान् महावीर ने ऐसे धर्म के खतरे की स्पष्ट चेतावनी दी थी। उनकी वाणी है- 'कालकूट विष का पान, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और सुरक्षा की विधि जाने बिना साधा हुआ वैताल जैसे खतरनाक होते हैं, वैसे ही विकारों से समापन्न धर्म खतरनाक होता है।' इस प्रकार खतरनाक धर्म को ही मार्क्स ने अफीम कहा था। अध्यात्म से अनुप्राणित धर्म अफीम या मादक नहीं होता। अध्यात्म क्या है? स्वतन्त्रता की अनुभूति : इससे आकांक्षा के उत्ताप और बन्धन टूट जाते हैं। पूर्णता की अनुभूति : इससे रिक्तताएं भर जाती हैं, शून्य ठोस में बदल जाता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आनन्द की अनुभूति इन्द्रिय, मन और बुद्धि हमारे सामने हैं। ये अपने आलोक से आलोकित नहीं हैं। जो इन्हें आलोकित करता है वह पर्दे के पीछे है। वह अध्यात्म है। स्वतन्त्रता की मांग वहीं से आ रही है। पूर्णता का स्वर वहीं से उठ रहा है। आनन्द की उर्मि वही से उच्छलित हो रही है। बटन दबाते ही बल्ब प्रकाशित हो उठता है । किन्तु उस प्रकाश का स्रोत बल्ब नहीं है। प्रकाश का स्रोत बिजलीघर ( पावर हाउस) है। चैतन्य का स्रोत इन्द्रिय, मन और बुद्धि नहीं है, किन्तु अध्यात्म है । वह हर व्यक्ति में अनन्त सागर की तरह लहरा रहा है। इससे दुःख की परम्परा विच्छिन्न हो जाती है। 1 जिस क्षण में स्वतन्त्रता की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है । जिस क्षण में पूर्णता की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है। जिस क्षण में आनन्द की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है। जहां प्रकाश के स्रोत की अनुस्यूति नहीं है, वहां प्रकाश कैसे होगा ? ६. दुःख - मुक्ति का आश्वासन मानवीय प्रवृत्ति का एक ही लक्ष्य है और वह है-दुःख-मुक्ति, विधि की भाषा में सुख की उपलब्धि । प्रत्येक धर्मशास्त्र दुःख - मुक्ति का आश्वासन देता है । जिस पद्धति में दुःख - मुक्ति का आश्वासन नहीं है, उसके प्रति जनता आकृष्ट नहीं हो सकती । किन्तु एक प्रश्न है, धर्म के द्वारा दुःख - मुक्ति का जो आश्वासन मिला है, वह पूरा हो रहा है? यदि हो रहा है तो धर्म के प्रदीप को प्रचण्ड तूफान भी नहीं बुझा सकेगा । यदि वह नहीं हो रहा है तो यह अनुसन्धेय है कि त्रुटि ( १ ) औषध में है, (२) औषध देने वाले में है, (३) औषध लेने में है या ( ४ ) औषध लेने वाले में है ? (१) यदि त्रुटि औषधि में है तो उसे छोड़ कोई दूसरी औषधि लेनी होगी । (२) यदि वह देने वाले मैं है तो दूसरे डॉक्टर की शरण लेनी होगी । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख-मुक्ति का आश्वासन ७३ (३) यदि वह पद्धति में है तो उसे बदलना होगा। (४) यदि वह लेने वाले में है तो उसकी प्रकृति का परिष्कार करना होगा। १. धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप में कोई न्यूनता दिखाई नहीं देती। उसका उपासनात्मक स्वरूप एकांगी होने के कारण क्षत-विक्षत हो गया है। नाम-जप चित्त की एकाग्रता का हेतु बन सकता है। शास्त्र-श्रवण चित्त की एकाग्रता का हेतु बन सकता है। उपासना के अन्यान्य पक्ष भी चित्त की एकाग्रता के हेतु बन सकते हैं। किन्तु जो मानस एकता की अनुभूति (अहिंसा) से अनुस्यूत नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जिस मानस में सत्य प्रतिष्ठित नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जो मानस पर-सत्त्व के अपहरण से विरत नहीं है, क्या वह एकान हो सकेगा? जो मानस सहज आनन्द (ब्रह्मचय) से परितृप्त नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? जो मानस इच्छा की प्रताड़ना से परिमुक्त नहीं है, क्या वह एकाग्र हो सकेगा? वही मानस एकाग्र हो सकता है, जिसमें व्रत की प्रतिष्ठा है। धर्म की वार्तमानिक विकलांगता यह है कि उसका निमित्त-पक्ष उपादान-पक्ष से प्रबल हो गया है। उसकी चिकित्सा निमित्त-पक्ष को दूसरा और उपादान-पक्ष को पहला स्थान देकर ही की जा सकती है। २. धर्म के अधिकांश पथ-दर्शक सत्य के प्रति उतने आस्थावान् नहीं हैं, जितने अपने सम्प्रदाय के प्रति हैं। इसीलिए धर्म का प्रतिपादन सत्य की शोध के रूप में कम होता है, परम्परा की पुष्टि के रूप में अधिक होता है। एक सामाजिक व्यक्ति अपनी अपूर्णता को स्वीकार कर सकता है किन्तु एक धर्मगुरु के लिए ऐसा करना कठिन है। एक सामाजिक विद्वान् नये सत्य का उद्घाटन होने पर अपने प्राचीन अभिमत को बदल सकता है किन्तु एक धर्मगुरु ऐसा करने से झिझकता है। धर्मप्रतिपादक की वर्तमान कठिनाई यह है कि वह परोक्षानुभूति के प्रामाण्य से अतिमात्र प्रभावित है। उसमें यह परिवर्तन अपेक्षणीय है कि वह आत्मानुभूति की आंच में पका हुआ भोजन ही जनता को परोसे। ३. खंभों में दूरी न हो तो घर का विस्तार नहीं हो सकता। किन्तु इतनी दूरी नहीं होनी चाहिए कि जिससे उन पर छप्पर डाला ही नहीं जा सके। विचार और आचार में दूरी स्वाभाविक है। यदि वह न हो तो साधना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति के लिए अवकाश ही नहीं होता। धर्म की प्रक्रिया विचार और आचार की दूरी को कम करने की है। धर्म का विचार-स्रोत अन्तर्जगत् से फूटा है। बहिर्जगत की अपवित्रता का प्रक्षालन कर पुनः वह अन्तर्जगत् की ओर प्रवाहित हो जाता है। अन्तर्जगत् अस्वीकार का जगत है। जागतिक विचार स्वीकार का विचार है। विचार और आचार की दूरी मिटाने का अर्थ है स्वीकार से अस्वीकार की ओर अथवा संग्रह से असंग्रह की ओर प्रयाण। इस पद्धति का पहला अंग है दुःख की मुमुक्षा, दूसरा है पदार्थ और उसके उपभोग के प्रति अनासक्ति, तीसरा है पदार्थ और उसके उपभोग का संयम। धार्मिक जगत् में दुःख की मुमुक्षा है, पर जिस (अनासक्ति और संयम) से दुःख की मुक्ति होती है, उसका समाचरण नहीं है। इसीलिए धर्म फल नहीं ला रहा है। उससे दुःख कट नहीं रहे हैं। दुःख के कारण आसक्ति और असंयम हैं। कारण को समाप्त किए बिना कार्य की समाप्ति नहीं हो सकती। इसलिए धर्माचरण की पद्धति में अनासक्ति और संयम के अभ्यास की मुख्यता अनिवार्य है। ४. धर्म एक आनुवंशिक गुण बन गया है। फलतः धार्मिक को धर्म स्वतन्त्र विवेक से प्राप्त नहीं है, किन्तु वंशानुक्रम से प्राप्त है। पुराने युग में वैश्य का लड़का वैश्य का धंधा करता था और क्षत्रिय का लड़का क्षत्रिय का धंधा करता था। वैसे ही धार्मिक उसी धर्म का अनुपालन करता है, जो उसके पिता द्वारा अनुपालित है। व्यवसाय की परम्परा अब बदल चुकी है। व्यापारी का पुत्र आज डॉक्टर बन जाता है, इंजीनियर बन जाता है, और भी अपनी रुचि के अनुकूल व्यवसाय चुन लेता है। धार्मिक को इतनी स्वतंत्रता नहीं है या अपनी स्वतंत्रता का वह इस क्षेत्र में उपयोग नहीं कर रहा है। मैं इस पक्ष की स्थापना नहीं कर रहा हूं कि धार्मिक वही हो सकता है, जो अपने पैतृक धर्म का परिवर्तन करता है। किन्तु इस पक्ष की स्थापना मुझे अवश्य प्रिय है कि धार्मिक व्यक्ति अपने पैतृक धर्म को विवेक और अनुभूति की कसौटी से कसकर ही उसे स्वीकृति दे। धर्म, धर्म के प्रतिपादक, धर्म की पद्धति और धार्मिक-इन चारों तत्त्वों में पूर्वापेक्षित तथा देश-कालानुरूप परिवर्तन और धर्म के निर्मल जल में मिले हुए कीचड़ का शुद्धीकरण करना ही धर्मक्रान्ति है। उसके होने पर ही धर्म अपने दुःखमुक्ति के आश्वासन को पूर्ण कर सकता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की कसौटी ७५ ७. धर्म की कसौटी आज मेरी दृष्टि के सामने तीन शब्द नाच रहे हैं-प्रेक्षा, परीक्षा और प्रयोग। पहले का सम्बन्ध दर्शन से है, दूसरे का तर्कशास्त्र से और तीसरे का विज्ञान से। प्रेक्षा आत्मानुभूति का दर्शन है। जिसकी आंतरिक चेतना जागृत हो जाती है, वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती दृश्य को देख लेता है। आज की भाषा में हम बुद्धि-व्यायाम को दर्शन कहते हैं। किन्तु वास्तविक अर्थ में वह दर्शन नहीं है। जहां दृश्य व्याप्ति या तर्कशास्त्रीय नियमों के माध्यम से ज्ञान होता है, वह दर्शन नहीं हो सकता। दर्शन में दृश्य और द्रष्टा का सीधा सम्पर्क होता है, किसी माध्यम के द्वारा नहीं होता ऐसा क्यों होता है? इसकी व्याख्या का प्रयत्न होता है, तब हम तर्कशास्त्र की परिधि में आ जाते हैं। दार्शनिक जगत् में ज्ञान है, अनुभूति है पर भाषा का प्रयोग नहीं है। भाषा माध्यम है और उसका प्रयोग परोक्षानुभूति के जगत् में ही होता है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र परोक्षानुभूति या माध्यम द्वारा होने वाला ज्ञान है। तर्कशास्त्र और विज्ञान पढ़ाए जा सकते हैं, किन्तु दर्शन पढ़ाया नहीं जा सकता। वह व्यक्ति की अपनी ही चैतसिक निर्मलता या अनावरणता से उपलब्ध होता है। इस संदर्भ में मुझे यही कहना चाहिए कि प्रेक्षा की व्याख्या साधना के द्वारा ही की जा सकती है और वह उसी के द्वारा जानी जा सकती है। इस प्रसंग में यह उक्ति कितनी चरितार्थ होती है-गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः। जहां गुरु का मौन व्याख्यान और शिष्यों की मौन उपासना होती है, वहां दर्शन मुखर हो उठता है। भगवान् महावीर ने इसी अनुभूति के स्वर में कहा था-जो देखता है, उसके लिए शब्द नहीं हैं। इसी सत्य को मैं इस भाषा में प्रस्तुत करता हूं कि शब्द उसी के लिए हैं, जिसका सत्य के साथ सीधा संपर्क नहीं है। आज हम शब्द के माध्यम से सत्य की जिज्ञासा कर रहे हैं और वह इसलिए कर रहे हैं कि हमें प्रेक्षा प्राप्त नहीं है। संप्रति हमारे सामने दो ही धरातल हैं-एक परीक्षा का और दूसरा प्रयोग का। प्रेक्षा के धरातल की संप्राप्ति हमारे लिए असम्भव नहीं है। वह तदनुकूल साधना और पुरुषार्थ के अभाव में असंभव बन रही Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति है। ध्यान की विशिष्ट भूमिका प्राप्त होने पर प्रेक्षा का द्वार अनायास उद्घाटित हो जाता है। परीक्षा तर्कशास्त्रीय पद्धति है। उसका मुख्य आधार व्याप्ति है। जहां धुआं था वहां अग्नि थी-यह एक व्यक्ति ने देखा और अनेक व्यक्तियों ने देखा, सर्वदेश और सर्वकाल ने देखा, जहां देखा वहां ऐसा ही मिला। इसलिए धूम और अग्नि के साहचर्य का नियम बना लिया गया। इसी का नाम व्याप्ति है। इसके आधार पर हम दृष्ट साधन से अदृष्ट साध्य का ज्ञान कर लेते हैं-दृष्ट धूम के द्वारा अदृष्ट अग्नि को जान लेते हैं। - प्रयोग वैज्ञानिक पद्धति है। इस पद्धति में परीक्षा का भी उपयोग किया जाता है। किन्तु इसमें केवल परीक्षा के लिए ही अवकाश नहीं है। इसमें प्रायोगिक विधि से परिवर्तन की प्रक्रिया और उसके कारणों का भी विश्लेषण किया जाता है। - वर्तमान में परीक्षा और प्रयोग, ये दोनों पद्धतियां धर्म के क्षेत्र में व्यवहृत नहीं हैं। उसका आचरण प्रायः पूर्व-मान्यता के आधार पर चल रहा है। पूर्व-मान्यता का उपयोग नहीं है, ऐसा मैं नहीं कहता। तर्कशास्त्र और विज्ञान दोनों क्षेत्रों में उसका उपयोग है। तर्कशास्त्रीय मर्यादा में पूर्व-मान्यता (विकल्पसिद्ध पक्ष) को स्वीकृति दिए बिना वाद और प्रतिवाद का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता। वैज्ञानिक भूमिका में पूर्व-मान्यता को स्थान दिए बिना प्रयोग का द्वार ही नहीं खुलता। एक तर्कशास्त्री पूर्वमान्यता से चिपके नहीं रह सकता। साधन के द्वारा साध्य की सिद्धि हो जाने पर वह विकल्पसिद्ध पक्ष से हटकर प्रमाणसिद्ध पक्ष की परिधि में चला जाता है। एक वैज्ञानिक प्रयोगसिद्ध भूमिका में पहुंचकर पूर्व-मान्यता को छोड़ देता है। वैसाखी मानवीय शरीर का अंग नहीं है। वह मात्र उपकरण है। पैरों की अशक्तदशा में मनुष्य उसे धारण करता है। पैरों की शक्ति प्राप्त होने पर भी क्या उसे धारण करना अनिवार्य है? पूर्व-मान्यता को हम वैसाखी से अधिक मूल्य नहीं दे सकते। हमने धर्म को एक पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकार कर रखा है। ऐसा करना हमारी नासमझी नहीं है किन्तु उसे पूर्व-मान्यता के रूप में ही स्वीकार किए रहना निश्चित रूप में नासमझी है। एक बौद्धिक के लिए धर्म Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की कसौटी ७७ इसलिए आकर्षण का केन्द्र नहीं बन रहा है, क्योंकि वह तर्क के निकष से कसा हुआ नहीं है । एक वैज्ञानिक के लिए धर्म इसीलिए आकर्षण का केन्द्र नहीं बन रहा है, क्योंकि वह प्रयोगसिद्ध नहीं है । धर्म उन लोगों के हाथों की गेंद बन रहा है, जो अबौद्धिक और अवैज्ञानिक हैं 1 इसलिए आज की नयी पीढ़ी धर्म को पुराना मानती है । किसी बूढ़े से पूछो कि पुराने का क्या मूल्य होता है? उस कपड़े से पूछो जो जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर फेंक दिया जाता है । उस प्रासाद से पूछो जो खण्डहर होने पर धराशायी होने को है । सचमुच आज धर्म पुराना हो गया है। आपको आश्चर्य होगा, धर्म शाश्वत है, फिर पुरातन कैसे ? जो अशाश्वत होता है, वह नया और पुराना होता है । शाश्वत नया और पुराना नहीं होता । क्या धर्म शाश्वत है? जो शाश्वत है, वह धर्म का आन्तरिक रूप-अध्यात्म है । धर्म का बाह्य स्वरूप शाश्वत नहीं है। उसके परिपार्श्व में पल्लवित विधि-विधान और नियम शाश्वत नहीं हैं। अशाश्वत शाश्वत से प्राण-संचार नहीं पा रहा है, इसीलिए वह पुराना हो रहा है । अध्यात्म से अनुप्राणित धर्म में त्राणशक्ति का विकास हुआ था । आज धार्मिक में भी यह विश्वास नहीं है कि धर्म उसे त्राण दे सकता है । वह धर्म के लिए त्राण की खोज में है। एक व्यक्ति आचार्य तुलसी के पास आया। उसने कहा, 'मैं गीता को भूमिगृह में गाड़ देना चाहता हूं।' आचार्यश्री ने पूछा - 'किसलिए ? उसने कहा- 'अणुबम का युग है I अणुबमों का प्रयोग होने पर भी वह सुरक्षित रहेगी ।' आचार्यश्री ने कहा- 'जब मनुष्य ही नहीं रहेगा तो उसे पढ़ेगा कौन? सचमुच यह गम्भीर प्रश्न है। कुछ धार्मिक इस चिंता में हैं कि साम्यवाद आ गया तो धर्म का क्या होगा? कुछ इस चिंता से ग्रस्त हैं कि विज्ञान ऐसे रहस्य उद्घाटित कर रहा है, जिनसे धर्म की आस्था विलीन हो जाएगी। इन चिन्ता- भूमिकाओं में धर्म असहाय - सा प्रतीत हो रहा है । वह वास्तव में ही इतना दुर्बल है तो हमें उसकी आवश्यकता नहीं है। जो अपना त्राण अपने आप में नहीं ढूंढ सकता, उसे विश्व के रंगमंच पर रहने का अधिकार नहीं है । धर्म इतना अत्राण क्यों बना? वह इतना पुराना क्यों बना? इस प्रश्न के उत्तर में तीन तथ्य सामने आते हैं : Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति १. शास्त्रों के प्रामाण्य से धर्म के अस्तित्व का निर्णय। २. केवल पारलौकिकता के आधार पर धर्म की प्रतिष्ठापना। ३. कर्मवाद या भाग्यवाद की एकांगी दृष्टि का समर्थन। अहिंसा परम धर्म है, अपरिग्रह महान् धर्म है। ऐसा क्यों है? इसका उत्तर बहुत सरल है-उत्तराध्ययन-सूत्र में ऐसा लिखा है, गीता में ऐसा लिखा है, धम्मपद में ऐसा लिखा है। उन शास्त्रों में लिखा है, इसलिए अहिंसा और अपरिग्रह धर्म है। क्या हर धार्मिक को इसका अनुभव है कि अहिंसा और अपरिग्रह महान् धर्म हैं? यदि यह अनुभव है तो वह शास्त्र का प्रामाण्य दिए बिना ही अहिंसा और अपरिग्रह की अच्छाई प्रस्थापित कर सकता है। यदि उसे वैसा अनुभव नहीं है तो वह शास्त्र का प्रामाण्य प्रस्तुत करके भी उनसे स्वयं लाभान्वित नहीं हो सकता। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है-'हेतु से अगम्य सूक्ष्म सत्य का समर्थन शास्त्र से और हेतुगम्य सत्य का समर्थन हेतुवाद से करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह सत्य का समीचीन व्याख्याता है। जो अहेतुगम्य के लिए हेतु का प्रयोग करता है और हेतुगम्य सत्य के लिए शास्त्र का प्रयोग करता है, वह सत्य का समीचीन व्याख्याता नहीं है।' आचार्य सिद्धसेन ने उक्त प्रतिपादन तर्कवाद के प्रांगण में उपस्थित होकर किया था। मैं उसी तथ्य को अनुभववादी भाषा में पुनरावृत्त करना चाहता हूं कि सूक्ष्म सत्य का समर्थन शास्त्र से और आचरणीय सत्य का समर्थन अनुभव से करना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह सत्य की समीचीन व्याख्या प्रस्तुत करता है। जो अनुभवगम्य सत्य की व्याख्या शास्त्रीय प्रामाण्य से करता है, वह प्रत्यक्ष पर परोक्ष का आवरण डाल देता है। धर्म के साथ जैसे परलोक का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैसे इहलोक का प्रश्न जुड़ा हुआ नहीं है। धार्मिक व्यक्ति धर्म को जितना परलोक के संदर्भ से देखता है उतना इहलोक के संदर्भ में नहीं देखता। वह भविष्य का जितना मूल्य आंकता है उतना वर्तमान का नहीं आंकता। वह इस प्रसंग में 'दीर्घ पश्यत मा ह्रस्वं' की नीति को क्रियान्वित कर रहा है। धर्म के पारलौकिक संदर्भ में समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना असम्यक् नहीं है किन्तु सामयिक समस्याओं के संदर्भ को भुलाकर केवल Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का रेखाचित्र ७६ पारलौकिक संदर्भ में सामाधान ढूंढ़ना एकांगी कोण है। कर्मवाद का सिद्धांत बहुत वैज्ञानिक है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, उसे अमान्य नहीं किया जा सकता। कर्मवाद को पुरुषार्थ की प्रेरणा का स्रोत होना चाहिए। पर वह वैसा नहीं है। वर्तमान भारत की दुःखद स्थिति का एक हेतु कर्मवादी दृष्टि का विपर्यय है। भाग्यवाद की आंधी से पुरुषार्थ की ज्योति बुझ गई है। कर्मवाद का एकांगी समर्थन कर धार्मिक वातावरण भी निस्तेज हो गया है। हम धर्मक्रान्ति चाहते हैं और इसलिए चाहते हैं कि धर्म का शाश्वत रूप उदय में आए। यह कार्य पार्मिक का दृष्टिकोण बदले बिना नहीं हो सकता। इस वैज्ञानिक युग के धार्मिक से अपेक्षा है कि वह धर्म को शास्त्र के संदर्भ में कम, प्रयोग के संदर्भ में अधिक समझने का प्रयत्न करे। . धर्म के द्वारा पारलौकिक सुख की कामना को त्यागकर वर्तमान तीवन को स्वच्छ बनाने का यत्न करे। __ भाग्यवाद को स्वीकार करते हुए भी उसे पुरुषार्थ का आवरण न नाए। धर्म-देवता को श्रद्धा की वेदी से उठाकर परीक्षा और प्रयोग की वेदी र प्रतिष्ठित करे। ८. धर्म का रेखाचित्र ऐसी शक्ति की अपेक्षा है, जो स्वयं प्रकाशित हो और दूसरों को भी काशित कर सके। ऐसी शक्ति की अपेक्षा है, जो स्वयं असंग्रही रहकर संग्रह का नेयमन करे। __ ऐसी शक्ति अपेक्षित है, जो स्वयं अहिंसक रहकर हिंसा पर नेयन्त्रण स्थापित करे। जिस शक्ति की अपेक्षा है, वह अध्यात्म है। धर्म हमारे लिए तब तक आवश्यक है जब धर्म और हम दो हैं। इम अपने अस्तित्व के साथ एकरस नहीं हैं, तब तक धर्म आवश्यक है, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : उसके बाद हमें धर्म की कोई अपेक्षा नहीं है ! नदी पार करने के बाद नौका की क्या आवश्यकता है? साधन एक सीमा तक उपयोगी होते हैं, सर्वत्र और सर्वदा नहीं । जब तक अज्ञात है, तब तक धर्म की आवश्यकता है । विज्ञान की उल्लेखनीय प्रगति के बाद भी जानना बहुत शेष है। न्यूटन ने कहा था- दुनिया मेरे बारे में ही सोचती होगी किन्तु मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो समुद्र के तट पर खड़ा खड़ा सीपियों को बटोर रहा है । पहले ज्ञान होता है, फिर श्रद्धा होती है। श्रद्धा ज्ञान का घनीभूत रूप है। पानी का घनीभूत रूप बर्फ और दूध का घनीभूत रूप दही हैं । जो धर्म को नहीं जानते, वे कहते हैं, धर्म के प्रति हमारी श्रद्धा है । यह कैसे हो सकता है? क्या पानी के बिना बर्फ और दूध के बिना दही हो सकता है? जो भौतिक उपकरणों से प्राप्त होता है, वही धर्म से प्राप्त हो, उसके अतिरिक्त कुछ न हो तो फिर धर्म को मानने का आधार क्या है ? जब तक मैं हूं तब तक धर्म का अस्तित्व रहेगा। जब मैं अपने अस्तित्व से दूर रहता हूं, तब धर्म नष्ट हो जाता है, किसी साम्यवादी द्वारा नहीं, अपने आप द्वारा । समाज की दो समस्याएं हैं- आर्त्त और प्रमाद । आर्त्त का उपचार पदार्थ का उत्पादन है । प्रमाद की समस्या का समाधान केवल धर्म है । धर्म कभी पहले प्रिय रहा हो, आज तो नहीं है। लोहे पर मोर्चा मार गया है । उसमें काटने की शक्ति नहीं है। मकान जीर्ण-शीर्ण हो गया है, उसमें शरण देने की क्षमता नहीं है । धर्म से जो प्राप्त होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। दवा स्वास्थ्य लाभ के लिए ली जाती है। लाभ न होने पर भी कोई आदमी दवा लेता ही जाए, यह क्या समझ ? हम ऐसे ज्ञान से भर जाएं, जिससे आचार स्वयं प्रस्फुटित हो । अणुव्रत धर्म तो है किन्तु संदर्भहीन और निर्विशेषण । अणुव्रत अपनी व्रतात्मक सत्ता के कारण धर्म है । व्रत का अर्थ है पर्दा, आच्छादन । सर्दी, गर्मी, धूप, आंधी और आदमी से आदमी का बचाव Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म का रेखाचित्र ८१ करन का आवश्यकता अनुभूत हुई तब घर का निमाण हुआ । अशान्ति और क्लेश से बचाव की आवश्यकता हुई, तब मनुष्य व्रत का अनुसंधान किया । • जी छिलका रहा है, रस सूख गया है। रस्सियों का ताना बना हुआ है, पाल उड़ गया। क्या छिलके से तृप्ति होगी? क्या रस्सियों से छांह होगी ? चेतना निर्मल, उज्ज्वल और विशद है । उसे साफ करने की आवश्यकता नहीं है । जो गन्दगी मिली है, उसे निकाल फेंको, फिर पानी अपने आप में स्वच्छ है। बाहर से आने वाली गंदगी को रोको, फिर चेतना अपने आप में स्वच्छ है । व्रती बनाया नहीं जा सकता, व्यक्ति स्वयं बनता है । चमड़ी हमारे शरीर का व्रत है । यदि वह नहीं होती तो हमारी स्नायुओं का क्या होता ? छिलका आम का व्रत है। यदि वह नहीं होता तो आम-रस का क्या होता ? चमड़ी को कौन कहने गया कि तुम्हें स्नायुओं की रक्षा करनी है ? छिलके को कौन कहने गया कि तुम्हें रस की सुरक्षा करनी है? प्रकृति की हर वस्तु अपना व्रत साथ लेकर ही उत्पन्न होती है । न जाने क्यों मनुष्य का यह मानस ही ऐसा है, जो अपनी सुरक्षा को साथ लिये उत्पन्न नहीं होता । एक आदमी ने पूछा - इस अनैतिकता के युग में अणुव्रत सफल होंगे? मैंने कहा- दीये की सफलता अमावस की अंधेरी रात में ही होती है, सूर्य के प्रकाश में नहीं । अंधेरा कितना ही सघन और कितना ही पुराना हो, दीप जलते ही भाग जाता है । आचार्य तुलसी के पास कुछ नहीं है, किन्तु संग्रह करने वाले आचार्यश्री के पास आते हैं । यह संग्रह की असंग्रह की ओर गति है । यह अध्यात्म की शक्ति है। ऐसी स्थिति का निर्माण आवश्यक है, जिसमें असंग्रह संग्रह की ओर न जाए, अहिंसा हिंसा की धारा में न मिले। स्थिति और चलना - दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उपयोगी हैं। हमें स्थिति भी मान्य है, परम्परा भी मान्य है । एक वर्ग स्थिति और परम्परा को समाप्त करना चाहता है, दूसरा उससे चिपके रहना चाहता है। ये दोनों ही ठीक नहीं हैं। हमें चलने के लिए धरती चाहिए पर पैर धरती से चिपक जाएं, क्या यह हमें मान्य होगा? दीवार का सहारा ले सकते Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति हैं पर उससे शरीर चिपक जाए, क्या यह हमें मान्य होगा? आज शरीर और सम्पदा की भांति धर्म भी पैतृक हो रहा है, पर ऐसा नहीं होना चाहिए । ६. क्या धर्म श्रद्धागम्य है ? एक आदमी हाथ में घड़ा ले समुद्र के तट पर गया। एक ओर समुद्र में जल है, दूसरी ओर घड़ा है । क्या घड़े द्वारा समुद्र का जल ग्राह्य है? यदि मैं कहूं ग्राह्य नहीं है तो यह कहना सचाई से परे होगा । यदि कहूं ग्राह्य है, तो यह अपूर्ण सत्य होगा । वह ग्राह्य है भी और नहीं भी । समग्रता की दृष्टि से ग्राह्य नहीं है । घड़े में व्यग्रता की दृष्टि से ग्राह्य है । घड़े में जितनी क्षमता है, उतना वह समुद्र को रिक्त भी कर सकता है । धर्म बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है, यह कहना कठिन है । ग्राह्य नहीं है, यह कहना भी सरल नहीं हैं। धर्म अनन्त है, उसको बुद्धि के द्वारा ग्राह्य मानना घड़े के द्वारा समुद्र को मापना है । अनन्त सत्य का ग्रहण अनन्त ज्ञान के द्वारा हो सकता है तब यह प्रश्न ही क्यों उपस्थित हुआ - 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? । बुद्धि हमारे ज्ञान की एक सीमा रेखा है। प्राणिमात्र में ज्ञान का यत्किंचित् मात्र अस्तित्व होता है । एकेन्द्रिय प्राणी में सुख-दुःख की अनुभूति होती है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में ज्ञान का तारतम्य है । प्राणियों में मनुष्य सबसे अधिक ज्ञान का अधिकारी है । इन्द्रियां मनुष्य के पास हैं तो अन्य प्राणियों के पास भी हैं । मन भी अन्य प्राणियों के पास मिलता है । पर बुद्धि हर प्राणी में नहीं मिलती । वह मनुष्य में ही है। मनुष्य में निर्णायक शक्ति होती है। प्रातिभज्ञान भी होता है । जिसको कभी देखा नहीं, जाना नहीं, उसको भी मनुष्य ज्ञान से जान लेता है और देख लेता है । मनुष्य की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अज्ञात को ज्ञात करना चाहता है । अनुसन्धान की परम्परा वर्तमान में ही नहीं, हजारों वर्षों से चली आ रही है । इससे अज्ञात की सीमा छोटी होती जाती है और ज्ञात की परिधि बढ़ती जाती है। बैल सौ वर्ष पहले भी भार ढोता था, आज भी ढो रहा है और Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या धर्म श्रद्धागम्य है ? च्३ भविष्य में भी ढोएगा, क्योंकि उसके पास बुद्धि नहीं है । मनुष्य को निर्णायक बुद्धि प्राप्त है । बुद्धि कर्मजा भी होती है। काम करते-करते व्यक्ति उसमें निपुण बन जाता है। एक व्यक्ति इंजीनियर नहीं है पर ज्ञान बढ़ाते-बढ़ाते वह इंजीनियर बन जाता है । सबमें ज्ञान समान नहीं होता । उसमें भी तारतम्य होता है । अवस्था के साथ-साथ अनुभव भी बढ़ते जाते हैं । बुद्धि के विकास में तरतमता होने से धर्म जैसे अनन्त सत्य को पकड़ने में सब क्षमय नहीं होते । एक व्यक्ति धर्म को स्वीकार कर लेता है, दूसरा व्यक्ति कहता है मैं निर्णय करके ही स्वीकार करूंगा। पहला व्यक्ति श्रद्धा-प्रधान है और दूसरा बुद्धिजीवी । आज दो वर्ग हो गये हैं । बुद्धिजीवी हर वस्तु को बुद्धि से निर्णय करने के बाद स्वीकारता है। श्रद्धा प्रधान व्यक्ति हर वस्तु को श्रद्धा से स्वीकारता है । मैं मानता हूं, कोई भी श्रद्धा बुद्धिशून्य नहीं होती । एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा - ' आप गुरु किसको मानते हैं? मैंने उत्तर दिया- 'अपने आपको ।' फिर प्रश्न आया - 'यह कैसे, जबकि आप आचार्यश्री तुलसी को गुरु मानते हैं? मैंने कहा- 'मैं उनको गुरु मानता हूं, यह सत्य है । पहले मैंने निर्णय लिया था कि वे मेरे गुरुत्व के उपयुक्त हैं। इसमें निर्णायकता मेरी ही रही । शास्त्र अच्छे हैं, इसमें निर्णायकता व्यक्ति की ही होती है। महावीर, बुद्ध और कृष्ण भगवान् हैं, वे मानने वालों के आधार पर ही तो हैं। वे कहने नहीं आए कि हम भगवान् हैं । हमारे निर्णय में से ही उनका प्रामाण्य है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य मनुष्य की बुद्धि में से ही आता है। श्रद्धालु भी बुद्धि-शून्य नहीं होता । वह उसी की बात को मानता है, जिसमें उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है । बच्चा अपनी माता की बात मानता है, चाहे वह जो कुछ भी कहे । श्रद्धा अंधी होती है, क्या यह सत्य है ? अंधा यानी अज्ञान । श्रद्धा हमेशा बुद्धि द्वारा प्रवाहित होती है । जो तीव्र प्रवाह घनीभूत होकर बहता है, वही श्रद्धा है । ज्ञान के बिना श्रद्धा हो ही नहीं सकती। पानी के बिना बर्फ नहीं होती । दही दूध का ही सघन रूप है । वैसे ही ज्ञान का घनीभूत रूप श्रद्धा है। जहां बुद्धि अभिव्यक्ति में अल्पक्षम होती है, वहां अन्तःस्तल Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति में स्वीकार होता है। धर्म बुद्धि के द्वारा ही गम्य होता है, अबुद्धि के द्वारा नहीं। . स्थूल दृष्टि में धर्म का सम्बन्ध श्रद्धा से अधिक है, बुद्धि से कम। गहराई में धर्म का सम्बन्ध बुद्धि के बिना होता ही नहीं। कोई श्रद्धावादी बुद्धिहीन नहीं है और कोई बुद्धिवादी श्रद्धाशून्य नहीं है। ज्ञान और श्रद्धा-दोनों ही हमारे मापदण्ड हैं। फिर एक ही प्रश्न क्यों-क्या धर्म बुद्धिगम्य है? दूसरा भी प्रश्न होना चाहिए-क्या धर्म श्रद्धागम्य है? १०. धर्म और उपासना धर्म के लिए सबसे बड़ी समस्या उसे संस्थागत रूप में स्वीकार करना है। जीवन व्यवहार में धर्म के सम्बन्ध में विचार करते समय दो बातें सामने होती हैं : १. उपासनागत धर्म २. आचारगत धर्म उपासनागत धर्म में समानता का अभाव है क्योंकि उपासना की अनेक पद्धतियां हैं, परन्तु आचारगत धर्म में समानता है। सामान्य व्यक्ति उपासना को अधिक समझता हुआ धर्म को कम समझता है। लोग कहते हैं कि भक्ति-मार्ग सरल और अच्छा है। एक दृष्टिकोण से यह सही भी हो सकता है, किन्तु वंचना की गुंजाइश भी इसी में सबसे अधिक है। व्यक्ति दिन भर के पापों को मूर्ति के सामने जाकर एक वाक्य-'प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो' में धो लेना चाहता है। वह सारी जिन्दगी के पाप-कर्म एक बार गंगा-स्नान कर धो लेने की असफल कोशिश करता है। वस्तुतः उपासना इसलिए थी कि साधारण व्यक्ति प्रतीक के रूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सके किन्तु कालान्तर में वही भक्ति-मार्ग वंचना का प्रमुख केन्द्र बना। इसके विपरीत आचार-मार्ग में इसकी गुंजाइश नहीं है, क्योंकि व्यक्ति की आत्मिक पवित्रता ही उसका आधार है। ... उपासना में आचार-शुद्धि की बात गौण है। आराधना स्वयं प्रवंचना नहीं है, किन्तु उसे प्रवंचना का रूप दे दिया गया। गंगा-स्नान, मंदिर, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और उपासना ८५ संत-दर्शन, सेवा आदि उपासना की पद्धतियां विशेष अर्थ के रूप में ठीक थीं किन्तु प्रकारान्तर से लोगों ने समझ लिया कि चाहे जितना पाप करते रहें, कभी-कभी यह उपासना करके सारे पापों से मुक्त हो लेंगे । इस प्रकार की धारणाबद्ध उपासना से धर्म का तत्त्व उससे दूर होता जाता है । स्वतंत्र कर्तृत्व का विकास नीतिवाद के सहारे हुआ । अणुव्रत के साथ उपासना नहीं जुड़ी, चरित्र जुड़ा । यह नितान्त नीति की श्रृंखला से बंधा है। मध्यकाल में मूलतः जितना बल उपासना - मार्ग पर दिया गया, उतना चरित्र - मार्ग पर नहीं दिया गया । उपासना लोगों को प्रिय लगी किन्तु विगत पंद्रह सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि इससे चरित्र का ह्रास हुआ है। दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक मंदिरों की स्थिति देखें तो उनमें चित्रित अश्लीलता देखकर अवाक् रहना पड़ता है। इसमें वाममार्गी तांत्रिकों का प्रभाव भी एक कारण रहा किन्तु वह भी आचारवाद को प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण ही हुआ । छाया के लिए आचार को पाल समझें और उपासना को उसे बांधने वाली रस्सी । स्थिति यह हुई की पाल तो उड़ गया है और केवल रस्सी रह गई है। उपासना व्यर्थ नहीं है किन्तु वह आवरण बन गई और जहां चरित्र तक पहुंचना था वहां पहुंच ही नहीं सके । मन्दिर, संत-दर्शन आदि से धर्म-भावना जागृत होती है, यह इसके मूल में आशय था किन्तु इसे स्वीकार इस रूप में किया गया कि मन्दिर में जाने, संत-दर्शन करने आदि के बाद शेष कुछ भी नहीं रहा । आचार गौण कर केवल उपासना में ही उलझ गए । कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनका उपासना में विश्वास नहीं किन्तु वे चरित्रवान हैं । वे वस्तुतः धार्मिक हैं। प्रो. गौरा स्वयं को नास्तिक मानते हैं किन्तु गांधीजी उन्हें पक्का आस्तिक मानते थे, क्योंकि प्रो. गौरा का आचार शुद्ध और आध्यात्मिक था। जहां उपासना पर अधिक बल दिया जाता है वहां चरित्र पर कम जोर दिया जाता है। इसके विपरीत आचारवादियों ने उपासना को कम महत्त्व दिया है। उपासना की पद्धतियां अलग-अलग रहेंगी किन्तु आचार में भेद नहीं होगा। आचार्य निरंजन सूरी ने इन्द्रिय, प्राण, मन, पवन और तत्त्व, इनकी समता का नाम अध्यात्म योग कहा है। हम धर्म में भी प्रियता पसंद करते हैं, अतः धार्मिक क्षेत्र में संगीत, कला, नृत्य आदि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति को मन्दिरों में प्रश्रय दिया गया और उपासना का उसे अनिवार्य अंग बना लिया गया। आचार में प्रियता नहीं है। मैं मूलतः उपासना को धर्म में बाधक नहीं मानता किन्तु धार्मिक की परिभाषा चरित्र के आधार पर होनी चाहिए। उपासना गौण है और चरित्र मुख्य। उपासना प्रति क्षण नहीं हो सकती किन्तु आचार की स्थिति निरन्तर रह सकती है। जैसे एक व्यक्ति जीवन-भर नैतिक, ईमानदार और प्रामाणिक रह सकता है, किन्तु उपासना समय-समय पर ही कर सकता है। यह सम्भव नहीं कि कोई व्यक्ति दो-चार घंटे अप्रामाणिक रहकर पुनः अवशिष्ट समय में चरित्रवान बन जाए और उसे चरित्रवान मान लिया जाए। उपासना दवा है और आचार भोजन। भोजन सर्वदा किया जाता है किन्तु दवा हमेशा नहीं खायी जाती। उपासना पुष्टि के रूप में है किन्तु आचार सहज धर्म है। यदि वह नहीं रहे तो उपासना का मूल्य नहीं। ___ आचार-शुद्धि की पृष्ठभूमि अपनी पवित्रता और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता है। अपनी आचारिक पवित्रता में जंग नहीं लगने देना उपासना की पृष्ठभूमि है। यह सही है कि उपासना धर्म को संवारती है किन्तु मूल धर्म अर्थात् आचार ही है। अर्थात् उपासना का आवरण रूप हटाकर प्रेरक रूप रखना है। इतना होते हए भी उपासना को अणव्रत के साथ नहीं जोड़ना है क्योंकि ऐसा होने से यह भी सम्प्रदाय बन जाएगा। जिस दिन आचार के साथ उपासना जुड़ती है उसी दिन से सम्प्रदाय रूप धारण करते हैं। अब व्यवहार धर्म के प्रश्न को समझें। धर्म व्यवहार में आना तभी सम्भव होगा जब हम उपासना के दृढ़ संस्कारों को थोड़ा झकझोरें। नीचे आचार की भूमि के अभाव में उपासना तारने वाली नहीं है। व्यवहार दो प्रकार के होते हैं : १. जिसका दूसरों पर प्रत्यक्ष प्रभाव न होता हो। २. जिसका दूसरों पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता हो। व्यवहार ही धार्मिकता की कसौटी है। प्रामाणिकता हमारा व्यवहारगत धर्म है, क्योंकि उसकी आस्था बन गई है कि ऐसा न करना आत्म-पतन है। व्यवहार की चुनौती को जब तक धार्मिक स्वीकार नहीं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की परिभाषा ७ करेगा तब तक अन्य को कार्य की प्रेरणा नहीं मिल सकेगी और न धर्म का तेजस्वी रूप ही स्पष्ट होगा। उपासना मार्ग के स्वरूप को थोड़ा अलग करके और स्वयं में अध्यात्म-जागरण से ही धर्म व्यवहारगत हो सकता है। इसके बाद धर्म का उपदेश देने की जरूरत नहीं रहेगी। ___ भारतीय चिन्तन विगत शताब्दियों में कुंठित हो गया, फलतः नया उन्मेष कम आया है। आचारहीन उपासना हमेशा खतरनाक है। आज नया चिन्तन आ रहा है जिसे रोका भी नहीं जा सकता। कोरी उपासना के आधार पर कोई भी धर्म नहीं टिक सकता। ११. धर्म की परिभाषा धर्म का इतिहास बहुत पुराना और दीर्घकाल तक रहने वाला है। जीवन और मृत्यु के रहस्य जब तक रहेंगे तब तक धर्म रहेगा। धर्म को समाप्त करने का प्रयास करने वाले थक गए हैं और इसके विपरीत धर्म का प्रचार अधिक ही हुआ है। रूस पिछले पैंतीस वर्षों से धर्म नष्ट करने का प्रयास करता रहा है किन्तु अब वहां का सत्तारूढ़ दल यह स्वीकार कर चुका है कि अनेक प्रयत्नों के बावजूद धर्म कम होने की अपेक्षा बढ़ा है। रूस में इन पिछले पैंतीस वर्षों में धार्मिक श्रद्धा बढ़ी है। धर्म मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अज्ञात के विषय में चिन्तन करने में धर्म से मनुष्य को सहारा मिलता है। धर्म हमारी आत्मा की पवित्रता है अर्थात कषाय-मुक्ति या राग-द्वेष से मुक्त होना धर्म है। शेष सारा प्रपंच है। अपने स्वभाव में रहना धर्म है। धर्म के कारण विभीषिका, युद्ध और हत्याकांड नहीं हुए हैं। जहां अतिरिक्त मूल्य होता है उसके आसपास लड़ाइयां होती हैं। जैसे आज राजनीति का अतिरिक्त मूल्य बढ़ा है, फलतः उसके लिए लड़ाइयां होती हैं। इसी प्रकार पहले धर्म का अतिरिक्त मूल्य था अतः उसके आसपास लड़ाइयां हुईं। धर्म और उसका संस्थान ये दो बातें हैं। धर्म अरूप और अमूर्त है किन्तु मनुष्य मूर्त चाहता है। मनुष्य ने ज्ञान का मूर्त पुस्तकें, काल का मूर्त घड़ियां और भगवान् का मूर्त प्रतिमा को बना लिया। यही धर्म के Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति साथ हुआ है। उसने धर्म को भी एक रूप दिया है। यहीं से प्रतीकवाद चला। राष्ट्र अमूर्त है किन्तु झंडे के रूप में उसका प्रतीक बना लिया गया है। धर्म का मूर्त रूप मनुष्य ने संस्थान बना लिया। उपनिषद् में वर्णन आता है-“परमात्मा का अकेले मन नहीं लगा अतः द्वंद्व पैदा किया और आत्मा का विस्तार कर नाम और रूप के आधार पर सृष्टि पैदा की।” नाम और रूप का यही आकर्षण अमूर्त को मूर्त बनाता है। जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, हिन्दू आदि सभी नाम हैं और उसकी संस्थाएं धर्म का रूप हैं। धर्म अमूर्त है, किन्तु नाम और रूप के द्वारा वह हमारे सामने आता है इसीलिए हर धर्म का अपना नाम और रूप है। लड़ाई इसी नाम और रूप के लिए हुई है। धर्म के लिए कभी भी युद्ध नहीं हुए। जैन धर्म में पन्द्रह प्रकार के सिद्ध माने गए हैं जिनमें स्व-लिंग-सिद्ध, अन्य-लिंग-सिद्ध और गृह-लिंग-सिद्ध-इन तीन सिद्धों का वर्णन भी मिलता है। जैन वेश में सिद्ध होने वाले स्व-लिंग-सिद्ध, अन्य किसी भी वेश में सिद्ध होने वाले अन्य-लिंग-सिद्ध और गृहस्थ के वेश में सिद्ध होने वाले गृह-लिंग-सिद्ध कहे गये हैं। इससे स्पष्ट है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष ही में बंधा हुआ नहीं है, क्योंकि सम्प्रदाय के वेश के अतिरिक्त गृहस्थ के वेश तक में भी सिद्ध होना सम्भव है। चूंकि धर्म हमारी आत्मा की पवित्रता है अतः आत्म-पवित्रता में किसी को मतभेद नहीं है, केवल क्रियाकाण्डों में भेद आता है। जैन-दर्शन के 'नैगमनय' में प्रश्नोत्तर है-'तुम कहां रहते हो? 'जम्बूद्वीप में।' 'जम्बूद्वीप में कहां रहते हो? 'भारतवर्ष में।' 'भारत में कहां रहते हो? 'अमुक राज्य में।' 'अमुक राज्य में कहां रहते हो? 'अमुक नगर में।' 'अमुक नगर में कहां रहते हो? 'अमुक मुहल्ले में।' 'अमुक मुहल्ले में कहां रहते हो? 'अमुक नम्बर के मकान में।' 'अमुक नम्बर के मकान के किस कमरे में रहते हो? 'अमुक कमरे में'। 'अमुक कमरे में सर्वत्र तो नहीं रहते होगे? अन्तिम निष्कर्ष निकलता है और जवाब मिलता है कि मैं आत्मप्रदेश में रहता हूं। वस्तुतः अपने स्वभाव में रहना धर्म है और स्वभाव से बाहर जाना अधर्म है। भगवान् महावीर ने चार विकल्प किए हैं : १. कोई व्यक्ति धर्म छोड़ता है, संस्थान नहीं छोड़ता। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ६ २. कोई संस्थान छोड़ता है, धर्म नहीं छोड़ता। ३. कोई धर्म और संस्थान दोनों छोड़ता है। ४. कोई धर्म और संस्थान दोनों रखता है। १२. धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक धर्म वर्तमान की समस्या का समाधान दे सकता है? यह प्रश्न आज के चिंतनशील मनुष्य मन-ही-मन पूछते हैं। संगोष्ठी में इसकी चर्चा भी होती है। पर इसका उत्तर कौन दे? जिनका धर्म चल रहा है वे धर्म-प्रवर्तक आज विद्यमान नहीं हैं। विद्यमान हैं उनकी वाणी और वाणी को अपनी सीमा में समेटे हुए शास्त्र! वाणी एक है, उसके अर्थ अनेक हैं। शास्त्र एक है, उसके भाष्य अनेक हैं। फलतः धर्म भी अनेक हैं। सत्य एक है। वह व्यक्ति-व्यक्ति के लिए अलग नहीं हो सकता। मेरा और तुम्हारा सत्य अलग नहीं हो सकता। फिर मेरा और तुम्हारा धर्म अलग कैसे हो सकता है? धर्म यदि सत्य है तो वह व्यक्तिशः अलग नहीं होना चाहिए। और यदि वह सत्य नहीं है तो उसे बहुत मूल्य नहीं दिया जाना चाहिए। __ धर्म और सत्य की अनगिन परिभाषाएं हुई हैं पर आज भी वह अपरिभाषित जैसा प्रतीत हो रहा है। सत्य क्या है? जो अस्तित्व है, वही सत्य है। धर्म क्या है? चेतना की अपने अस्तित्व के प्रति जागरूकता है, वही धर्म है। अस्तित्व जब विभिन्न संदर्भो में व्याख्यात होता है, तब सत्य के अनेक रूप बन जाते हैं। धर्म जब विभिन्न अनुभवों के आलोक में रूपायित होता है, तब धर्म के अनेक रूप बन जाते हैं। धर्म के अनेक रूप हैं इसीलिए यह प्रश्न उठता है-क्या धर्म वैज्ञानिक है? वैज्ञानिक युग ने इस कथन को और अधिक उत्तेजना दी है। विज्ञान प्रयोग-सिद्ध तथ्य का प्रतिपादन करता है। वैज्ञानिक परीक्षण का परिणाम देश और काल की सीमा से अतीत होता है। हर देश और हर काल में समान ही परिणाम प्राप्त होता है। क्या धर्म वैज्ञानिक है? क्या उसे परीक्षण की कसौटी पर कसा जा सकता है? क्या उसकी परीक्षा का देशकालातीत परिणाम प्राप्त होता है? ये बहुत सारे प्रश्न हैं, जो धर्म की वैज्ञानिकता Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति जानने के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं। धर्म अस्तित्व है। वस्तु का जो स्वभाव है, वह धर्म है। जिसने धर्म की यह परिभाषा की उसने धर्म के अन्तस्तल का साक्षात् किया था। आत्मा का स्वभाव चैतन्य है। चैतन्य का अनुभव ही धर्म है। अनुभव व्यक्तिगत होता है। विचार सामूहिक हो सकता है, किन्तु अनुभव सामूहिक नहीं हो सकता। विचार की परीक्षा की जा सकती है, अनुभव की परीक्षा नहीं की जा सकती। विचार भाषा में प्रस्फुटित होता है, अनुभव के प्रस्फुटन का कोई उपाय नहीं है। इस दशा में अनुभव को कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। जो कसौटी पर नहीं कसा जा सकता, जिसे प्रयोगशाला में परीक्षणीय नहीं बनाया जा सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता। इस अर्थ में धर्म वैज्ञानिक नहीं है। जिन व्यक्तियों ने चैतन्य का अनुभव किया है, जो अपने चैतन्य के प्रति जागरूक हैं, उन सबका फलितार्थ एक है। कोई भी देश और काल उसमें अन्तर नहीं डाल सकता। इस समान परिणाम की दृष्टि से धर्म वैज्ञानिक है। हम अनुभव के धरातल पर उतरे बिना ही धर्म की वैज्ञानिकता और अवैज्ञानिकता की चर्चा करते हैं। हमारी धर्म के प्रति असफलता का यही सबसे बड़ा कारण है। विचार के धरातल पर तर्क और प्रतितर्क-दोनों चलते हैं। अनुभव के धरातल पर इनका कोई स्थान नहीं है। कोई तर्क के द्वारा धर्म की स्थापना करता है तो कोई उसका निरसन करता है। कोई अपने को आस्तिक मानता है तो कोई नास्तिक। जो कट्टर आस्तिक और कट्टर नास्तिक हैं, उनमें मुझे कोई भेद दिखाई नहीं देता। कट्टर आस्तिक नास्तिक का और कट्टर नास्तिक आस्तिक का खण्डन करने पर तुला हुआ है। सत्य की जिज्ञासा दोनों में नहीं है। उसकी खोज दोनों नहीं कर रहे हैं। वे केवल मानकर चल रहे हैं। दोनों ही अपने-अपने शास्त्रों की दुहाइयां देकर अपने आपको आश्वस्त कर रहे हैं। जिनमें सत्य की जिज्ञासा है, जो उसके खोजी हैं, वे आस्तिक हों या नास्तिक, उनमें मुझे कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। कोई अस्तित्व को प्रधान मानकर नास्तित्व को नकार रहा है तो कोई नास्तित्व को प्रधान मानकर अस्तित्व को नकार रहा है। पर नास्तित्व की खोज का द्वार बन्द नहीं है, इसलिए वह आस्तिक नास्तिकता को अपने भीतर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ६१ समेटे हुए है और वैसा नास्तिक आस्तिकता का दीप अपने भीतर संजोए हुए है। हमने धर्म की कट्टरताएं पाल रखी हैं। जब विचार के साथ धर्म का गठ-बंधन होता है, तब कट्टरताएं पनपे बिना नहीं रह सकतीं। कुछ लोग मानते हैं कि जिस धर्म के साथ कट्टरता जुड़ी नहीं होती, उसका अस्तित्व टिक नहीं पाता। हमने धर्म को संगठन मान लिया, एक जाति का रूप दे दिया है। जो संगठन जाति के रूप में विकसित होता है, वह सत्य के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। धर्म और सत्य की व्याप्ति अनुभव के धरातल पर ही सिद्ध हो सकती है। सम्प्रदायों का विकास धर्म या चैतन्य के अनुभव के आधार पर नहीं हुआ है। वह विचार की भूमिका पर हुआ है। अनुभव व्यक्ति को जोड़ता नहीं है। वह संगठन नहीं बनाता। विचार में जोड़-तोड़ दोनों की क्षमता है। वह समान चिंतन के आधार पर व्यक्तियों को जोड़ता है, संगठन का निर्माण करता है। वहां संगठन होता है, जहां वह भी होता है जो धर्म को इष्ट नहीं है। धर्म के लिए संघर्ष हुए हैं। इतिहास ने धर्म को इसीलिए आलोच्य बनाया है कि उसके नाम पर रक्तपात हुआ है। हम इस भ्रान्ति को अभी पाले हए हैं कि सम्प्रदाय या संगठन के नाम पर होने वाले रक्तपात को धर्म के नाम पर होने वाले संघर्ष के रूप में मानते चले जा रहे हैं। धर्म की व्याख्याओं में काफी मतभेद है। उसकी आचार-संहिता भी एक नहीं है। किन्तु एक बात सब धर्मों में एक है। हर धर्म ने कहा-अपने भीतर देखो, अपने आपको देखो। धर्म का मूल . स्वरूप यही है। इसमें सब धर्म एकमत हैं। कोई भी धर्म इसे अस्वीकृत नहीं करता, इसका प्रबल समर्थन करता है। ‘अपने भीतर देखो', 'अपने आपको देखो'--इस प्रकार की घोषणा करने वाले धर्म से क्या संघर्ष के स्फुलिंग उछल सकते हैं? क्या रक्तपात संभव हो सकता है? यह संभव हुआ है धर्म को आधार बनाकर विकसित होने वाले सम्प्रदाय, संगठन या जाति से। क्या धर्म के आधार पर सम्प्रदाय, संगठन या जाति का बनना खतरनाक है? निश्चित ही खतरनाक है। पर इस खतरे को रोका नहीं जा सकता। यह कब हो सकता है कि टीप जले और काजल न बने। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ये धर्म के प्रासंगिक परिणाम हैं। इन्हें रोकना संभव नहीं है। क्या इस खतरे से बचने का कोई उपाय नहीं है? इस दुनिया में निरुपाय कुछ नहीं है। उपेय है तो उपाय अवश्य ही होगा। इस खतरे से बचने का उपाय है-मूल्यांकन का सही दृष्टिकोण। हर सम्प्रदाय की आचार-संहिता को धर्म की आचार-संहिता मानकर चल रहे हैं। सम्प्रदाय की आचार-संहिता में घृणा, तिरस्कार और संघर्ष के बीज मौजूद हैं। अपने से भिन्न सम्प्रदाय वाले को मिथ्यात्वी, नास्तिक, शैतान, दानव या काफिर कहा गया है। यही खतरा है। धर्म की आचार-संहिता में ऐसा नहीं हो सकता। उसकी यह भाषा ही नहीं है। उसकी भाषा अस्तित्व की भाषा है। उसमें स्व-पर या मेरा-तेरा जैसा शब्द गठित ही नहीं है। यही उस खतरे से बचने का उपाय है। सम्प्रदाय की घोषण है-मेरी सीमा में आओ, अन्यथा तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी। महावीर ने कहा-जो ऐसी घोषणा करता है, वह बांधता है, मुक्त नहीं करता। श्रीकृष्ण ने कहा-मेरी शरण में आओ, तुम मुक्त हो जाओगे। कृष्ण सत्य है। वह आत्मा है। वह परमात्मा है। सत्य की शरण में जाने वाला मुक्त होता है, बंधता नहीं है। महावीर ने धर्म को सम्प्रदायातीत बतलाया। उन्होंने कहा-दुःख-मुक्ति सम्प्रदाय में दीक्षित होने की अनिवार्यता नहीं है। उनके लिए आत्मस्थ होने की अनिवार्यता है। जो आत्मस्थ है, वह सम्प्रदाय में दीक्षित हुए बिना भी मुक्त हो सकता है। महावीर ऐसे व्यक्ति को 'अश्रुत्वा केवली' कहते हैं। आत्मस्थ व्यक्ति सम्प्रदाय में दीक्षित होकर भी मुक्त हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को महावीर 'श्रुत्वा केवली' कहते हैं। इन दोनों में मुक्ति का अनुबंध सम्प्रदायातीत और सम्प्रदायगत अवस्था से नहीं है, किन्तु आत्मस्थता से है। जो आत्मस्थ है, वह सम्प्रदाय में हो या न हो, मुक्त हो सकता है। जो आत्मस्थ नहीं है, वह सम्प्रदाय में हो या न हो, मुक्त नहीं हो सकता। आत्मस्थता और मुक्ति की व्याप्ति है। सम्प्रदाय और मुक्ति की व्याप्ति नहीं है। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है, शुद्ध चैतन्य का अनुभव है, इसलिए सब देशों और सभी कालों में वह समान परिणाम उत्पन्न करता है। उसका परिणाम देश-कालातीत है, इसलिए वह वैज्ञानिक है। महावीर के युग में धर्म था, दर्शन और योग नहीं था। दर्शन, ज्ञान Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म : वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ६३ और चारित्र-ये तीनों धर्म के अभिन्न अंग थे। ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शती में दर्शन और योग स्वतंत्र रूप में विकसित होने लगे। ईसा की पांचवीं-छठी शती में दर्शन और योग मुख्य हो गए, धर्म गौण हो गया। वह केवल आचार रह गया। वह पंखहीन पंछी जैसा हो गया। उसके दर्शन और आन्तरिक साधना-ये दोनों पंख कट गए। धर्म क्रियाकाण्डों का पुलिन्दा हो गया, अवैज्ञानिक हो गया। ईसा की आठवीं शती में इसी वास्तविकता की ओर ध्यान आकर्षित होने लगा। आचार्य हरिभद्र ने अनुभव किया कि दर्शन और योग को धर्म से स्वतंत्र मानने का परिणाम हितकर नहीं होगा। उन्होंने लिखा-धर्म व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है, इसलिए धर्म ही योग है। योग उससे भिन्न नहीं है। धर्म वस्तु का स्वभाव है। दर्शन वस्तुस्वभाव का विश्लेषण करता है, इसलिए दर्शन भी धर्म से भिन्न नहीं है। वास्तविकतावादी (निश्चयनय की गंभीरता को समझने वाले) जैन आचार्य यह कहते रहे-आत्मा को देखना ही दर्शन है। उसे जानना ही ज्ञान है। उसमें स्थित रहना ही चारित्र है। यह त्रिपुटी अभिन्न है और इस अभिन्न त्रिपुटी का नाम ही धर्म है। किन्तु व्यवहार के धरातल पर चलने वाले धार्मिकों ने इस सचाई को विकसित नहीं होने दिया। वे धर्म को केवल आचार-संहिता के रूप में प्रस्तुत कर सम्प्रदाय, संगठन और जाति के साथ उसका तादात्म्य स्थापित करते रहे। राज्यसंस्था और समाजसंस्था-दोनों धर्म के आधार पर संगठित होने लगीं। धर्म उनके केन्द्र में अवस्थित हो गया। उसे राज्याश्रय प्राप्त हुआ। धर्म राज्यधर्म हो गया। राजा की इच्छा ही धर्म का भाग्य बन गई। राजा ने जिस धर्म को माना, वह खुब फला-फूला। जिस पर उसकी भृकुटी तन गई उस धर्म का पौधा सूखने लगा। इसी प्रकार शक्तिशाली समाज द्वारा स्वीकृत धर्म व्यापक होने लगा और कमजोर वर्ग का धर्म मर्माहत होता गया। इस व्यवस्था में धर्म की अपनी शक्ति (चैतन्यानुभव, अन्तर्दर्शन) गौण होती गई। वह तंत्र-मंत्र, जादू-टोना जैसी यांत्रिक शक्तियों के सहारे जीने तथा राज्य और शक्तिशाली वर्ग की सत्ता के सहारे श्वास लेने लगा। उसकी अपनी प्राणशक्ति क्षीण हो गई। उसे कृत्रिम प्राण के सहारे जिलाने का प्रयत्न किया जाने लगा। फलतः वह स्वतः मृत और परतः अनुप्राणित हो Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति गया। उस धर्म को वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वर्तमान के मानस में धर्म की प्रतिमा श्रद्धा के साथ प्रतिष्ठित नहीं है। उसके साथ जुड़ा हुआ रक्त-रंजित इतिहास उसकी पावनता को स्वयं धूमिल किए हुए है। आज का चिंतनशील व्यक्ति धर्म के साम्प्रदायिक और संगठित रूप के प्रति आश्वस्त नहीं है, हो भी नहीं सकता और होना भी नहीं चाहिए। इतना होने पर भी उसकी पकड़ कमजोर नहीं हई है। उसका कारण यही है कि हर व्यक्ति चैतन्य का ज्योतिपुंज है। उसकी ज्योति-रश्मियां जाने-अनजाने किसी क्षण भीतर में चली जाती हैं और धर्म-चेतना जागृत हो जाती है। व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता है कि इस दुनिया में जो नहीं पाया, वह स्वयं में है। वह स्वयं का सत्य, स्वयंभू आनन्द और सहज शक्ति अतिरिक्त अनुभव होती है, जिसकी तुलना भौतिक समृद्धि से नहीं हो सकती। वर्तमान मानस में धर्म फिर योग के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है। लग रहा है कि लोग उसमें आज की समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं और पा रहे हैं। जिसमें समाधान की शक्ति होती है, उसकी वैज्ञानिकता को कभी चुनौती नहीं दी जा सकती। १३. यम और नियम खेतों की सुरक्षा के लिए बाड़ और जल की सुरक्षा के लिए पाल की जाती है। बाड़ की उपयोगिता तभी है, जब खेती लहलहा रही हो और पाल की उपयोगिता तभी है जब बांध में जल हिलोरें भर रहा हो। जिस खेत में खेती नहीं, वहां बाड़ के होने और न होने में क्या कोई अन्तर होगा? जिस बांध में पानी नहीं, वहां पाल के होने और न होने में क्या कोई अन्तर होगा? बाड़ और पाल का अपने आप में कोई उपयोग नहीं है। उनका उपयोग खेती और जल के होने पर ही है। नियम का उपयोग भी यम के होने पर है। यम पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रह। नियमों की तालिका लम्बी हो सकती है। जब-जब यमों पर पटाक्षेप होता है और नियम रंगमंच पर आ जाते Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत की शक्ति ६५ हैं, तब धर्म और धार्मिक निस्तेज बनता है। जब-जब यम प्रथम और नियम द्वयम् होते हैं, तब-तब धर्म और धार्मिक का तेज बढ़ता है। आज धर्म की शक्ति इसलिए क्षीण-सी प्रतीत हो रही है कि उसमें यम की अनिवार्यता समाप्त हो गई है, नियम अनिवार्य बन गए हैं। एक आचार्य ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में लिखा है 'यमान भीक्ष्णं सेवेत, न नित्यं नियमान् बुधः । यमान पतत्यकुर्वाणो, नियमान् केवलान् भजन् ॥' यमों का प्रतिदिन आचरण करो और नियमों का आचरण कभी-कभी। जो व्यक्ति यमों का प्रतिदिन आचरण नहीं करता, वह भटक जाता है और वह भी भटक जाता है, जो केवल नियमों का आचरण करता है। नैतिकता की विषम स्थिति के समीकरण का सूत्र है, यमों और नियमों का समंजस आचरण। १४. व्रत की शक्ति व्रत भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड रहा है। जिस समाज में संकल्प की शक्ति नहीं होती, वह समाज शिष्ट नहीं होता। संकल्प-शक्ति का विकास व्रत से होता है। इसीलिए व्रत सारे भारतीय जीवन का केन्द्र-बिन्दु है। जितने भी तीर्थंकर और अवतार हुए हैं, उन सबने व्रत का प्रतिपादन किया है। ऐसा एक भी धर्म नहीं है जिसमें व्रत न हो। व्रत को केन्द्र मानकर व्यक्ति उसकी परिधि में घूमता है। कोल्हू का बैल दीखने में निकम्मा-सा लगता है। दिन भर चलकर भी एक फलाँग आगे नहीं बढ़ता। एक संकल्प के साथ घूमने वाला बैल तेल निकालने में योग देता है। इसमें गति का परिणाम संक्षेप होने पर भी शून्य नहीं है। गति का विस्तार हो और परिणाम कुछ भी न हो, वह असफलता होती है। किन्तु जहां परिणाम हो, वहां असफलता नहीं होती। जहां आत्मानुशासन का विकास होता है, वहां छिपकर काम करने की भावना नहीं उठती। व्यक्ति में अपने निर्माण का विश्वास नहीं है, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति इसीलिए राष्ट्र में तेज नहीं आ रहा है । धर्म की परिधि, जो घेरा मात्र बन गया है, को तोड़ने की ओर गति नहीं होगी तो व्यक्ति की महानता प्रकट नहीं होगी । व्यक्ति की महानता के बिना राष्ट्र की महानता भी व्यक्त नहीं होगी । I मनुष्य दो खिड़कियों के बीच जी रहा है। एक खिड़की बाहर की ओर खुलती है, दूसरी भीतर की ओर । बाहर की खिड़की खुली है, भीतर की खिड़की बन्द है। दोनों के बीच में मनुष्य का व्यवहार चलता है बाहर की खिड़की से जो आ रहा है, वह काम्य नहीं है। बाहर से जो आता है, वह है दण्ड-शक्ति । दण्ड-शक्ति से राज्य - शक्ति और समाज - शक्ति चलती है । बाहर की खिड़की यदि बन्द हो जाए तो नैतिकता का उदय हो जाए । भीतर की खिड़की से कर्तव्य की बात प्राप्त होती है, जो मनुष्य के अन्तराल में दबी हुई है । जो भीतरी खिड़की से अपरिचित हैं, वे दण्ड-शक्ति से परिचित हैं 1 1 मनुष्य पशु नहीं है । पशु को दण्ड - शक्ति से हांका जाता है । हम प्रतिदिन देखते हैं कि नदी से गधों पर रेत लादकर लायी जाती है और उन्हें डण्डे से मारा जाता है । वे पशु हैं । क्रांति कर नहीं सकते और सरकार के सामने अपना विरोध भी नहीं कर सकते । मनुष्य के पास स्मृति है और प्रतिरोध की शक्ति है । इसलिए वह ऐसा अन्याय नहीं सह सकता । उसे दण्ड-शक्ति से हांका नहीं जा सकता। जिस देश में मनुष्य को हांका जाता है, वह पशुओं का देश है । पाशविक सत्ता से ऊपर उठने के लिए मनुष्य ने जिस सत्ता की सृष्टि की, वह व्रत है । राजा दिलीप महर्षि वशिष्ठ की गाय को चरा रहा था । सामने सिंह आ गया। उसे देख राजा गाय की सुरक्षा के लिए आगे आ गया। उसे ऐसा करते देख सिंह ने कहा एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च । अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन्, विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् । - तुम्हें एकछत्र राज्य प्राप्त है । यौवन और सुन्दर शरीर प्राप्त है । गाय को बचाने के लिए इन्हें खो रहे हो - अल्प के लिए बहुत को गंवा रहे हो । मुझे लग रहा है तुम विचार - मूढ़ हो । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत की शक्ति यदि कोई स्वार्थी होता तो कभी का भाग जाता । पर राजा भागा नहीं । उसने सिंह से कहा क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः, क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । राज्येन किं तद् विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा ॥ - मैं क्षत्रिय हूं । क्षत्रिय कुल में जन्मा हूं । क्षत्रिय का कर्तव्य है कि जो कष्ट में पड़ा हो, उसकी रक्षा करे। यदि मैं ऐसा नहीं करता हूं तो मुझे राज्य और अपने प्राणों से क्या प्रयोजन? राजा प्राणों की बलि देने को तैयार था । वह दण्ड-शक्ति की प्रेरणा नहीं थी, अपितु भीतर से आलोक आ रहा था और उसे कर्तव्य का बोध दे रहा था । कर्तव्य-बोध से आगे आत्मिक-बोध की सत्ता है । व्रत में बाह्य दबाव या विवशता नहीं होती, आन्तरिक चेतना उबुद्ध होती है, इससे व्यक्ति अकर्तव्य कर नहीं सकता । ढाई हजार वर्ष पहले मगध का शासन सम्राट् श्रेणिक के हाथों में था। वहां कालसौकरिक कसाई रहता था । वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसें मारता था। कसाई के पुत्र का नाम सुलस था । वह पिता से विपरीत वृत्ति का था । कालसौकरिक का देहावसान हुआ । कौटुम्बिक उत्तराधिकार सौंपने का समय आया । उत्तराधिकारी को उत्तराधिकार लेने से पूर्व एक भैंसे की बलि देनी होती है । सुलस ने कहा - यह मुझे मान्य नहीं है । मैं ऐसा नहीं कर सकता । परिवार की ओर से दबाव डाला गया तो सुलस ने स्वीकार कर लिया। भैंसा सामने खड़ा है। परिवार के लोग अभिषेक करने के लिए सज्जित हैं। सुलस के हाथ में तलवार दी गई और कहा - भैंसे को मारो । जिस व्यक्ति की चेतना जाग्रत हो गई, स्वाभाविक व्रत का उदय हो गया, वह ऐसा काम कैसे कर सकता है? सुलस ने तलवार चलाई - भैंसे पर नहीं, पर अपने पैरों पर । लोग कहने लगे - इतना कायर आदमी इस उत्तराधिकार के योग्य नहीं है। उसे अयोग्य घोषित कर दिया गया । उसने ऐसा क्यों किया? इसलिए किया कि उसके मानस में व्रत था। जिसके मानस में व्रत का उदय हो जाए, उससे अन्याय नहीं हो सकता । जिससे मानस में व्रत का उदय नहीं होता, वहां दण्ड-शक्ति চই Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आती है। जहां दण्ड-शक्ति आती है, वहां व्यक्ति बाहर से नियन्त्रित किन्तु अन्तर् में उच्छृखल बन जाता है। व्रत व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना का प्रतिफलन है। जीवन में व्रतों का आरोपण करना धर्म का उदय है। वह धार्मिक नहीं है, जिसके जीवन में व्रतों का आरोपण नहीं है। व्रत सामाजिक, राष्ट्रीय और व्यक्ति-चेतना का उदात्त स्वर है। चेतना में जो सुषुप्त शक्ति है, उसे जागृत करने से व्यक्ति का उदय होगा, समाज में व्रत की प्रतिष्ठा होगी और धार्मिकता जागृत होगी। यदि ऐसा हुआ तो जो बन्द खिड़की है, उससे आलोक प्रवाहित होता रहेगा। १५. घेरे की शक्ति व्रत जीवन को सीमित करता है। विकास का अर्थ है, विस्तार है। फीते को तानने के लिए आकाश चाहिए। विकास देश-काल में ही हो सकता है। देश और काल के बिना किसी वस्तु की व्याख्या नहीं हो सकती । व्रत और विकास देखने में एक-दूसरे के विरोधी लगते हैं पर मैं देखता हूं, विरोध वास्तविक नहीं है। विरोध मनुष्य की दृष्टि में ज्ञान और कल्पना में है। संसार में ऐसा कोई तत्त्व नहीं है जिसमें सहअस्तित्व नहीं हो। वस्तुसत्ता में विरोध नहीं है, विरोध है व्यक्ति की दृष्टि में। यदि दृष्टि में सापेक्षता आ जाए तो विरोध कहीं नहीं है। मेरे विचार में विकास सीमा में अधिक होता है। एक व्यक्ति पैरों से पन्द्रह-सत्रह मिनट में एक मील चलता है। यदि गति तेज हो तो दस-बारह मिनट में एक मील चल सकता है। राजस्थान से अहमदाबाद आने में आचार्यश्री को चार मास लगे हैं। आप वायुयान से दो घंटे में आ सकते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि वायुयान गति-शक्ति का एक घेरा है। यदि वाययान का घेरा न हो तो इतनी शीघ्रता से नहीं आया जा सकता। जो घेरे को तोड़ विकास चाहते हैं, वे अपने को समाप्त कर देते हैं। मैं देखता हूं कि मोटरकार में बैठा व्यक्ति पचास मील की गति से दौड़ा जा रहा है। क्या खुले पैरों से वह इतना दौड़ सकता है? प्रश्न होता है, क्या हम संकीर्णता को स्थान दें? इस प्रश्न पर सापेक्ष-दृष्टि से विचार करें। संकीर्णता एकान्ततः दोषपूर्ण नहीं है। हम Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा हुर्द बहुत बार हर बात को संकीर्ण कहकर टाल देते हैं। पर सीमा और संकीर्णता की मर्यादा को समझना आवश्यक है । १६. क्षमा एक संस्कृत - कवि कहता है - मुझे वह वस्तु बताओ जो दूध की तुलना कर सके । दूध पवित्र है, सहज मधुर है । उसे तपाया गया, विकृत किया गया, मथा गया, फिर भी वह स्नेह देता है 1 स्नेह वही दे सकता है, जो प्रकृति से महान् है । स्नेह वही दे सकता है, जो समर्थ है। लघु और असमर्थ इसलिए लघु और असमर्थ होता है कि उसमें स्नेह देने की क्षमता नहीं होती । लक्ष्मण ने सुग्रीव से कठोर वचन के लिए क्षमा मांगी - ' मया त्वं परुषाण्युक्तः, तत् क्षमस्व सखे! मम ।' लक्ष्मण असमर्थ नहीं थे । वह स्नेह की शून्यता को स्नेह से भर सकते थे, इसीलिए उनके मुंह में क्षमा का स्वर था । सिन्धु- सौवीर के अधिपति उद्रायण ने उज्जयिनीपति चण्डप्रद्योत से क्षमा मांगी। एक था बन्दी और दूसरा था बन्दी बनाने वाला । एक था पराजित और दूसरा विजेता । उद्रायण ने कहा, “महाराज प्रद्योत ! आज सम्वत्सरी का दिन है । यह मैत्री का महान् पर्व है । इस अवसर पर मैं तुम्हें हृदय से क्षमा करता हूं। तुम मुझे हृदय से क्षमा करो ।” महावीर का मानना था कि एक छोटा हो और दूसरा बड़ा, उनमें मैत्री नहीं हो सकती | मैत्री समानता के धरातल पर हो सकती है। क्षमा दे और ले नहीं, तो देने वाला बड़ा और नहीं देने वाला छोटा हो जाता है । उनमें मैत्री नहीं हो सकती। मैत्री उनमें हो सकती है, जो क्षमा दे और क्षमा ले । महाराज प्रद्योत ने कहा, “क्या कोई बन्दी क्षमा दे सकता है ?” उद्रायण आगे बढ़ा और प्रद्योत को मुक्त कर अपने बराबर बिठा लिया । दोनों हृदय स्नेह की श्रृंखला से बंध गए । स्नेह का धागा एक ओर अविच्छिन्न है । उसमें असंख्य दिलों को एक साथ बांधने की क्षमता है ! Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति उस दीप को बुझने में कितनी देर लगेगी, जिसमें स्नेह बच नहीं रहा है। उस पुष्प को मुरझाने में कितनी देर लगेगी, जिसमें रस बच नहीं रहा है। स्नेह जीवन के हिमालय का वह प्रपात है, जो गंगा-यमुना बन बहता है और धरती के कण-कण को अभिषिक्त, अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित करता है। स्नेह जीवन के सूर्य का वह प्रकाश है जो गहन अन्धकार को भेदकर मानस की हर सतह को आलोक से भर देता है। जिसके जीवन की गहराई में स्नेह की सरिता प्रवाहित नहीं है, वह क्या क्षमा करेगा? क्षमा का शब्दोच्चार क्षमा नहीं है। दुर्बलताओं तथा अल्पताओं को स्नेह की महान् धारा में विलीन करने की क्षमता जो है, वही क्षमा है। गंगा की धारा कितने गन्दे नालों को अपने में मिला पवित्र बना लेती है। यह क्षमता किसी नाले की धारा में नहीं हो सकती। क्षमा का अर्थ है स्नेह की असीमता, असीमता और इतनी असीमता कि जिसमें कोई भी भूल या कोई भी अपराध अपनी विशालता प्रदर्शित न कर सके। धर्म की आत्मा है स्नेह, प्रेम या मैत्री। जो रूखा है, वह कठोर है। कठोरता और धार्मिकता अग्नि और जल की भांति एक साथ नहीं रह सकतीं। जो चिकना है, वह कोमल है। कोमलता और अधार्मिकता अग्नि और जल की भांति एक साथ नहीं रह सकतीं। क्या आप मुझे उन धर्मों को धर्म कहने की स्वीकृति देंगे, जो मनुष्य को मनुष्य के प्रति कठोर बना रहे हैं, मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना रहे हैं, मनुष्य के प्रति मनुष्य के मन में घृणा भर रहे हैं और अपनी सुरक्षा या विस्तार के लिए मनुष्य से मनुष्य की बलि मांग रहे हैं। जो धर्म आत्मा की पवित्र वेदी से हटकर जातीय परम्परा से एक-रस हो जाता है, वह स्नेह के बदले रूक्षता की धार बहाता है और एकत्व के बदले विभाजन को बल देता है। ऐसे धर्मों से मनुष्य-जाति बहुत त्रास पा चुकी है। अब उसे उसी धर्म की अपेक्षा है जिसके अन्तस्तल में स्नेह और वातावरण में क्षमा का अजस्र स्रोत बह रहा है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति १०१ १७. मुक्ति एक संस्कृत-कवि की सम्मति है कि इस दुनिया में बन्धन बहुत हैं पर प्रेम-रज्जु जैसा गाढ़ बन्धन कोई नहीं है। भौंरा काठ को भेदकर निकल जाता है, किन्तु कोमलतम कमल-कोष को भेदकर नहीं निकल पाता। सूर्यविकासी कमल था। मध्याह्न में वह खिल उठा। एक भौंरा आया और उसके पराग में लुब्ध हो गया। वह बार-बार उस पर मंडराता रहा। अन्त में उसके मध्य में जाकर बैठ गया। सन्ध्या हो गई, फिर भी वह नहीं उड़ा। कमल-कोष सिकुड़ गया और भौंरा उसमें बन्दी बन गया। प्रेम से कौन बन्दी नहीं बना? दूसरों के प्रति प्रेम होता है, वह बांधता है और अपने प्रति प्रेम होता है, वह मुक्त करता है। बन्धन का अर्थ है दूसरों की ओर प्रवाहित होने वाला प्रेम और मुक्ति का अर्थ है अपने अस्तित्व की ओर प्रवाहित होने वाला प्रेम। यह स्वार्थ की संकुचित सीमा नहीं है। यह व्यक्तित्व की सहज मर्यादा है। जिसे अपने अस्तित्व का अनुराग है, वह दूसरों को बन्धन में नहीं डाल सकता। दूसरों को वे ही लोग बांधते हैं, जो अपने अस्तित्व के प्रति उदासीन होते हैं। मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए तोते को पिंजड़े में डालता है। चिड़ियाघर की सृष्टि क्यों हुई? मनुष्य अपने में अनुरक्त नहीं है, इसलिए वह दूसरों को बन्धन में डाल अपना मनोरंजन करता है। एक आदमी को अपने पड़ोसी से अनबन हो गई। उसके मन में क्रोध की गांठ घुल गई। वह जब कभी पड़ोसी को देखता, उसकी आंखें लाल हो उठतीं। यह द्वेष का बन्धन है। __ एक बुढ़िया शरीर में कृश होने लगी। पुत्र ने पूछा, 'मां! क्या तुम्हें कोई व्याधि है? 'नहीं, बेटा! कोई व्याधि नहीं है।' 'फिर यह कृशता क्यों आ रही है? 'बेटा! अपने पड़ोसी के घर में बिलोना होता है, उससे मुझे बहुत पीड़ा होती है। मथनी की इंडियां उस बिलोने में नहीं, मेरी छाती में चलती हैं। इसलिए मेरा शरीर कृश हो रहा है।' यह ईर्ष्या का बन्धन है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति राजा ने कहा- 'बकरी को खूब खिलाओ पर शरीर में बढ़नी नहीं चाहिए।' गांव वाले समस्या में उलझ गए। रोहक ने मार्ग ढूंढ़ लिया। बकरी को शेर के पिंजड़े के पास ले जाकर बांध दिया। उसे चारा खूब देते पर बकरी का शरीर पुष्ट नहीं हुआ। जैसे ही शेर दहाड़ता, उसका खाया-पिया हराम हो जाता। यह भय का बन्धन है। एक आदमी किसी सेठ के पास गया। घर में विवाह था। सेठ से कुछ सामग्री लेनी थी। सेठ से मांग की तो वह बोला, 'ठहरो, अभी यहां कोई आदमी नहीं है।' आधा घंटा बाद फिर मांग की तो सेठ ने फिर वही उत्तर दिया। तीसरी बार मांग की और वही उत्तर मिला। तब आगन्तुक ने कहा- 'मैं तो आपको आदमी समझ कर ही आपसे मांगने आया था।' यह मानदण्ड का बन्धन है। बाहरी बंधनों की क्या बात कहूं। अपने भीतर इतने बन्धन हैं कि उनसे निबटे बिना बाहरी बन्धनों से निबटना, नहीं निबटने के समान हो जाता है। मुझे मुक्ति प्रिय है, आपको भी प्रिय है, हर व्यक्ति को प्रिय है। किन्तु दूसरों को बांधने की मनोवृत्ति को त्यागे बिना क्या हम मुक्त रह सकते हैं? अपने से छोटे को मैं बांधता हूं, इसका अर्थ है, मैं अपने बड़ों से बंधन का रास्ता साफ करता हूं। आप बंधना न चाहें, इसका अर्थ होना चाहिए कि आप दूसरों को बांधना न चाहें। बन्धन बन्धन को जन्म देता है और मुक्ति मुक्ति को। बाहरी बन्धनों से मुक्ति पाने की अनिवार्य शर्त है मानसिक मुक्ति, आन्तरिक मुक्ति। १८ आर्जव गौतम ने पूछा, 'भन्ते! आर्जव से मनुष्य क्या प्राप्त करता है?' भगवान् महावीर ने कहा, 'गौतम! आर्जव से मनुष्य काया की ऋजुता, भावों की ऋजुता, भाषा की ऋजुता और संवादी प्रवृत्ति-कथनी और करनी की समानता को प्राप्त करता है।' आर्जव का अर्थ है सरलता। सरलता वह प्रकाश-पुंज है, जिसे हम चारों ओर से देख सकते हैं। सरलता वह प्रकाश-पुंज है, जिसमें हम Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्जव १०३ चारों ओर से देख सकते हैं। भगवान् महावीर ने कहा, 'निर्मलता उसे प्राप्त होती है, जो ऋजु होता है।' कपटी मनुष्य का मन कभी निर्मल नहीं होता। बच्चे का मन सरल होता है, इसलिए उसके प्रति सबका स्नेह होता है। हम जैसे-जैसे बड़े बनते हैं, समझदार बनते हैं, वैसे-वैसे हमारे मन पर आवरण आते रहते हैं। आवरण अज्ञान का होता है। आवरण सन्देह का होता है। आवरण माया का होता है। हम दूसरे व्यक्ति को जानने का यत्न नहीं करते, इसलिए हमारा मन उसके प्रति सरल नहीं होता। हम दूसरे व्यक्ति के प्रति विश्वास नहीं करते, इसलिए उसके प्रति हमारा मन सरल नहीं होता। हम दूसरे व्यक्ति से अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं, इसलिए उसके प्रति हमारा मन सरल नहीं होता। यदि इस दुनिया में अज्ञान, सन्देह और कपट नहीं होता तो मनुष्य मनुष्य के बीच प्रेम की धार बहती। मनुष्य मनुष्य के बीच कोई दूरी नहीं होती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से विभक्त नहीं होता। एक संस्कृत कवि ने कहा है-- _ 'सन्धत्ते सरल सूची, वक्रा छेदाय कर्तरी'-सुई सरल होती है, इसलिए जोडती है, दो को एक करती है और कैंची टेढी होती है. इसलिए वह काटती है, एक को दो करती है।' सरलता मनों को सांधती है। माया कैंची का काम करती है, मनों के टुकड़े-टुकड़े कर डालती है। हमारे नीतिशास्त्रियों ने कहा है, 'मनुष्य को बहुत सरल नहीं होना चाहिए। देखो, जो वृक्ष बहुत सरल-सीधे होते हैं, वे काट दिये जाते हैं और जो टेढ़े होते हैं, वे नहीं काटे जाते।' इस नीति-वाक्य ने मानवीय हृदय में प्रचलित सहज दीप को बुझाने का काम किया हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या आप टेढ़े शरीर वाले मनुष्य को पसन्द करते हैं? क्या आप टेढ़ी बात कहने वाले का विश्वास करते हैं? क्या कुटिल व्यवहार करने वाले को आप पसन्द करते हैं? क्या मन में कुटिलता रखने वाले को आप पसन्द करते हैं? इन सब प्रश्नों का उत्तर नकार की भाषा में होगा अर्थात् आप उन्हें पसन्द नहीं करते हैं। तब यह कैसे माना जाए कि हमें बहुत सरल नहीं होना चाहिए? यदि हर आदमी का मन खुली पोथी जैसा होता तो मनुष्य मनुष्य से डरता ही नहीं। आज Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति एक आदमी दूसरे आदमी से इसीलिए डरता है कि उसके मन में छिपाव है, घुमाव है, अस्पष्टता है और अन्धकार है। हम भोले न हों-सामने की स्थिति का प्रतिबिम्ब लेने की स्वच्छता से वंचित न हों। हम मायावी भी न हों-अपने मन की कलुषता से सामने वाले के मन को कलुषित करने की दक्षता से सम्पन्न न हों। हम सरल हों-वातावरण के प्रति सजग हों, किन्तु दूसरों के प्रति मन में मलिन भाव न हो। जिसका मन सरल होता है, वह दूसरों से ठगा नहीं जाता। ठगा वही जाता है, जिसके अपने मन में मैल होता है। __ एक बुढ़िया जा रही थी। सिर पर एक गठरी थी। उसी रास्ते से एक युवक जा रहा था। उसके मन में करुणा का भाव आया। उसने बुढ़िया से कहा, 'दादी! कुछ देर के लिए गठरी मुझे दे दो। तुम्हें थोड़ा-सा विश्राम मिल जाएगा।' बुढ़िया ने उसका भाव देखा और गठरी उसे दे दी। थोड़ी देर बाद बुढ़िया ने गठरी फिर ले ली। युवक का मन बदल गया। उसने सोचा-गठरी मेरे पास थी। उसे लेकर मैं भाग जाता तो बुढ़िया मेरा क्या करती? युवक ने फिर गठरी मांगी। बुढ़िया ने वह नहीं दी। उसने फिर आग्रह किया तो बुढ़िया ने कहा, 'अब नहीं दूंगी।' उसने पूछा, 'दादी! अब क्यों नहीं दोगी? बुढ़िया बोली-'बेटा! अब नहीं दूंगी। जो तुझे कह गया, वह मुझे भी कह गया।' । - सरलता मन का वह प्रकाश है, जिसमें कोई भी वस्तु अस्पष्ट नहीं रहती। माया मन का वह अन्धकार है, जिसमें आदमी भटकता है, भटकता है और भटकता ही रहता है। १६. मार्दव गुलाब के फूल में जो सौन्दर्य और सुगन्ध है, वह हर फूल में नहीं है। यह उत्कर्ष और अपकर्ष प्रकृति का नियम है। जहां पहाड़ है, वहां चोटी भी है और तलहटी भी है। पहाड़ में विचार-शक्ति नहीं है, इसलिए उसकी चोटी और तलहटी में कोई संघर्ष नहीं है। मनुष्य विचारशील प्राणी है। जो तलहटी पर खड़ा है, वह चोटी वाले को देख हीन-भावना से भर जाता है और जो चोटी पर खड़ा है, वह तलहटी वाले को देखकर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मार्दव १०५ अहंभाव से भर जाता है। मनुष्य में लम्बे समय से हीनता और उच्चता का संघर्ष चल रहा है। अमेरिका जैसे सुसंस्कृत देश में जातीय दंगे होते हैं। गोरे आदमी काले आदमियों को हीन मानते हैं। उसकी प्रतिक्रिया जातीय द्वेष का रूप ले चुकी है। हिन्दुस्तान जैसे धार्मिक देश में स्पृश्य और अस्पृश्य-ये दो श्रेणियां आज भी चल रही हैं। न जाने कितने लोगों ने अस्पृश्यता के अभिशाप से अभिशप्त होकर धर्म-परिवर्तन किया और कर रहे हैं। जिस वर्ग ने उत्कर्ष प्राप्त किया, उसने दूसरे वर्ग को अपने से निम्न ठहराकर ही संतोष की सांस ली। यह मनुष्य का मद है। मद अधर्म का द्वार है। इसमें प्रवेश पाकर मनुष्य ने सदा दूसरे मनुष्यों के प्रति क्रूर व्यवहार किया है। भगवान महावीर से पूछा गया-'भन्ते! धर्म के द्वार कितने हैं? भगवान् ने कहा- 'धर्म के चार द्वार हैं।' 'कौन-कौन-से, भन्ते? भगवान् ने कहा-'शान्ति, मुक्ति, ऋजुता और मृदुता।' मृदुता धर्म के प्रासाद में प्रवेश पाने का एक द्वार है। पहले द्वार और फिर प्रासाद । द्वार में प्रवेश पाए बिना कोई प्रासाद तक पहुंच नहीं सकता। क्या मृदु बने बिना कोई धार्मिक हो सकता है? आदमी धार्मिक तो है किन्तु मृदु नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि दिन तो है पर प्रकाश नहीं है। प्रकाश के बिना दिन का अस्तित्व आपको मान्य नहीं है। फिर मृदुता के बिना धर्म का अस्तित्व आपको कैसे मान्य होगा? धार्मिक जगत् ने मृदुता को मान्यता दी है पर उसका अर्थ-बोध बहुत संकुचित है। मृदुता का अर्थ समझा जा रहा है विनम्रता। यह समझ त्रुटिपूर्ण नहीं है, किन्तु अपूर्ण है। मृदुता का पूर्ण अर्थ है-कठोरता का विसर्जन, क्रूरता का विसर्जन। जिसका हृदय मृदु नहीं है, उसका सिर झुक जाता है, फिर भी क्या वह मृदु है? मृदु वह हो सकता है जिसके हृदय में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित है। जिसके हृदय में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित होता है, वह शोषण नहीं कर सकता, अपनी सुख-सुविधा में दूसरों की सुख-सुविधा को विलीन नहीं कर सकता. दूसरों को हानि पहुंचे, वैसा कार्य नहीं कर सकता। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सिंह चलता है, तब मुड़कर पीछे देखता है। क्या धार्मिक के लिए पीछे देखना आवश्यक नहीं है? सिंहावलोकन किए बिना अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। आत्मालोचन किए बिना धर्म पर आने वाले आवरण को तोड़ा नहीं जा सकता। अहंभाव व्यक्ति को क्रूर बनाता है। क्रूरता प्रतिहिंसा को जन्म देती है। वर्तमान की परिस्थितियों में ऐसा फलित हो रहा है। इस रोग की चिकित्सा है मृदुता, मृदुता और एकमात्र मृदुता। एक बार गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- 'भन्ते! मृदुता से क्या प्राप्त होता है? भगवान् ने कहा-'गौतम! मृदृता से अपने आपको दूसरों से अतिरिक्त मानने की भावना मर जाती है।' . इस दुनिया में कोई भी आदमी भगवान् के घर से नहीं आया है। हम सब मनुष्य हैं। इसलिए हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखता है। २०. लाघव एक आदमी तालाब में स्नान कर रहा था। उसने गहरी डुबकियां लीं। घंटा भर तक वह जल में तैरता-डूबता रहा। आखिर बाहर आया। घर जाते समय जल का घड़ा भर लिया। घड़ा कंधे पर रख वह चलने लगा। घर कुछ दूर था। मार्ग में वह थक गया। उसने मन-ही-मन सोचा-तालाब में डुबकी ली तब सैकड़ों टन पानी मेरे सिर पर था। पर मुझे कोई भार का अनुभव नहीं हुआ। घड़े में दस-बारह किलो पानी होगा, फिर भी मुझे भार का अनुभव हो रहा है। यह क्यों? ऐसा प्रश्न उन सबके मन में पैदा होता है, जो व्यापक और सीमित-दोनों क्षेत्रों का अवगाहन करते हैं। तालाब में जल मुक्त होता है, उसका अवगाह-क्षेत्र व्यापक होता है, इसलिए भार का दबाव विकेन्द्रित हो जाता है। घड़े में जल बंधा होता है, उसका अवगाह-क्षेत्र सीमित होता है, इसलिए भार का दबाव केन्द्रित हो जाता है। जब धन का संग्रह सीमित क्षेत्र में होता है, तब Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाघव १०७ वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब धन का अवगाह-क्षेत्र व्यापक हो जाता है, तब वातावरण दबाव, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, 'ऋद्धि-गौरव-धन को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और ऋद्धि-लाघव से वह हल्का बनता है।' जब खाद्य-सामग्री केन्द्रित हो जाती है, कुछेक लोगों के हाथों में जमा हो जाती है, तब वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब खाद्य सामग्री विकेन्द्रित हो जाती है, सबके हाथों में पहुंच जाती है, तब वातावरण दबाव, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, 'रस-गौरव-खाद्य को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और रस-लाघव से वह हल्का बनता है।' ___ जब सुख की अनुभूति केन्द्रित हो जाती है, अपनी सुख-साधना में दूसरों की कठिनाइयों की अनुभूति मिट जाती है, तब वातावरण में दबाव, तनाव और भार की अनुभूति होती है। जब सुख की अनुभूति व्यापक हो जाती है, दूसरों की कठिनाइयां बढ़ाने में रस नहीं रहता, तब वातावरण दबाव, तनाव और भार की अनुभूति से शून्य हो जाता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था, 'सुख-गौरव-सुख को अपना मानने से आदमी बोझिल बनता है और सुख-लाघव से आदमी हल्का बनता है।' एक पद-यात्री से पूछिए, वह हल्का होकर चलना चाहता है या बोझ से लदकर? उत्तर मिलेगा, 'हल्का होकर चलना चाहता हूं।' हम अपने मस्तिष्क पर कितना भार लादते हैं। एक गधा जितना भार नहीं ढोता, उतना भार हम कल्पनाओं का ढोते हैं। जितना भार एक ऊंट नहीं ढोता, उतना भार हम योजनाओं का ढोते हैं। जितना भार एक हाथी नहीं ढोता, उतना भार हम मान्यताओं का ढोते हैं। बहुत लोग कहते हैं, मन में शान्ति नहीं है, प्रसन्नता नहीं है। वे शान्ति चाहते हैं पर दिमाग का बोझ हल्का करना नहीं चाहते। वे प्रसन्नता चाहते हैं, पर दिमाग का बोझ हल्का करना नहीं चाहते। शरीर का भारी होना ज्वर का लक्षण है। शरीर का हल्का होना स्वास्थ्य का लक्षण है। दिमाग का Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भारी होना अशान्ति का लक्षण है। दिमाग का हल्का होना शान्ति का लक्षण है। आज के औद्योगिक युग में चारों ओर तनाव बढ़ रहा है-स्नायविक तनाव, मानसिक तनाव, व्यावहारिक तनाव और व्यावसायिक तनाव। तनाव और तनाव से उत्पन्न होने वाला पागलपन। क्या लाघव के सिवा इसकी कोई चिकित्सा हो सकेगी? __घड़ा अपने लिए भरने और उतना भार ढोने की बात समझ में आ सकती है, पर तालाब को अपने ही लिए बनाने की बात समझ में नहीं आ सकती। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे केवल अपनी शान्ति और प्रसन्नता को ही दियासलाई नहीं दिखा रहे हैं किन्तु समूचे समाज की शान्ति और प्रसन्नता की होली जला रहे हैं। २१. सत्य सत्य बहुत विराट् है। विराट को शब्दों में बांधना एक साहसिक प्रयत्न है। आदमी अनन्त आकाश को बांध अपना घर बना लेता है। अनन्त में फैली हुई सूरज की रश्मियों को ग्रहण कर उसे आलोकित कर लेता है तब सत्य के अंचल का स्पर्श कर हम क्यों नहीं विराट् विभूति की अनुभूति कर सकते? आग्रह के लोहावरण को तोड़े बिना क्या कोई सत्य तक पहुंचा है? जिसने अपनी धारणा की खिड़की से सत्य को देखा, वह सत्य से दूर भागा है। जिसने तथ्यों की खिड़की से सत्य को देखने का प्रयत्न किया, वह सत्य के निकट पहुंचा है. एक कुलवधू रस्सी से पीपल को बांधकर खींच रही थी। उसके हाथ रक्तरंजित हो रहे थे। शरीर कांप रहा था। आंखों से अविरल आंसू टपक रहे थे। फिर भी हठी पीपल एक पग भी नहीं सरक रहा था। एक पथिक उधर से आया। उसने सारा दृश्य देखा। वह शान्त स्वर से बोला-'बहन! क्या कर रही हो? 'भैया? सास ने पीपल मंगाया है, इसलिए इसे घर ले जाने का प्रयत्न कर रही हूं। पर यह बहुत हठी है। मेरी एक भी बात नहीं मानता।' कलवध ने फिर एक बार रस्सी को - Raa ... Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य १०६ दृढ़ता से खींचा किन्तु पीपल नहीं चला। पथिक ने कहा- 'बहन! पीपल ऐसे नहीं जाएगा। वह पीपल पर चढ़ा, एक टहनी तोड़ी। उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला-'लो! यह पीपल अपनी सास को दे देना।' ___ आचार्य भिक्षु ने इस कथा द्वारा अज्ञानलब्ध आग्रह का चित्रण किया है। किन्तु आग्रह का यह एक रूप ही नहीं होता। अपनेपन का भी आग्रह होता है। ___ एक आदमी तलैया में बैठा जल पी रहा था। जेठ की गर्मी में उसका जल सूख गया था। थोड़ा-बहुत बचा, वह मिट्टी से मिला हुआ था। एक पथिक उस मार्ग से आया। उसने कहा, 'थोड़ी दूर पर बड़ा तालाब है, स्वच्छ पानी है। वह पीओ। क्यों पीते हो यह मिट्टी-मिला पानी? 'यह मेरे पिता की तलैया है, मैं इसी का जल पीऊंगा'-यह कह वह फिर जल पीने का प्रयत्न करने लगा। इस प्रकार सोचने और व्यवहार करने वाले लोग इस दुनिया में कम नहीं हैं। यदि अपनेपन का आग्रह नहीं होता तो सत्य का मुंह आवरणों से ढंका नहीं होता। मोह-जनित आग्रह इससे भी भयंकर होता है। धोबी के घर एक कुत्ता रहता था। उसका नाम था सताबा। धोबी के दो पत्नियां थीं। वे परस्पर बहत लड़तीं। लड़ते समय एक-दूसरे को गाली देतीं, 'आयी है सताबा की बैर (पत्नी)।' कुत्ता इस नाम के मोह में फंस गया। उन्होंने कुत्ते को रोटी डालना बन्द कर दिया। वह भूख से सूख गया। पड़ोस के कुत्ते ने कहा- 'चलो, घूमें और रोटी खाएं।' उसने कहा, 'मैं अपनी दो पत्नियों को छोड़कर बाहर कैसे जा सकता हूं? संस्कार का आग्रह भी किसी से कम नहीं होता। एक चींटी कहीं जा रही थी। बीच में दूसरी चींटी मिल गई। दोनों ने बातचीत की। अतिथि-चींटी ने सुख संवाद पूछा तो वहां खड़ी चींटी ने कहा-'बहन! और तो सब ठीक है पर मुंह खारा बना रहता है।' अतिथि-चींटी ने कहा- 'तुम नमक के पर्वत पर रहती हो, फिर मुंह खारा क्यों नहीं होगा? चलो मेरे पास। मैं मिसरी के पहाड़ पर रहती हूं। वहां तुम्हारा मुंह मीठा हो जाएगा।' वह अतिथि-चींटी के साथ चल पड़ी। वहां पहुंचने पर भी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति उसका मुंह मीठा नहीं हुआ। उसने कहा-'मेरा मुंह तो अभी खारा ही है! वहां रहने वाली चींटी ने कहा- 'मुंह में नमक की डली तो नहीं लायी हो? 'वह तो है', नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने कहा। 'बहन, नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा? __ पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाए बिना कोई भी आदमी सत्य को नहीं पा सकता। २२. संयम यदि संयम नहीं होता तो दुनिया में भय और आतंक का एकछत्र साम्राज्य होता। यदि नदी तटों के बीच प्रवाहित नहीं होती तो उससे जनता का उपकार कम, अपकार अधिक होता। हमारे जीवन की धारा संयम के तटों के बीच बहती है, इसीलिए हम हैं और समाज के बीच में जीवित हैं। नीचे साबरमती बह रही है, ऊपर रेलवे पुल है। एक ओर बड़ी लाइन है, दूसरी ओर छोटी लाइन है। पास में ही साइकिलों और पद-गामियों का मार्ग है। सब अपने-अपने मार्ग से गुजर रहे हैं। कोई किसी के मार्ग में बाधक नहीं बन रहा है। यदि व्यवस्था में संयम नहीं होता तो नदी के प्रवाह में रेलें रुक जातीं, मनुष्यों का आवागमन रुक जाता। मनुष्य संयम को जानता है, इसलिए न प्रवाह रुकता है, न रेलें रुकती हैं और न आवागमन रुकता है। गीता कछुए के संयम का बखान करती है। कछुआ संयम करना जानता है। अपने अवयवों को अपनी सुरक्षा ढाल में संगोपित करना जानता है। इसीलिए वह सियारों के प्रहार से बच जाता है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध ने एक ही भाषा में कहा-'हाथों का संयम करो, पैरों का संयम करो, वाणी का संयम करो, इन्द्रियों का संयम करो और मन का संयम करो।' हर आदमी अपनी सुरक्षा चाहता है। संयम सबसे बड़ी सुरक्षा है। असंयम से जितने आदमी बीमार होते हैं, उतने कीटाणुओं से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी घायल बनते हैं, उतने शस्त्रों से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी बन्दी बनते हैं, उतने पुलिस से नहीं बनते। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम १११ असंयम से जितने आदमी मरते हैं, उतने मौत से नहीं मरते। शरीरशास्त्री कहते हैं-हम लोग पचास प्रतिशत अपने लिए खाते हैं और पचास प्रतिशत डॉक्टरों के लिए खाते हैं। आंतों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए नहीं खाया जाता, खाया जाता है जीभ की तुष्टि के लिए। भोजन की भूमिका से जीभ की तुष्टि को निकाल दिया जाए तो अन्न का उतना अभाव नहीं रहेगा, जितना आज है। खाने-पीने की आवश्यक वस्तुओं में ध्यान उलझ जाता है, तब मौलिक आवश्यकता पर ध्यान पूर्णतः केन्द्रित नहीं हो पाता। आज ऐसा हो रहा है। विलास या लोलुपता की समस्या ने खाद्य की समस्या को गौण कर दिया है। और खाद्य की समस्या ने अनेक गौण समस्याओं को मुख्य बना दिया है। हिन्दुस्तान अभी अल्प-साधन वाला देश है। उसमें एक वर्ग विलास और अनावश्यक वस्तुओं का भोग करे और दूसरा वर्ग भूख से संत्रस्त रहे, यह करुण कहानी है। इसमें असंयम का बहुत बड़ा हाथ है। आचार्यश्री तुलसी राजस्थान में थे। उनके कुछ शिष्य दूसरे प्रान्त में विहार कर रहे थे। आचार्यश्री ने सुना कि उन्हें भोजन कम मिल रहा है, सुविधा से नहीं मिल रहा है। आचार्यश्री ने अपने भोजन में कमी कर दी। सहानुभूति का स्रोत वहां तक पहुंच गया। उन्हें कठिनाई की अनुभूति कम होने लगी। सहानुभूति के अभाव में कठिनाई की अनुभूति प्रखर हो जाती है और सहानुभूति मिलने पर कठिनाई कम न भी हो पर उसकी अनुभूति अवश्य ही कम हो जाती है। यदि सम्पन्न लोग संयम करें तो अभावग्रस्त लोगों को कठिनाई सहज ही कम हो जाती है और यदि वह एक साथ कम न भी हो किन्तु उसकी अनुभूति निश्चित रूप से कम हो सकती है। मनुष्य की सारी समस्याएं वस्तुओं की प्रचुरता से ही नहीं सुलझती हैं। बहुत सारी समस्याएं संयम से सुलझती हैं। हमारे अर्थशास्त्री केवल वस्तुओं के विस्तार में समस्या को सुलझाने की बात कर रहे हैं। इस समय हमारे धर्म-शास्त्रियों के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है कि वे वैज्ञानिक पद्धति से संयम की प्रस्तुति करें और यह प्रतिपादित करें कि संयम से मानसिक समस्याओं के साथ-साथ भौतिक समस्याएं भी सुलझती हैं? जब नियम (उपासना पक्ष) प्रधान बनता है और संयम गौण होता है, तब धर्म का क्षेत्र निस्तेज Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति होता है और जब संयम प्रधान और नियम गौण होता है तब धर्म तेजस्वी बनता है। २३. तप एक आदमी चला जा रहा था। जेठ की दुपहरी थी। चिलचिलाती धूप और अंगारे बरसाती लू। उसका शरीर तप उठा। उसने सोचा, यह सूर्य नहीं होता तो दुनिया कितनी सुन्दर होती? वर्षा ऋतु आयी। आकाश बादलों से घिर गया। भूमि जलजलाकार हो गई। कई दिन बीत गए, बादलों ने आकाश को मुक्ति नहीं दी। सूर्य का सम्बन्ध भूलोक से विच्छिन्न हो गया। न पूरा प्रकाश, न धूप और लू । वही आदमी वैद्य के पास पहुंचा। वैद्य के पूछने पर बोला, 'महाराज! पाचन बिगड़ गया है, इसलिए दवा लेने आया हूं। वैद्य ने कहा, 'सेठजी! यह बदलाई मौसम है, सूर्य भगवान् की रश्मियां भूलोक पर नहीं पहुंचती हैं। इससे अग्नि मंद हो जाती है, कृपया कुछ कम खाया करें।' सेठ दवा लिये बिना ही लौट गया। वह मन-ही-मन सोचता जा रहा था कि सूर्य नहीं होता तो यह दुनिया कितनी भयंकर होती! सूर्य हमारी प्राणशक्ति का स्रोत है। क्या तपस्या हमारी प्राणशक्ति का स्रोत नहीं है? जो मनुष्य कम खाता है, वह जितना स्वस्थ, संतुलित और प्रसन्न होता है, उतना वह नहीं होता जो बहुत खाता है। कम खाना तप है। आचारांग में लिखा है- 'भगवान् महावीर रुग्ण नहीं थे, फिर भी कम खाते थे।' मैं इस तथ्य को इस भाषा में प्रस्तुत करना चाहता हूं कि भगवान् कम खाते थे, इसीलिए स्वस्थ थे। उपवास को चिकित्सा पद्धति का रूप मिल चुका है। किन्तु वह केवल शारीरिक चिकित्सा पद्धति नहीं है। उससे चिर अर्जित मानसिक मल भी विसर्जित होते हैं। उपवास एक तप है। महात्मा गांधी ने अस्वाद को एक व्रत माना था। जो आदमी अपनी जीभ को जीत लेता है, उसे पराजित करने की क्षमता किसी भी इन्द्रिय में नहीं होती। अस्वाद महान् तप है। हमारा शरीर बहुत चंचल है। हमारी इन्द्रियां बहुत चंचल हैं। हमारा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग ११३ मन बहुत चंचल है। बन्दर बहुत चपल होता है। उसका स्थिर-शान्त बैठ जाना भी एक प्रकार की चपलता है। हमारी चपलता बन्दर की भांति स्वाभाविक नहीं, किन्तु कार्य-हेतुक है। हमारे शरीर की स्थिरता सधती है, वह तपस्या है। तपस्या केवल शारीरिक ही नहीं होती, वाचिक और मानसिक भी होती है। तपस्या की भूख से अनुबन्ध नहीं है। हमारा मन पवित्र होता है तो हम खाकर भी तपस्या कर सकते हैं। मन की अपवित्रता में भूखे रहकर भी तपस्या नहीं कर पाते। वे प्राणी बहुत भाग्यशाली हैं, जिन्हें पाणि प्राप्त है। वे अधिक भाग्यशाली हैं, जिन्हें वाणी प्राप्त है। वाणी के द्वारा हम बाह्य जगत् से सम्पर्क स्थापित करते हैं। यदि वाणी नहीं होती तो अभिव्यक्ति का क्षेत्र बहुत संकुचित होता। हम वाणी के द्वारा स्वाध्याय करते हैं। स्वाध्याय का अर्थ होता है, एक व्यक्ति को प्राप्त सत्य या अनुभूति का हजारों-हजारों लोगों द्वारा अभिवरण। यह वाचिक तप है। प्रणालिका जल को खेत तक पहुंचा देती है। वह मात्र माध्यम है। मूल है जल की सत्ता। कुएं में जल होता है, प्रणालिका उसे खेत तक पहुंचाती है। वाणी एक माध्यम है। उसका आकर मन और बुद्धि है। ध्यान मानसिक तप है। अनुप्रेक्षा बौद्धिक तप है। सूर्य से हमारी प्राणशक्ति को पोष मिलता है। तपस्या से हमारी आत्म-शक्ति को पोष मिलता है। गीता में कहा है-'यह शरीर है। इन्द्रियां शरीर से अग्रणी हैं, मन इन्द्रियों से अग्रणी है, बुद्धि मन से अग्रणी है, और आत्मा बुद्धि से अग्रणी है।' कोरा शरीर तपता है तब अहं बढ़ता है। शरीर और इन्द्रियां-दोनों तपते हैं तब संयम बढ़ता है। शरीर, इन्द्रिय और मन तीनों तपते हैं, तब आत्मा का द्वार खुलता है। शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि चारों तपसे हैं, तब आत्मा का साक्षात होता है। यह वह भूमिका है, जिसमें तपस्या स्वयं कृतकृत्य हो जाती है। २४. त्याग मैं एक मन्दिर में बैठा था। संध्या की वेला थी। पुजारी आया। दीप . जला, भगवान् की आरती की। दीप को दीवट पर लाकर रख दिया। मैं Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति दीवट के सहारे बैठा था। अब मैं देखता हूं पतली-सी दीपशिखा पवन के इशारे पर इधर-उधर घूम रही है। उससे एक बहुत पतली-सी धूमशिखा निकल रही है। मैंने मन-ही-मन सोचा, त्याज्य को त्यागना अनिवार्य है। दीप इसीलिए प्रकाश दे रहा है कि वह त्याज्य को त्याग रहा है। हम प्रातःकाल घूमने जाते हैं। चलते-चलते पूरक करते हैं-धीमे-धीमे प्राणवायु को भरते हैं। फिर उसका रेचन करते हैं-बहुत धीमे-धीमे उसे छोड़ते हैं। हम केवल प्राणवायु को ही नहीं छोड़ते, उसके साथ दूषित वायु या कार्बन को भी छोड़ते हैं। हम इसीलिए स्वस्थ हैं कि त्याज्य को त्यागना जानते हैं। जीवन का सूत्र है-काम में लो और त्याग दो। जो इस सूत्र से परिचित हैं, उनके जीवन में प्रकाश है, सुख है और स्वास्थ्य है। जो इस सूत्र से परिचित नहीं हैं, केवल लेना जानते हैं, भोग करना जानते हैं, किन्तु त्याग करना नहीं जानते, उन्हें न प्रकाश प्राप्त है, न सुख और न स्वास्थ्य। जो धन का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे प्रकाश की उपेक्षा कर धुएं को अपने भीतर संचित कर रहे हैं। जो सत्ता का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे स्वास्थ्य की उपेक्षा कर दूषित वायु को अपने भीतर संचित कर रहे हैं। त्याग की प्रतिध्वनि केवल अध्यात्म के मन्दिर में ही नहीं हो रही है, व्यवहार के कण-कण में भी त्याग प्रतिबिम्बित हो रहा है। - यदि मनुष्य त्याग की सत्ता से परिचित नहीं होता तो वह स्वतंत्र और सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। दशार्णभद्र दशार्णपुर का राजा था। वह भगवान् महावीर को वन्दना करने आया। उसे अपने वैभव पर गर्व हो रहा था। इन्द्र भी भगवान को वन्दना करने आया। उसका वैभव देख दशार्णभद्र लज्जित हो गया। गर्व का पारा नीचे को देख चढ़ता है और ऊपर को देख उतर जाता है। दशार्णभद्र के गर्व का पारा सहसा उतर गया। अब उसके सम्मान की सुरक्षा संभव नहीं रही। दशार्णभद्र ने उस राज्य-सत्ता को त्याग दिया, जो प्रकाश पर आवरण डाल रही थी। उसके आत्मिक वैभव के सामने इन्द्र का सिर झुक गया। भोग से शौर्य का दीप बुझता है और त्याग से वह प्रज्वलित होता Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ११५ है। भोग से जीवन का फूल मुरझाता है और त्याग से वह खिलता है। दशार्णभद्र ने राज्यसत्ता को ही नहीं त्यागा, उसकी वासना को भी त्याग दिया। विषय दुनिया के अंचल में है और वासना हमारे मन के कोने में है। विषय को त्यागकर हम वासना की जड़ को उखाड़ने के लिए आगे बढ़ें, वह त्याग है। विषय को त्यागकर यदि हम वासना को उद्दीप्त कर डालें तो वह त्याग नहीं, त्याग का आभास है। सच यह है कि हम लोग विषय को त्यागने की बात जितनी जानते हैं, उतनी वासना को त्यागने की बात नहीं जानते। इसीलिए हम बहुत बार त्याग करके भी अत्याग की अनुभूति करते हैं। ___ त्याग तभी होता है, जब अनुराग का स्रोत बाहर से मुड़कर भीतर बहने लग जाता है। एक व्यक्ति ने आवेगों को सहलाते हुए कहा-'बन्धुवर क्रोध! तुम अपना दूसरा घर ढूंढ़ लो। भाई मान! तुम भी चले जाओ। देवी माया! तुम यहां नहीं रह सकती। मित्र लोभ! तुम भी चले जाओ। मेरे अनुराग का स्रोत अब भीतर प्रवाहित होने लगा है। इसलिए वह और तुम एक साथ नहीं रह सकते।' । वासना को देखते रहो, उसकी सत्ता हिल उठेगी और विषय की आसक्ति अपने आप विलीन हो जाएगी। २५. ब्रह्मचर्य ___ एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा-'मेरे पास कुछ भी नहीं है।' उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा-'जाओ, सामने नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।' वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा--'यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।' वह बहुत प्रसन्न हुआ। संन्यासी को प्रणाम कर वह वहां से चला। थोड़ी दूर जाने पर उसके मन में एक विकल्प उठा-पारसमणि ही यदि सबसे बढ़िया होता तो संन्यासी इसे क्यों छोड़ता? संन्यासी के पास इससे भी बढ़िया कोई वस्तु है। वह फिर आया और प्रणाम कर बोला- 'बाबा! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।' Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सकता से अधिक कोआपत्ति नहीं होना है। आ ____पारस को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती। अध्यात्म ही एक ऐसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि से पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है। काम-भोग को आप पारसमणि मान लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, किन्तु वह सबसे बढ़िया नहीं है, सुखानुभूति का सर्वाधिक साधन नहीं है। आनन्द के स्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे की ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था। - उपनिषद् के ऋषियों ने गाया-आनन्दं ब्रह्म! आनन्द ब्रह्म है। यदि आनन्द नहीं होता तो हमारा जीवन बुझी हुई ज्योति जैसा होता। हमारे शरीर में से एक रश्मिपुंज प्रसृत हो रहा है। हमारी आंखों में प्रकाश तरंगित हो रहा है। यह सब क्या है? हमारे आनन्द की अभिव्यक्ति है। हमारे चेतना में आनन्द का सिन्धु लहरा रहा है। हमारा मन आनन्द की खोज में बाहर दौड़ रहा है। ठीक कस्तूरी मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और वह कस्तूरी की खोज में मारा-मारा फिर रहा है। विषयों की अनुभूति में सुख नहीं है, ऐसा मेरा अभिमत नहीं है। विषयों से प्राप्त होने वाला सुख असीम नहीं है, शारीरिक तथा मानसिक अनिष्ट की परिणति से मुक्त नहीं है। चेतना में आनन्द सहज स्फूर्त है, असीम है और उसके परिणाम में ग्लानि की अनुभूति नहीं है। कुछ मानसशास्त्रियों का मत है कि ब्रह्मचर्य इच्छाओं का दमन है और इच्छाओं का दमन करने से आदमी पागल बनता है। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचर्य निषेधात्मक प्रवृत्ति है। इसलिए उसकी उपादेयता में उन्हें विश्वास नहीं है। भारतीय चिन्तन इससे भिन्न रहा है। भारतीय मनीषी ब्रह्मचर्य को सृजनात्मक शक्ति मानते हैं। उसमें निषेध केवल बाह्य उद्दीपनों का है। वह आन्तरिक चेतना के विकास और मुक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली साधन है, इसलिए उसकी सृजनात्मक शक्ति बहुत व्यापक है। योग के आचार्यों ने हमारे शरीर में सात चक्र माने हैं। उनमें दूसरे चक्र का नाम स्वाधिष्ठान है। यह काम-चक्र है। यह चक्र विकसित नहीं होता तब मनुष्य वासना में रस लेता है। इस चक्र को हम विशुद्धिचक्र (कण्ठ-मणि) से संपृक्त कर देते हैं, तब हमारी आनन्दानुभूति का Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला और कलाकार ११७ स्रोत बदल जाता है। हम आज्ञा-चक्र या भ्रू-चक्र को विकसित कर लेते हैं; तब हमारी आनन्दानुभूति का मार्ग बदल जाता है। मानसशास्त्र के अनुसार काम का उदात्तीकरण होता है। योगशास्त्र के अनुसार काम-चक्र का ऊर्चीकरण होता है। इस ऊर्वीकरण से हमारे मन का सहज आनन्द के साथ सम्पर्क स्थापित हो जाता है। सुखानुभूति के द्वार को बन्द कर कोई आदमी ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। किन्तु आनन्दानुभूति के द्वार को खोलकर ही ब्रह्मचारी बन सकता है। २६. कला और कलाकार बहुत अच्छा होता यदि मैं कलाकार होता और कला पर प्रकाश डालता। पर मैं कलाकार नहीं हूं, साधक हूं। साधक भी संयम का हूं, कला का नहीं। मैं व्यापक दृष्टि से सोचता हूं, तो पाता हूं कि जिस व्यक्ति के पास वाणी है, हाथ है, अंगुली है, पैर है, शरीर के अवयव हैं, वह कलाकार है। इस परिभाषा में कौन कलाकार नहीं है? हर व्यक्ति कलाकार है। मैं भी कलाकार हूं। मनुष्य के अभिव्यक्ति या आत्मख्यापन की प्रवृत्ति आदिकाल से रही है। वह अव्यक्त से व्यक्त होना चाहता है। यह नहीं होता तो वाणी का विकास नहीं होता। यदि यह नहीं होता तो मनुष्य का चिन्तन वाणी के द्वारा प्रवाहित नहीं होता। अव्यक्त का व्यक्तीकरण और सूक्ष्म का स्थूलीकरण क्या कला नहीं है? उपनिषद् के अनुसार सृष्टि का आदि-बीज कला है। ब्रह्म के मन में आया-मैं व्यक्त होऊं। वह नाम और रूप के माध्यम से व्यक्त हुआ। सृष्टि और क्या है? नाम और रूप ही तो सृष्टि है। जिसमें अभिव्यक्ति का भाव हो और जो उसे व्यक्त करना जानता हो, वही कलाकार है। __कलाकार पहले रेखाएं खींचता है, फिर परिष्कार करता है। कभी-कभी परिष्कार में मूल रूप ही बदल जाता है। मकान का परिष्कार होता है। हर कृति का परिष्कार होता है। परिष्कार विकास का लक्षण है। कला में हाथ, अंगुली, पैर, इन्द्रिय और शरीर का प्रयोग होता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भगवान् ने हमें पाठ दिया कि हाथ का संयम करो। पैर का संयम करो। वाणी का संयम करो। इन्द्रियों का संयम करो। ___कला का सूत्र है, आंख खोलकर देखो। संयम का मूल सूत्र है, आंख मूंदकर देखो। कला की पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति है। संयम अभिव्यक्ति की ओर प्रेरित करता है। दोनों में सामंजस्य प्रतीत नहीं होता। हर वस्तु में विरोधी युगल होते हैं। एक परमाणु में भी अनन्त विरोधी युगल हैं। जिसमें ये नहीं होते, उसका अस्तित्व नहीं होता। कला और संयम में भी सामंजस्य है। कला का अर्थ है सामंजस्यपूर्ण प्रवृत्ति। मुझे स्याद्वाद की दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं सापेक्ष दृष्टि से देखता हूं कि कला का विकास सामंजस्य से हुआ है। सत्य कला से विराट् है। सत्य के साथ कला का योग होने से जीवन विकासशील बन जाता है। अगरबत्ती को अग्नि मिलने से सुगन्ध फूट पड़ती है। सत्य और सौन्दर्य का योग होने से जीवन का विकास हो जाता है। जीवन-विकास और कल्याण में अन्तर नहीं है। कल्याण यानी शिव। हमारा शिव सत्य और सौन्दर्य के बीच होना चाहिए। जीवन की पृष्ठभूमि में शिव और आंखों के सामने सौन्दर्य हो तभी सत्यं, शिवं, सुन्दरं की समन्विति हो सकती है। २७. आस्था का एकांगी अंचल हमारे कुछ तत्त्ववेत्ता छिलके को समाप्त कर गूदे की निष्पत्ति चाहते हैं। किन्तु प्रश्न होता है, क्या यह सम्भव है? क्या आपने कोई ऐसा फल देखा है कि उसमें गूदा है और उस पर छिलका नहीं है? मैं जहां तक जान पाया हूं, गूदे की निष्पत्ति के लिए छिलके का होना अनिवार्य है। इस अनिवार्यता का अस्वीकार वस्तुस्थिति का अस्वीकार है। आप सब्जीमण्डी में जाते हैं और संतरे खरीदते हैं। एक किलो संतरे में लगभग आधा किलो छिलके होते हैं। आप छिलके नहीं खाते, उन्हें डाल देते हैं। छिलके डालने होंगे, यह जानते हुए भी आप छिलके-सहित संतरे खरीदते हैं और दुकानदार को एक किलो संतरे के दाम चुकाते हैं। संतरों की फांके छिलकों के बिना सुरक्षित नहीं रहतीं, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्था का एकांगी अंचल ११६ इस बुद्धि से आप उनकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं और उनका मूल्य चुकाते हैं। आप छिलके को फेंक देते हैं पर उसे तभी फेंकते हैं, जब संतरा खाने को प्रस्तुत होते हैं। मैं छिलके की तुलना बाह्य चर्या या क्रिया से कर रहा हूं और गूदे की तुलना आत्मानन्द या आत्मानुभूति से कर रहा हूं। आत्मानुभूति पहले ही पदन्यास में परिपक्व नहीं हो जाती। मैं जातना हूं कि बाह्यचर्या आत्मानुभूति नहीं है। किन्तु बाह्यचर्या आत्मानुभूति की परिपक्वता का निमित्त नहीं है, यह मानने के लिए मुझे कोई पुष्ट हेतु प्राप्त नहीं है। मैं मानता हूं कि छिलका त्याज्य है। किन्तु क्या आप नहीं मानेंगे कि फल का परिपाक होने से पूर्व वह त्याज्य नहीं है? समुद्र के तट पर पहुंच जाने वाले हर यात्री के लिए जलपोत त्याज्य है, किन्तु समुद्र के मध्य में चलने वाले यात्री के लिए वह त्याज्य कैसे हो सकता है? क्या हम इसे स्वीकार करेंगे कि समुद्र का पार करने के लिए जलपोत का कोई उपयोग नहीं है? हेय और उपादेय की भूमिका एक और निरपेक्ष नहीं होतीं, वे अनेक और सापेक्ष होती हैं। आत्मानुभूति की भूमिका में आरूढ़ व्यक्ति के लिए बाह्यचर्या का उपयोग समाप्त हो जाता है। पर आत्मानुभूति की भूमिका में आरोहण करने वाले व्यक्ति के लिए उसकी उपयोगिता को कैसे नकारा जा सकता है? समय से पूर्व छिलका उतार लेने पर फल का परिपाक रुक जाता है। समय से पूर्व जलपोत छोड़ देने पर आदमी डूब जाता है। आचार्य रजनीश तथा कानजी स्वामी जिस तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं, उसकी तुलना निम्न निदर्शनों से की जा सकती है कि छिलका अनावश्यक है और तैरने की शक्ति हमारे हाथों में है, इसलिए जलपोत भी हमारे लिए आवश्यक नहीं है। क्या मैं कहं कि उनके इस प्रतिपादन में सचाई नहीं है? क्या किसी स्याद्वादी के लिए ऐसा कोई प्रतिपादन है, जिसमें सचाई का अंश न हो। इस प्रतिपादन में सचाई है पर उसका सम्बन्ध हमारे अस्तित्व की व्याख्या से है, उसकी उपलब्धि से नहीं है। चैतन्य की सत्ता ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति से पूर्ण है। वह प्रारम्भ में अव्यक्त होती है। साधना के द्वारा उसकी क्रमिक अभिव्यक्ति होती है। साधना के तीन अंग हैं : Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति १. सम्यक् दर्शन २. सम्यक् ज्ञान ३. सम्यक् चारित्र इनमें सम्यक् दर्शन आधारभूत है। उसकी उपलब्धि होने पर सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र उपलब्ध होते हैं। उसकी अनुपलब्धि में दोनों (सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) उपलब्ध नहीं होते। किन्तु इस पौर्वापर्य का यह अर्थ नहीं कि सम्यक् दर्शन होने पर सम्यक् ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान की परिपूर्णता के बीच हजारों योजनों की दूरी है। सम्यक दर्शन की उपलब्धि होने पर ज्ञान का मिथ्यात्व मिट जाता है। पर उसका आवरण सर्वथा क्षीण नहीं होता। ज्ञान की निरावरण दशा सम्यक चारित्र से निष्पन्न होती है। सम्यक दर्शन होने पर सम्यक चारित्र के पौर्वापर्य का यह अर्थ नहीं कि सम्यक् दर्शन होने पर सम्यक् चारित्र अपने आप हो जाता है। सम्यक् चारित्र आत्मा की स्वकेन्द्रित परिणति होने पर प्राप्त होता है। यदि आत्मदर्शन और आत्मरमण की परिणति एक ही होती तो हर आत्मदर्शी व्यक्ति निरावरण और निष्कषाय हो जाता। किन्तु ऐसा नहीं होता। सम्यक दर्शन की उपलब्धि हो जाने पर भी कषाय क्षीण नहीं होता और कषाय की सत्ता में ज्ञान का आवरण क्षीण नहीं होता। यदि सम्यक् दर्शन उपलब्ध होने पर शेष सब कुछ उपलब्ध हो जाता तो साधना की लम्बाई सिमट जाती। किन्तु वास्तविक जगत् में ऐसा नहीं है। सम्यक् दृष्टि की उपलब्धि हो जाने पर भी साधना की लम्बाई शेष रहती है। सम्यक् दर्शन की पूर्णता होने पर भी सम्यक् ज्ञान की पूर्णता नहीं होती। सम्यक् ज्ञान की पूर्णता होने पर भी संवर की पूर्णता नहीं होती और संवर की पूर्णता हुए बिना मुक्ति नहीं होती। सम्यक् दर्शन की पूर्णता होते ही सम्यक् ज्ञान और संवर की पूर्णता हो जाती है, यह नियम नहीं है, किन्तु नियम यह है कि संवर की पूर्णता सम्यक ज्ञान की पूर्णता और सम्यक् ज्ञान की पूर्णता सम्यक् दर्शन की पूर्णता प्राप्त हुए बिना नहीं होती। भगवान् महावीर को सम्यक् दर्शन प्राप्त था। सम्यक् चारित्र प्राप्त होने पर भी भगवान् ने साढ़े बारह वर्षों तक तपश्चर्यापूर्वक साधना की थी। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्था का एकांगी अंचल १२१ .. सम्यक् दर्शन प्राप्त होने पर उपवास, सामायिक आदि आवश्यक नहीं होते। परम्परा, शास्त्र आदि सब व्यर्थ हैं-इस प्रकार की निरूपणा के द्वारा व्यक्ति को क्रिया से विमुख तथा परम्परा और शास्त्रों के प्रति अनास्थावान किया जा सकता है किन्तु उसकी सृजनात्मक चेतना को स्फूर्त नहीं किया जा सकता। सृजनात्मक चेतना के निर्माण के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की समन्वित स्थिति आवश्यक है। उसके व्याख्यासूत्र का प्रथम अंश यह होगा कि मनुष्य छिलके में ही उलझा न रहे। वह गूदे तक पहुंचे और उसकी रसानुभूति प्राप्त करे। उसका द्वितीय अंश यह होगा कि मनुष्य छिलके की उपयोगिता को अस्वीकार न करे। आवरण की भूमिका में निरावरण का समारोप न करे। एक ओर कुछ लोग केवल व्यवहार की भूमिका पर विहार कर रहे हैं। वे निमित्त के सामने उपादान की तथा पर्यावरण के सामने अन्तरात्मा की सत्ता को दृष्टि से ओझल किए हुए हैं। दूसरी ओर कुछ लोग वे हैं, जो वास्तविकता की भूमि पर पैर टिकाए खड़े हैं। उनका मानना है कि उपादान और अन्तरात्मा की सत्ता ही सब कुछ है। निमित्त और पर्यावरण की कोई उपयोगिता नहीं है। ये दोनों सत्य के अन्तिम छोर हैं। ये परस्पर संपृक्त नहीं हैं, इसलिए खण्डित सत्य हैं। अखण्ड सत्य यह है कि निमित्त के प्रभाव-क्षेत्र में रहने वाला हर उपादान निमित्त से प्रभावित होता है और निमित्त के प्रभाव-क्षेत्र से मुक्त रहने वाला निमित्त से प्रभावित नहीं होता। पहली सांयोगिक अवस्था है और दूसरी स्वाभाविक। जो लोग एकांगी प्रतिपादन करते हैं, वे सांयोगिक अवस्था में स्वाभाविक अवस्था का आरोपण करते हैं। स्वाभाविक अवस्था तक पहुंचना हमारा साध्य है किन्तु वह वर्तमान में हमारे लिए सिद्ध नहीं है। अभी हम सांयोगिक अवस्था में हैं। स्वाभाविक अवस्था की उपलब्धि के बाद हम निमित्त से प्रभावित नहीं होंगे। किन्तु सांयोगिक अवस्था में रहते हुए निमित्त से प्रभावित नहीं होंगे, इस मान्यता में समारोपण है, वास्तविकता नहीं है। ___मनुष्य में प्रतिक्रियात्मक मनोवृत्ति अधिक होती है। साधारण व्यक्ति के लिए सूक्ष्म तक पहुंचना सुलभ नहीं होता, इसलिए वह स्थूल के प्रति अधिक आग्रही होता है। विकासशील व्यक्ति स्थूल में बहुत सार नहीं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति देखता, इसलिए वह सूक्ष्म के प्रति आग्रही होता है। जब सूक्ष्म की उपासना अधिक हो जाती है, तब मनुष्य का झुकाव स्थूल की ओर होने लगता है। जब स्थूल की उपासना अधिक होने लगती है तब मनुष्य का झुकाव सूक्ष्म की ओर होने लगता है। ये दोनों एकांगी आचरण की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियां हैं। इनसे बचने का उपाय है, सूक्ष्म और स्थूल का संतुलित उपयोग। साध्य साधनों की अपेक्षा सूक्ष्म, दूरगामी और दुर्लभ होता है। स्थूलतम से स्थूलतर और स्थूल तक पहुंचने के बाद हम एक नया मोड़ ले लेते हैं और सूक्ष्म की भूमिका में पहुंच जाते हैं। ___ अग्नि की उपासना करने वाला शीतलता की अनुभूति नहीं कर सकता, क्योंकि शीतलता और उष्णता परस्पर विरोधी धर्म हैं। फिर अन्धकार की उपासना करने वाला प्रकाश कैसे पा सकता है? हमारी आत्मा का शुद्ध रूप अक्रियात्मक है। वही हमारा साध्य है। क्रिया अक्रिया की विरोधी है। इस स्थिति में हम अक्रियात्मकता की ओर कैसे बढ़ सकते हैं? जो जिसका साधन नहीं उसके द्वारा हम साध्य की सिद्धि कैसे कर सकते हैं। यदि क्रियात्मकता अक्रियात्मकता की उपलब्धि का साधन हो तो फिर उनमें कोई स्वरूप-भेद ही नहीं रहेगा। इस प्रश्न-पद्धति पर कटाक्ष करना कठिन है। अन्धकार से प्रकाश मिल सकता है, इसकी पुष्टि के लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं है। किन्तु क्रिया और अक्रिया में आत्यन्तिक विरोध ही है, यह मुझे स्वीकार नहीं है। अक्रिया का अर्थ क्रियान्तर है किन्तु अभावात्मकता नहीं है। जिसका अस्तित्व है, वह निष्क्रिय नहीं हो सकता और जो निष्क्रिय है, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। अस्तित्व और निष्क्रियता में आत्यन्तिक विरोध है। सत् का लक्षण है सक्रियता। सक्रियता के बिना सत् की व्याख्या ही नहीं की जा सकती। मुक्त होने पर आत्मा निष्क्रिय नहीं होती, सक्रिय रहती है। उसे अक्रिय अमुक-अमुक क्रिया से मुक्त होने के कारण कहा जाता है। मुक्त आत्मा खाने की क्रिया से मुक्त हो जाने के कारण अक्रिय हो जाती है, किन्तु ज्ञानात्मक प्रवृत्ति की निरंतरता के कारण वह सतत सक्रिय रहती है। प्यास के अभाव में वह जलपान के सुख से वंचित हो जाती है, किन्तु सहज आत्मानन्द से वह कभी वंचित नहीं होती। हमारा अस्तित्व क्रियाशील है और वह हर स्थिति में क्रियाशील Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा १२३ रहेगा । क्रियाशीलता हमारा सहज स्वभाव है । उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा । परिवर्तन केवल क्रियाओं में हो सकता है । एक क्रिया समाप्त होती है और दूसरी क्रिया प्राप्त होती है, तब पूर्व क्रिया की अपेक्षा हम उत्तरवर्ती परिणति को अक्रिया कह देते हैं । क्रिया की इस व्यापक समझ के बाद हम सत्य के इस द्वार तक पहुंच जाते हैं कि क्रिया बन्धन का ही हेतु नहीं है, वह मुक्ति का भी हेतु है । वह केवल अन्धकार ही नहीं है, प्रकाश भी है। उक्त चर्चा को हम इस भाषा में भी समेट सकते हैं कि अमुक प्रकार की सक्रियता ( मुक्त अवस्था) को अमुक प्रकार की सक्रियता से साध सकते हैं । यह सिद्धान्त अक्रिया से अक्रिया की उपलब्धि का नहीं किन्तु अमुक प्रकार की सक्रियता से अमुक प्रकार की सक्रियता की उपलब्धि का है । इसमें क्रिया का सर्वथा प्रतिषेध नहीं होता । किन्तु क्रिया की अमुक श्रेणी का प्रतिषेध होता है । अर्थात् साध्य की प्रतिपक्षी सक्रियता का प्रतिषेध और साध्यानुकूल सक्रियता का स्वीकरण होता है । पवित्र क्रिया को आत्म-पवित्रता की प्रतिपक्ष कोटि में नहीं रखा जा सकता, इसलिए क्रिया हमारे जगत् में सर्वथा परिहार्य नहीं है। सूक्ष्म क्रिया की उपलब्धि होने पर स्थूल क्रिया स्वयं निवृत्त हो जाती है । किन्तु सूक्ष्म क्रिया की उपलब्धि से पूर्व स्थूल क्रिया को छोड़ने का प्रयत्न आत्मघाती हो सकता है । २८८ सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा उन लोगों में सत्य की जिज्ञासा का दीप बुझ चुका है, जो मानते हैं कि हम वही कहें जो कहते आए हैं, वही करें जो करते आए हैं । ऐसा मानने वाले सत्य को पा चुके हैं। उनके लिए अब कुछ शेष नहीं है - सत्य प्राप्य नहीं है । किन्तु प्रश्न होता है- क्या हम अशेष सत्य को पा चुके हैं? यदि पा चुके हैं तो हमारे लिए साधना अपेक्षित नहीं है । साधना की अपेक्षा यही तो है कि हम प्राप्त सत्य को स्वीकार करें और अप्राप्त सत्य के लिए चलें । धार्मिक जगत् में एक बहुत बड़ी आत्म-भ्रान्ति पनपी है । उसका आधार है आग्रह | अपनी मान्यता के प्रति वह आग्रह इस आकार में हो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति कि मैं मानता हूं वह सत्य है, तो फिर वह निरापद भी हो सकता है किन्तु मैं मानता हूं उसके सिवा शेष सब मानते हैं वह असत्य है-यह आकार निरापद नहीं है। आज अधिकांशतः यही आकार चल रहा है। इसीलिए सम्प्रदाय परस्पर विरोधी बन रहे हैं। सम्प्रदाय परम्परा के वाहक होते हैं। प्रभावशाली आचार्य की विचारधारा का आकार सम्प्रदाय और उसका अनुगमन परम्परा हो जाती है। हर सम्प्रदाय और परम्परा का सत्यांश से सम्बन्ध होता है। कोई सत्य से अधिक सम्बद्ध होता है और कोई कम। किन्तु पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति तो व्यक्ति के आत्मोदय में ही होती है। सत्य-जिज्ञास मुख्य रूप से साध्योन्मुख होता है और गौण-रूप से साधनोन्मुख। साम्प्रदायिक व्यक्ति मुख्य रूप से साधनोन्मुख होता है और गौण-रूप से साध्योन्मुख। सम्प्रदाय में रहने वाला कोई सत्य-जिज्ञासु नहीं होता और सम्प्रदाय में न रहने वाला कोई आग्रही या रूढ़ नहीं होता, यह मानना भी भ्रान्ति है। यदि सम्प्रदाय और सत्य-जिज्ञासा में विरोध होता तो आज तक या तो सम्प्रदाय का अस्तित्व मिट जाता या सत्य-जिज्ञासा निश्शेष हो जाती। दोनों का अस्तित्व है। इसका अर्थ है कि सम्प्रदाय और सत्य-जिज्ञासा में विरोध नहीं है। सम्प्रदायों में इसलिए विरोध नहीं है कि वे भिन्न विचारधारा के पोषक हैं किन्तु विरोध इसलिए है कि उनका अनुगमन करने वालों में सत्य की जिज्ञासा कम है। ___यदि हम चाहते हैं कि सम्प्रदायों में समन्वय हो, सामंजस्यपूर्ण स्थिति हो, मैत्री हो तो हमें इस चाह से पहले यह चाह करनी चाहिए कि साम्प्रदायिक लोगों में सत्य की जिज्ञासा प्रदीप्त हो। आज सत्य की जिज्ञासा कितनी मन्द है, इसे मैं जैन सम्प्रदायों की वर्तमान मनोदशा से ही व्यक्त करूंगा। ___आज जैन-साधुओं के आचार-व्यवहार में कोई थोड़ा-सा परिवर्तन होता है तो अनेक लोग संशयालु बन जाते हैं। उनके मुंह पर एक ही प्रश्न होता है-'यह कैसे हुआ? पहले तो ऐसा नहीं किया जाता था, अब कैसे किया जा रहा है? 'अब ऐसा करना उचित है या अनुचित'-यह प्रश्न कम होता है। उचित-अनुचित की मीमांसा की जा सकती है पर Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा १२५ 'पहले नहीं था और अब है' की कोई मीमांसा नहीं हो सकती। ___इस मनोदशा के कारण ही बहुत बार अपेक्षित परिवर्तन करने में भी जैन आचार्य सकुचाते हैं। परम्परा में प्राण हो, उसे बदलना बुद्धिमत्ता नहीं है, किन्तु निष्प्राण परम्परा को चलाते रहना भी बुद्धिमत्ता नहीं है। आज अनेक जैन मनीषी इस सन्देह-दशा को पाल-पोष रहे हैं कि प्रस्तुत अर्थ-परम्परा संगत नहीं है, फिर भी वे उसे बदलने में इसलिए सकुचाते हैं कि वह बहुत लम्बे समय से चलती आ रही है। जो परम्परा काल की लम्बी अवधि में पल-पुस जाती है, संस्कार की आंच में पक जाती है, वह शाश्वत सत्य जैसी अपरिवर्तनीय हो जाती है। किन्तु सत्य की मांग भिन्न है। कोई भी कृत नियम अनन्त या निरवधिक नहीं है। जो कृत है वह सावधिक है। निरवधिक वही है जो अकृत है-स्वाभाविक है। देश, काल और परिस्थिति के सन्दर्भ से मुक्त कोई परम्परा नहीं है। हम पर्युषण (सम्वत्सरी) पर विचार करें। पर्युषण ढाई हजार वर्ष पुरानी वर्षाकालीन स्थिति का सूचक है। आज उसके साथ अनेक कल्पनाएं जुड़ गई हैं। उन कल्पनाओं का परिणाम यह है कि आज वह विवादास्पद है। किसी परम्परा में उसके लिए चतुर्थी का दिन मान्य है तो किसी में पंचमी का और किसी में चतुर्दशी का। मान्य करने वाली परम्पराओं में भी कोई परम्परा उदित तिथि के अनुसार पंचमी को पर्युषण करता है तो कोई घड़ियों में आयी तिथि के अनुसार चतुर्थी को ही पर्युषण कर लेता है। पर्युषण का मूल तत्त्व कहीं रह गया है और वह कब होना चाहिए-यह प्रश्न मुख्य बन गया है। इस प्रकार न जाने और भी कितने प्रश्न, जो गौण थे वे मुख्य और जो मुख्य थे वे गौण बने हुए हैं। इन प्रश्नों का समाधान परम्परा को सत्य से सम्बद्ध करने पर ही प्राप्त हो सकता है। जो सत्य हमें कल तक नहीं मिला वह आज मिल सकता है और जो आज नहीं मिला, वह कल तक मिल सकता है। सत्य की शोध और उपलब्धि तब तक होती रहेगी जब तक मनुष्य का अस्तित्व रहेगा। उपलब्ध सत्य के प्रति हम जितने आस्थावान् हैं, उतने ही आस्थावान् अनुपलब्ध सत्य के प्रति रहें तो हमारी अनेक समस्याएं सुलझ जाएं। सत्य की उपलब्धि का राजपथ आध्यात्मिक चेतना का जागरण है। हमारी आध्यात्मिक अनुभूति जितनी तीव्र होगी, उतनी ही हमारी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति बुद्धि आग्रहहीन होगी। आग्रह से बढ़कर सत्य का कोई सघन आवरण नहीं है। वह आध्यात्मिक भावना से अपरिष्कृत बुद्धि में पलता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म-सम्प्रदायों में एकता हो, वैमनस्य का विसर्जन हो, तो आध्यात्मिक विकास की प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दें। उनका विकास चाहे-अनचाहे एकता या समन्वय का विकास है और उसका ह्रास चाहे-अनचाहे एकता या समन्वय का ह्रास है। २६. शाश्वत सत्य और युगीन सत्य जब से मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ है तब से सत्य की चर्चा चलती रही है। दर्शन की भूमिका पर सत्य की तीन धाराएं हैं-शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद और शाश्वत-अशाश्वतवाद। पहली धारा के प्रतिपादक कूटस्थ नित्यवादी हैं। वे मानते हैं-मूल तत्त्व नितान्त शाश्वत है, उसमें कहीं परिवर्तन का अवकाश नहीं है। दूसरी धारा के प्रतिपादक क्षणिकवादी हैं। उनके मतानुसार जो है वह सब प्रतिक्षण परिवर्तित होता है। तीसरी धारा के प्रतिपादक अनेकान्तवादी हैं। वे प्रत्येक तत्त्व को शाश्वत और अशाश्वत-इन दोनों रूपों में स्वीकार करते हैं। ___भाषा के प्रयोग में स्पष्टता देश, काल और व्यक्ति के सन्दर्भ में ही आती है। उनके बिना पूर्ण अर्थ नहीं मिलता। 'मैं जाऊंगा'-इसमें अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं है जब तक यह न कहूं कि मैं अमुक गांव जाऊंगा, अमुक समय में जाऊंगा। _ 'अमुक व्यक्ति यहां नहीं है'-इस वाक्य में उसका अस्तित्व तो है पर जिस क्षेत्र में हम उसे देखना चाहते हैं उस क्षेत्र में वह नहीं है, यह देशकृत अनित्यता है। 'अभी नहीं है'-यह कालकृत अनित्यता है। जो वस्तु देश और काल से अबाधित होती है, वह शाश्वत है। शाश्वत हर देश और हर काल में उपलब्ध होता है। जितने तत्त्व हैं वे सब शाश्वत हैं। दुनिया में जितना था उतना ही है और उतना ही रहेगा। न एक परमाणु घटता है और न एक परमाणु बढ़ता है। मूल तत्त्व शाश्वत है और विस्तार युगीन है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत सत्य और युगीन सत्य १२७ अधिकांश धार्मिक अपने नियमों को शाश्वत मानते हैं । चिंतन किए बिना हर वस्तु को शाश्वत कहा जा सकता है पर वस्तुवृत्या क्या कोई विस्तार शाश्वत होता है? हम कहते हैं- धर्म शाश्वत है । आखिर धर्म स्वयं में क्या है ? मनुष्य हर तथ्य को भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करता है । भाषा के आधार पर बने नियम और परिभाषा शाश्वत कैसे होगी, जबकि भाषा स्वयं अशाश्वत है ? शाश्वत वह है जो स्वाभाविक है । धर्म, जो आत्मा की सहज पवित्रता है, वह शाश्वत है। धर्म का प्रतिपादन करने के लिए जितनी परिभाषाएं और नियम बने हैं, वे शाश्वत कैसे हो सकते हैं? आज तक धर्म की जो परिभाषाएं बनी हैं, उनमें क्या कोई शाश्वत रही है? जो कृत होता है, वह शाश्वत नहीं होता। परिभाषाएं मनुष्यकृत हैं, इसलिए वे शाश्वत नहीं हो सकतीं। कहा जाता है- अहिंसा, सत्य आदि शाश्वत हैं । प्रश्न है अहिंसा है क्या? जहां आकार होता है, वहां शाश्वतता समाप्त हो जाती है । अहिंसा आत्मा की सहजता है, वह शाश्वत हो सकती है । संस्कार सदा अतीत की ओर ले जाता है । साम्यवादी, जो शास्त्र को नहीं मानते, वे भी शास्त्र की दुहाई देते हैं । महान् विचारक माओ कहते हैं - रूस संशोधनवादी हो गया है, क्योंकि वह लेनिन की विचारधारा से हट गया है। एक ओर वे शास्त्र को अस्वीकार करते हैं और दूसरी ओर उससे चिपके हुए हैं। चीन ने सामन्तशाही परम्परा को बदला, किन्तु उस परिवर्तन में जो सिद्धान्त काम में लिये गये उन्हें शाश्वत मान लिया । I शंकराचार्य ने शास्त्र - वासना को काम-वासना की कोटि में रखा है मनुष्य में शब्दों की पकड़ अधिक होती है । अतीत, अभ्यस्त और प्राचीन के प्रति मोह होता है । सद्यस्क के प्रति उतना लगाव नहीं होता, जितना चिरपुराण के प्रति होता है । वह वर्तमान में जीता है पर वर्तमान की अपेक्षा अतीत को अधिक देखता है। इसलिए जो युग - सत्य आता है उसे समझने में कठिनता होती है । जो वस्तु अपना कार्य कर चुकी, उसके प्रति हमारा सम्मान हो सकता है, पर उसकी नियामकता कैसे हो सकती है? जिसकी उपयोगिता समाप्त हो गई, उससे चिपके रहना बुद्धिमानी नहीं है। विकास उनमें होता है, जो परिवर्तन की बात सोचते हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मैं : मेरा मन मेरी शान्ति अशाश्वत को शाश्वत मान उसमें परिवर्तन नहीं करते वे रूढ़ बनकर कुछ खोते ही हैं। ३०. आग्रह और अनाग्रह विकास का पहला सूत्र है आग्रह और विकास का पहला सूत्र है अनाग्रह। अनाग्रह और आग्रह - दोनों अत्यन्त उपादेय हैं। अपनी-अपनी भूमिका में आग्रह के स्थान में अनाग्रह और अनाग्रह के स्थान में आग्रह होने पर विकास का क्रम रुक जाता है 1 आग्रह के समर्थन का स्वर कण-कण में मुखरित है। एक आदमी हिन्दुस्तान का नागरिक है । यदि उसके मन में हिन्दुस्तान की सुरक्षा के प्रति आग्रह नहीं होगा तो क्या हिन्दुस्तान की प्रभुसत्ता सुरक्षित रह जाएगी? एक आदमी की मातृभाषा बंगाली है । यदि उसके मन में बंगला भाषा के प्रति आग्रह नहीं होगा तो क्या उसका विकास सम्भव होगा? एक आदमी जाति से क्षत्रिय है । यदि उसके मन में क्षत्रिय जाति के प्रति आग्रह नहीं होगा तो क्या उस जाति का भविष्य बहुत उज्ज्वल रहेगा? एक आदमी जैन धर्म का अनुयायी है। यदि उसके मन में जैन धर्म के प्रति आग्रह नहीं होगा तो क्या उस धर्म का अस्तित्व प्रभावशाली बना रहेगा ? कोई भी मनुष्य किसी एक के प्रति आग्रही नहीं होगा तो वह किसी का नहीं होगा । उसका कोई देश, भाषा, जाति और धर्म नहीं होगा । वह किसी देश, भाषा, जाति और धर्म का होकर उसका भला नहीं कर सकेगा। इस सचाई के सन्दर्भ में आग्रह का होना अत्यन्त अनिवार्य है। पाकिस्तान के कर्णधार श्री जिन्ना के मन में पाकिस्तान के निर्माण का आग्रह नहीं होता तो विश्व के मानचित्र पर पाकिस्तान नामक राष्ट्र का अस्तित्व नहीं होता । दक्षिण वियतनाम और उत्तर वियतनाम की लड़ाई केवल वैचारिक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आग्रह के आधार पर चली है 1 साम्यवादी दल के दो गुट - दक्षिणपंथी और वामपंथी, केवल वैचारिक आग्रह के आधार पर हुए हैं। सारा विश्वास लोकतंत्री और साम्यवादी - इन दो खेमों में विभक्त है । उसका हेतु भी वैचारिक आग्रह है हुआ I आग्रह के इन विभिन्न स्वरों में सामंजस्य स्थापित करना और उनके औचित्य - अनौचित्य का निर्णय देना मतभेद से मुक्त नहीं है । प्रस्तुत प्रकरण में व्यावहारिक घटनाओं को एक ही कसौटी से कसने की मनोवृत्ति सर्वाधिक ही है आग्रह और अनाग्रह की सैद्धान्तिक स्थापना विवाद - बन्ध से उन्मुक्त हो सकती है । सत्य की खोज के लिए हमारी बुद्धि में अनाग्रह होना चाहिए किन्तु उपलब्ध सत्य के आचरण का आग्रह अवश्य होना चाहिए । ' ऐसा हुए बिना हम सत्य को जान सकते हैं, पा नहीं सकते । यदि सत्य के प्रति हमारा आग्रह हो तो हम समस्याओं का पार पा सकते हैं। ३१. अध्यात्म-बिन्दु अध्यात्म-1 -बिन्दु १२६ १. आकाश इतना ही नहीं है आकाश असीम है, इस सत्य से मैं परिचित हूं। फिर भी मैं उसे बांधने का प्रयत्न करता रहा हूं। मैंने आकाश को बांधा है, वह मेरा घर है । मेरे घर में आकाश है पर आकाश इतना ही नहीं है । वह मेरे घर से बाहर भी है । मेरा घर मुझे आश्रय देता है, धूप से बचाता है, सर्दी-गर्मी से सुरक्षा करता है, इसलिए मैं उसे अपना मानता हूं, उसकी सुरक्षा करता हूं। किन्तु मुझे यह मानने का कोई अधिकार नहीं कि दूसरे के घर में आकाश नहीं है । 1 धार्मिक वह है जिसमें सत्य की जिज्ञासा है । धार्मिक वह है जो सत्य की खोज करता है । धार्मिक वह है जो सत्य का आचरण करता है । जिसमें सत्य की जिज्ञासा नहीं है किन्तु वह धार्मिक है, इसका अर्थ हुआ कि लौ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति नहीं जलती किन्तु दीप प्रकाश कर रहा है। जिसमें सत्य को खोजने के वृत्ति नहीं है किन्तु वह धार्मिक है, इसका अर्थ हुआ कि मार्ग मिला ही नहीं किन्तु नगर मिल गया। जिसमें सत्य का आचरण नहीं है किन्तु वह धार्मिक है, इसका अर्थ हुआ कि पानी पिया ही नहीं किन्तु प्यास बुझ गई। २. दर्शन हम देखें और सोचें। जब हम देखते हैं तब सोच नहीं पाते और जब हम सोचते हैं तब देख नहीं पाते। जब हम निर्विचार होते हैं तब देखने की स्थिति में चले जाते हैं और जब हम देखते हैं तब अपने आप निर्विचार हो जाते हैं। विचार-संयम का स्वाभाविक सूत्र है-देखना। देखने में भाषा नहीं होती। सोचने में भाषा होती है। अभाषा. एक होगी, भाषा भिन्न होगी। गहरे निरीक्षण से एकाग्रता सहज ही सध जाती है। हम दूर को देखें या निकट को, शरीर के भीतर देखें या बाहरी वस्तु को, वह सब होगा वर्तमान। अतीत को नहीं देखा जा सकता और भविष्य को भी नहीं देखा जा सकता। ३. दृष्टि और कृति . ___ आज समूचा विश्व समस्याओं से ग्रस्त है। लगता है एक नाटक खेला जा रहा है। उसमें द्रष्टा नीचे दब गया है और दृश्य ऊपर आ गया है। यह सुषुप्ति की दशा है। मनुष्य जिस दिन जाग उठेगा, समस्या की गांठ खुल जाएगी। दृश्य का अस्तित्व सनातन है। उसका लोप नहीं होगा। उसके विलोप का प्रयत्न नहीं करना है। हमें जो करना है वह केवल द्रष्टा और दृश्य के सम्बन्ध का परिष्कार है। दृश्य की अनुभूति में द्रष्टा अपने अस्तित्व को विस्मृत कर देता है, यह अस्वाभाविक सम्बन्ध है। यही समस्याओं का मूल है। द्रष्टा की स्वानुभूति से दृश्य की अनुभूति संपृक्त होती है, यह सम्बन्ध की संगति है। द्रष्टा और दृश्य की विसम्बन्ध-दशा में मनुष्य जो देखता है वह करता नहीं है और जो करता है वह देखता नहीं है। वह मायावी दशा है। उसमें देखना और करना अलग-अलग हो जाते हैं। द्रष्टा और दृश्य की सुसम्बन्ध-दशा में मनुष्य जो देखता है, वही करता है और जो करता है Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-बिन्दु १३१ वही देखता है। यह ऋजुदशा है। इसमें देखना और करना अलग-अलग नहीं होते। ४. व्यक्तिवाद सूर्य! तुम मुझे प्रिय नहीं हो। ___ तुम प्रकाशात्मा हो। सारा भूमण्डल तुम्हारे प्रकाश से प्रकाशित हो उठता है। अंधकार विलीन हो जाता है। ___ तुम जागृतात्मा हो। तुम्हारे आने पर सोए आदमी जाग उठते हैं। नींद विलीन हो जाती है। . तुम अभयात्मा हो। तुम्हारे आने पर घरों के द्वार खुल जाते हैं। भय विलीन हो जाता है। तुम गति के प्रेरक हो। तुम्हारे आने पर आकाश पक्षियों से भर जाता है और पथ मनुष्यों से। निष्क्रियता सक्रियता में बदल जाती है। फिर भी तुम मुझे प्रिय नहीं हो और इसलिए नहीं हो कि तुम सारे ग्रहों पर आवरण डाल अकेले चमकना चाहते हो। समूचे समाज पर आवरण डालने वाला क्या कोई प्रिय हो सकता है? । सूर्य अकेला चमकना चाहता है, शायद वह क्रूर हो। कोई भी व्यक्ति क्रूर हुए बिना समाज का सर्वस्व अकेला बटोरना नहीं चाहता। इसलिए व्यक्ति में अहिंसा और अपरिग्रह का अनुबन्ध है। जिस व्यक्ति में अहिंसा का भाव नहीं होता-समानता का मनोभाव नहीं होता, वह संग्रह से विमुख नहीं हो सकता। संग्रह की प्रेरणा हिंसा है, विषमता है। ५. अपूर्णता का आनन्द यदि व्यक्ति पूर्ण हो जाए तो फिर पुरुषार्थ के लिए अवकाश कहां रहेगा? आग के लिए ईंधन आवश्यक है। यदि मनुष्य को भूख न लगे तो वह निकम्मा होकर पड़ा रहेगा। उसे भूख लगती है, इसलिए वह जागता है। मजदूर काम पर जाने के लिए जल्दी उठता है। अध्यापक पढ़ाने के लिए कॉलेज जाने की जल्दी में है। किसान सुबह खेत में जाता है। यदि व्यक्ति पूर्ण हो जाए तो सब निठल्ले हो जाएंगे। पुरुषार्थ का आधार है अपूर्णता। आनन्द अपूर्ण रहने में ही है, पूर्णता में नहीं। पूर्ण Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भगवान् को रहने दो, व्यक्ति के लिए अपूर्णता ही अच्छी है। यदि अपूर्णता नहीं होती तो समुदाय नहीं बनता। पण्डाल एक खंभे से खड़ा हो जाता तो इतने खंभों की आवश्यकता नहीं होती। यदि मनुष्य एक पैर से चलता तो दूसरे पैर की आवश्यकता नहीं होती। दूसरे की आवश्यकता है, यही सापेक्षता है। अपूर्णता के साथ सापेक्षता जुड़ी हुई है। आश्चर्य है कि व्यक्ति अपूर्ण होते हुए भी निरपेक्ष भाव से सोचता है। अपनी कोठी दस लाख की बनाता है। कोठी के बाहर पड़ोस में गन्दी नाली बहती है, उसकी उसे चिन्ता नहीं है। क्या वह उसकी गन्दी हवा से बच सकता है? ___ आजकल कोठी में रहने वाले बन्द खिड़की में रहते हैं, क्योंकि प्रकाश बिजली से और हवा पंखे से मिल जाती है। वे जनता के साथ सम्पर्क नहीं रखते। आज व्यक्ति इतना व्यक्तिवादी बन गया है कि वह सम्पर्क-सूत्र को काट रहा है। किन्तु जो प्रकृति से अपूर्ण है, वह जगत् से सम्पर्क विच्छिन्न कर क्या जी सकता है? ६. सम्पर्क सूत्र हमारी चेतना के दो रूप हैं-व्यक्त चेतना और अव्यक्त चेतना। मनोविज्ञान मन को तीन भागों में विभक्त करता है-अवचेतन मन, अर्धचेतन मन और चेतन मन। अव्यक्त चेतना जगमगाता सौरपिण्ड है, प्रकाशराशि है। कल मैंने देखा, नदी का पूर आ रहा था। पास में नाले थे। नालों में पानी उतना ही था जितना कि अवकाश था। पानी के प्रवाह और बिजली के प्रवाह की समान गति है। हमारे पास चेतना को व्यक्त करने के छह साधन हैं-पांच इन्द्रियां और एक मन। ये छह सम्पर्क-सूत्र हैं। ये बाह्य जगत् से सम्पर्क कराने में पटु हैं। मैं देखता हूं तो सारा जगत् मेरे लिए दृश्य बन जाता है। मैं बोलता हूं तो मैं वक्ता और आप श्रोता बन जाते हैं। इनके माध्यम से बाह्य जगत् के साथ मेरे अन्तर मन का सम्बन्ध जुड़ता है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म-बिन्दु १३३ ७. विज्ञान और अध्यात्म मनुष्य का स्वभाव है कि वह अज्ञात को ज्ञात करना चाहता है। इसीलिए उसमें सत्य-शोध की वृत्ति का विकास हुआ है। अखण्ड सत्य में अध्यात्म और विज्ञान दोनों समाविष्ट हो जाते हैं। जब से मनुष्य ने जाना है, तब से उसने प्रयोग भी किए हैं। प्रायोगिक ज्ञान ही विज्ञान है। मान्यता का ज्ञान विज्ञान नहीं है। तर्कशास्त्र में उसे विकल्प कहा जाता है। विज्ञान भी तथ्य को पहले पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकार करता है, फिर प्रयोग के द्वारा उसे सिद्ध करता है। जो प्रयोग द्वारा प्रमाणित नहीं होता, वह असत्य सिद्ध हो जाता है। वैज्ञानिक बोध विश्लेष और संश्लेष की प्रक्रिया तथा उसके लब्ध परिणाम से होता है। अध्यात्म का बोध प्रत्यक्षानुभूति से प्राप्त होता है। यही इन दोनों में अन्तर है। ८ अनशन अनशन आत्महत्या है-इसे मैंने पकड़ा है पर यह नहीं पकड़ सका, आत्म क्या है? मैंने देह को ही आत्म मान रखा है इसलिए मैं देह-पात को ही आत्महत्या मान बैठा हूं। क्या चैतन्य का प्रदीप आत्म नहीं है? क्या दर्शन का वातायन आत्म नहीं है? क्या पवित्रता का प्रकोष्ठ आत्म नहीं है? देह का भारवहन इसलिए है कि चैतन्य का प्रदीप जलता रहे, दर्शन का वातायन खुला रहे और पवित्रता का प्रकोष्ठ भरा रहे। यदि ऐसा न हो, प्रदीप के बुझने, वातायन के बन्द होने और प्रकोष्ठ के खाली होने की स्थिति प्राप्त हो तो देह के भारवहन की मर्यादा अपने आप टूट जाती है। यह आत्महत्या नहीं है, किन्तु आत्म-संयम है। यही है अनशन अर्थात् जिसके लिए देह है उसी की सुरक्षा के लिए देह का विसर्जन। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक शान्ति के सोलह सूत्र [१६६६ में दिल्ली में २१ दिवसीय अणुव्रत-शिविर की समायोजना हुई। उस शिविर में अनेक भाई-बहन सम्मिलित थे। नगर के भी अनेक व्यक्ति आते-जाते रहते थे। श्री जैनेन्द्र कुमार उसमें सहभुक्त थे। दादा धर्माधिकारी एक सप्ताह तक वहां रहे थे। प्रातःकालीन दो घंटे का समय चर्चागोष्ठी के लिए सुनिश्चित था। उसमें अनेक साधना-बुद्धि-चैतसिक व्यक्ति भाग लेते थे। उस चर्चागोष्ठी में जो विचार प्रस्तुत किए वे इन अग्रिम पृष्ठों में प्रकृत हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्र १. उदर-शुद्धि सुखी और स्वस्थ जीवन का माध्यम उदर है। जितने रोग होते हैं, वे प्रायः उदर-विकृति के कारण ही होते हैं। आरोग्य की जड़ उदर है। उदर की शुद्धि का संबंध तीन से है। वे हैं-आहार, निहार और विहार। आहार अधिकांश लोग अनियमित आहार करते हैं, कभी कम करते हैं तो कभी अधिक। कभी विरुद्ध भोजन करते हैं तो कभी असंतुलित। शरीरशास्त्रियों की दृष्टि से भोजन न अति मात्रा में होना चाहिए और न हीन-मात्रा में। कम खाना भी मलोत्सर्ग में रुकावट पैदा करता है। अतिमात्र आहार करना तो हर दृष्टि से दोषपूर्ण है। भोजन आमाशय में जाता है। आमाशय अपनी शक्ति के अनुसार ही उसका घोल बनाता है। अधिक मात्रा होने से कुछ घोल कच्चा रह जाता है जिसे आम कहते हैं। आम का संचय होने से उदरशूल, गैस, सिरदर्द आदि कई रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अध्यशन आहार का एक दोष है। पहले खाया हुआ पचा नहीं, उसी बीच और खाना अध्यशन है। सम्भव हो तो पांच घंटे या कम-से-कम तीन घंटे पहले दूसरी बार अन्न न खाया जाए। यह सामान्य मर्यादा रही है। कुछ हल्के भोजन जल्दी पच जाते हैं, पर अन्न तीन घंटे से पहले नहीं पचता। पचने से पूर्व खाने से घोल कच्चा ही रह जाता है। प्राचीनकाल में भोजन दो बार किया जाता था, कभी-कभी तीन बार भी। किन्तु आजकल इस सिद्धांत में परिवर्तन आ गया है। कई डॉक्टर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति थोड़ा-थोड़ा बार-बार खाने को कहते हैं। उनका आशय संभवतः हल्के भोजन से है। अलसर जैसे रोग में बार-बार खाया जाता है। भस्म रोग में सब कुछ स्वाहा हो जाता है। अलसर और भस्म बड़े रोग हैं। तीव्र दोष में छोटे दोष समा जाते हैं। ___भोजन का ऋतुओं से भी सम्बन्ध है। वर्षाकाल में अग्नि मन्द होती है, इसलिए तपस्या इस ऋतु में अधिक सुगमता से होती है। शीतकाल की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में अग्नि मन्द रहती है। दोनों ऋतुओं में भोजन का भी अन्तर रहता है। लूंसकर खाने वाले बौद्धिक श्रम नहीं कर पाते। हल्का भोजन करने वाले अधिक स्वस्थता से वह कर सकते हैं। रक्त का संचार आनुपातिक होने से उसमें बाधा नहीं पड़ती। चिन्तन-मनन करने में रक्त का दौर मस्तिष्क की ओर होने लगता है, इसलिए आंतों को वह कम मात्रा में मिल पाता है। ज्यादा खाने से रक्त का संचार उदर की ओर ज्यादा होता है, इसलिए मस्तिष्क को वह कम मात्रा में मिल पाता है। दिमाग को शक्ति न मिलने से कुंठा आ जाती है। शक्ति-व्यय के आधार पर ही भोजन की मात्रा निश्चित होती है। इसलिए शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम में भोजन की मात्रा और प्रकार का अन्तर होता है। बार-बार चाय पीना भी स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं है। इससे स्फूर्ति मिल सकती है पर बल, बुद्धि और वीर्य के लिए यह अनुकूल नहीं है। निहार आहार से अधिक महत्त्व निहार का है। ठीक खाने का महत्त्व तो है पर उससे अधिक महत्त्व है ठीक समय पर उत्सर्ग का।। - उत्सर्ग के प्रति कम ध्यान दिया जाता है। उत्सर्ग क्रिया ठीक न होने से अपान वायु दूषित होती है। उससे मानसिक प्रसन्नता नहीं रहती। गुदा चक्र का मानसिक प्रसन्नता के साथ गहरा सम्बन्ध है। समान्यतः आहार के असार भाग का चौबीस घंटे बाद उत्सर्ग होता है और तीन दिन की अवधि में तो हो ही जाता है। इस अवधि के बाद भी यदि मल आंतों में रहता है तो उससे आलस्य, जड़ता और बुद्धि-मन्दता होती है। समान्यतः दिन की अवधि रहता है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदर-शुद्धि १३६ बड़ी आंतें स्पंदन के द्वारा मल का विसर्जन करती हैं। तीन कारणों से उसकी गति में मन्दता आ जाती है-(क) अवस्था, (ख) वेग-निरोध, (ग) अतिभोजन। अवस्था-ज्यों-ज्यों अवस्था बढ़ती है, आंतों में श्लथता आती जाती है। अवस्था-वृद्धि के साथ क्षीण होने वाला अन्त्र-शक्ति का स्पन्दन योग मुद्रा से पुनः पुष्ट हो जाता है। वेग निरोध-समय पर उत्सर्ग न करने से आंतें संकेत देना छोड़ देती हैं। विवशता की परिस्थिति या प्रमाद के कारण कई लोग मल के वेग को रोक लेते है। आंत के संकेत की बार-बार उपेक्षा करने के कारण वह संकेत देना बन्द कर देती है। कई लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं-हमें दो-दो, तीन-तीन दिन तक मलोत्सर्ग की आवश्यकता का ही अनुभव नहीं होता। पर वे भूल जाते हैं कि आंत के संकेतों की उपेक्षा कर वे उस अनुभूति को खो बैठे हैं। ___ अतिभोजन-अतिभोजन से आंत श्लथ हो जाती है। वह मल को आगे नहीं ढकेल पाती। इस प्रकार कोष्ठ-बद्धता हो जाती है। उससे चिंतन में कंठा आती है। प्रसन्नता के लिए अनिवार्य है कि मल-संचय न हो। दो दिन तक खाना न खाया जाए तो भी आंतों को पचाने के लिए शेष रह जाता है। पर मल का उत्सर्ग न हो तो एक दिन में बेचैनी हो जाती है। अन्त्र में मल भरा रहने से अपानवायु का द्वार रुद्ध हो जाता है। फिर वह ऊपर जाती है और हृदय को धक्का लगाती है। जिसे हम सामान्यतया हृदय-रोग समझते हैं वह बहुत बार यही होता है। __अपने शरीर के तापमान से अधिक ठण्डा और अधिक गर्म भोजन भी हानिप्रद होता है। उससे आंत और दांत दोनों विकृत होते हैं। भोजन का सम्बन्ध आवश्यकता-पूर्ति से है और उसका सम्बन्ध जब स्वाद से हो जाता है तब मर्यादा का अतिक्रमण और विपर्यय होने लगता है। विहार विहार का अर्थ है-नियमित उठने-बैठने, सोने-जागने की चर्या। जिस प्रकार एक साथ बहुत ज्यादा खा लेना हानिकर है उसी प्रकार एक साथ बहुत बैठे रहना भी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकर है। इससे अग्नि मन्द Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति हो जाती है इसलिए इस ओर सजग रहने वाले लोग हर डेढ़-दो घंटे के बाद उठकर इधर-उधर घूम लेते हैं। बहुत बैठे रहना रोग का बहुत बड़ा कारण है, पर इसका यह मतलब भी नहीं कि दिन भर घूमते रहना या खड़े रहना स्वास्थ्य के लिए ठीक है। इससे भी अधिक शक्ति क्षीण होती है। वस्तुतः हर क्रिया में सन्तुलन होना बहुत आवश्यक है। जो लोग आसन नहीं करते या घूमते नहीं वे लोग स्वास्थ्य के साथ बहुत अन्याय करते हैं। आसन या घूमने का अर्थ है-आंतों में हरकत पैदा करना। योग मुद्रा भी इसका अच्छा साधन है। वह किसी भी प्रकार से हो पर यदि वह नहीं होती है तो उससे शरीर में विकार पैदा हो जाते हैं। उससे रक्त गाढ़ा हो जाता है तथा गठिया आदि भयंकर व्याधियां मनुष्य को घेर लेती हैं। सोना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। दीर्घ जीवन का यह स्वर्ण-सूत्र है। चर्चिल ने दीर्घ आयु प्राप्त की, इसका सबसे बड़ा रहस्य यही था। वे अधिकतर लेटे-लेटे ही दूसरों को डिक्टेशन आदि दिया करते थे। प्रश्न है, क्या लेटे-लेटे पढ़ना अच्छा है? नहीं, लेटे-लेटे पढ़ना आंखों के लिए बहुत खतरनाक है। लेटे रहने की अति भी अच्छी नहीं है। अच्छाई उचित मात्रा में है, क्रिया में नहीं।। . एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि सोते समय ऊंचा उपदान रखने से रक्त-संचार में बाधा आती है; क्योंकि हमारे शरीर में सिर एक ऐसा भाग है जहां रक्त-संचार कम होता है; उस पर भी यदि ऊंचा तकिया दे दिया जाता है तो रक्त को वहां पहुंचने में और भी अधिक बाधा पहुंचती है। मुझे लगा कि यह बात तथ्य से खाली नहीं है। कुछ लोग तकिए के बिना सुलाकर चिकित्सा किया करते हैं। प्रश्न-कुछ लोग नींद लेने के लिए बहुत देर तक लेटे-लेटे पढ़ते रहते हैं। इससे आंखों के स्नायुओं पर तनाव आता है और नींद जल्दी आ जाती है। क्या यह तरीका ठीक है? उत्तर-मुझे इसका अनुभव ही नहीं, तब मैं कैसे कहूं कि यह ठीक है या नहीं। हां, मैं कह सकता हूं कि आंखों तथा शरीर को तनाव से मुक्त करना-कायोत्सर्ग करना ठीक है। नींद की चिन्ता करना नींद से दूर भागना है। कायोत्सर्ग करिए, जो होना है वह अपने आप होगा। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-शुद्धि १४१ नींद स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक तत्त्व है। क्योंकि हर प्रवृत्ति के साथ हमारे शरीर में विष पैदा होता है। कुछ शरीरशास्त्रियों ने इस सम्बन्ध में बहुत अन्वेषण किए हैं। उन्होंने कई प्रकार के विषों का पता भी लगाया है। नींद के द्वारा हम उन विषों को बाहर फेंकते हैं और शरीर की क्षतिपूर्ति भी करते हैं। नींद कम आती है, उससे कोष्ठ-बद्धता हो जाती है और स्वास्थ्य का संतुलन बिगड़ जाता है। ___मैं प्रासंगिक चर्चाओं से मुक्त होकर अब फिर उसी मूल विषय का स्पर्श कर रहा हूं। शरीर और मन का गहरा सम्बन्ध है। शरीर का मन पर और मन का शरीर पर असर होता है। शरीर की स्वस्थता का केन्द्र उदर है, अतः उदर-शुद्धि के सन्दर्भ को छोड़कर इस मानसिक शान्ति की बात सोचें तो वह सोचना पृष्ठभूमि से शून्य होगा। २. इन्द्रिय-शुद्धि अनेक लोगों की शिकायत है कि उनका आत्म-निश्चय टिकता नहीं। वह बार-बार स्खलित हो जाता है। ऐसा क्यों होता है, इस पर हमें सोचना है। आत्म-निश्चय से स्खलित होने के कारणों की मीमांसा में आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है : 'अनिरुद्धाक्षसन्तानाः, अजितोग्रपरीषहाः । अत्यक्तचित्तचापल्याः, प्रस्खलन्त्यात्मनिश्चये ॥' जिन व्यक्तियों ने इन्द्रियों के प्रवृत्ति-क्रम का निरोध नहीं किया या इन्द्रियों को आत्मलीन नहीं किया, जिन्होंने कष्ट-सहन का अभ्यास नहीं किया और जिन्होंने चित्त की चंचलता से छुट्टी नहीं पायी, वे लोग अपने निश्चय से स्खलित हो जाते हैं। ___आज हमें पहले कारण पर चिन्तन करना है। इन्द्रियों के प्रवृत्ति-क्रम का निरोध या उनकी लीनता कैसे हो? शरीर-रचना की दृष्टि से मनुष्य पंचेन्द्रिय-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र-युक्त है और उपयोग की दृष्टि से वह एकेन्द्रिय है-एक समय में एक इन्द्रिय का ही Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति संवेदन होता है। इन्द्रियां दो प्रकार की हैं-ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक। श्रोत्र और चक्षु-दो इन्द्रियां संवेदनात्मक नहीं हैं, केवल ज्ञानात्मक हैं। शेष तीन इन्द्रियां संवेदनात्मक हैं। आम मीठा है और नींबू खट्टा है-यह ज्ञान है। इसकी अनुभूति खाने से होती है। संवेदना साक्षात् सम्बन्ध के बिना नहीं होती। ज्ञानात्मक इन्द्रियां अपने विषयों को दूर से जान लेती हैं। संवेदनात्मक इन्द्रियों को अपने विषय से साक्षात् सम्बन्ध करना होता इन्द्रियां अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं हैं। वे मन के संयोग से अच्छी या बुरी बनती हैं। इन्द्रियां वर्तमान का ज्ञान करती हैं और मन त्रिकाल का ज्ञान करता है। मन आंख से संबद्ध न हो, उस समय आंख खुली होने पर भी अनुभूति नहीं होती। इन्द्रियों में सारा प्रकाश मन द्वारा आरोपित होता है। इन्द्रियों की शुद्धि मनःशुद्धि से स्वतः प्राप्त होती है। प्राचीन साहित्य में इन्द्रियों के दमन का उल्लेख मिलता है। आजकल दमन शब्द अप्रिय लगता है, क्योंकि दमन का अर्थ अत्याचार समझा जाता है। दमन शब्द के अर्थ का अपकर्ष हो गया है, इसलिए ऐसा लगता है। शमन शब्द का प्रयोग प्रिय है; जबकि दमन और शमन में कोई अन्तर नहीं है। संस्कृत में 'शमु दमु च उपशमे' धातु है। दम का वही अर्थ है, जो शम धातु का है। दूध उफनता है तब पानी के छींटे डालकर उसका शमन किया जाता है। वैसे ही इन्द्रियों के वेग का शमन या दमन किया जाता है। दमन का अर्थ बलात्कार या अत्याचार नहीं है। इन्द्रियों की गति बहिर्मुखी है। उन्हें बाहर से लौटाकर अपने-अपने गोलक में स्थापित करना दमन है। उन्हें कष्ट देने और प्रयोग से रोकने की बात आत्मविमुखता की बात है। जहां कष्ट-लीनता है, वहां धर्म कैसे होगा? धर्म आनन्दानुभूति है। वह आत्म-लीनता में हो सकता है। जैनेन्द्र-क्या मुनि-जीवन में कष्ट-लीनता नहीं है। मुनिश्री-मैं समझता हूं नहीं है। जैनेन्द्र-क्या कोई कष्ट नहीं आता? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय- शुद्धि १४३ मुनिश्री - आता है, पर कष्ट का आ पड़ना एक बात है और कष्ट की लीनता दूसरी बात है । भगवान् महावीर के साधना काल में अनेक कष्ट उपस्थित हुए। वे कष्टलीन होते तो उन्हें कभी नहीं झेल पाते । किन्तु वें आत्म-लीन थे, इसलिए उन्हें झेल सके। शल्य-चिकित्सा के समय रोगी की स्पर्श - संवेदना मूर्च्छित कर दी गई। पेट चीरा गया। कोई मनुष्य सामने खड़ा है । वह रोगी के कष्ट की कल्पना कर कांप उठता है । पर जो रोगी है, उसे कोई कष्ट नहीं है । उसकी कष्टानुभूति का माध्यम शून्य कर दिया गया है। इस स्थिति में कष्ट की प्रतीति रोगी में नहीं, किन्तु द्रष्टा में होती है । इसी प्रकार महावीर ने जो कष्ट झेले, उनकी भयंकरता की प्रतीति महावीर को नहीं किन्तु द्रष्टा को हुई । कष्ट की स्थिति को सात्म्य करने पर ही तो कष्ट होगा, अन्यथा कैसे होगा? जैनेन्द्र- यदि आत्म- लीनता मूर्च्छा जैसी स्थिति है तो वह मुझे प्रिय नहीं हो सकती। उसमें चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, और जहां चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, वहां अध्यात्म नहीं हो सकता, ऐसा मैं मानता हूं । मुनिश्री - मैं आत्म-लीन को चैतन्य की मूर्च्छा नहीं बता रहा हूं। मैं यह बता रहा हूं कि आत्म- लीनता घनीभूत हो जाती है, तब चैतन्य इतना पराक्रमी बनता है कि बाह्य के प्रति शून्यता अपने आप आ जाती है । जैनेन्द्र- कुछ लोग मादक द्रव्य के प्रयोग को साधना का अंग मानते हैं, वे क्यों गलत हैं ? मुनिश्री - वे इसलिए गलत हैं कि मादक द्रव्यों के सेवन से चेतना मूर्च्छित हो जाती है। जैनेन्द्र- चेतना की मूर्च्छा आपको पसन्द नहीं है? मुनिश्री नहीं, कतई नहीं। जैनेन्द्र-तब फिर चलिए । मुनिश्री - मेरी समझ में बाह्य संवेदना को शून्य कर चैतन्य को पराक्रम-विमुख बनाने की स्थिति आत्म - लीनता नहीं है। आत्म- लीनता वह स्थिति है, जहां चैतन्य के पराक्रम के सामने बाह्य स्थिति अकिंचित्कर बन जाती है। शरीर, इन्द्रिय और मन आत्मा के विरोधी नहीं हैं । वे अचेतन हैं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : और आत्मा चेतन है । दोनों का अपना-अपना अस्तित्व है। दोनों अपने - अपने गुण में स्थित हैं। दोनों को विरोधी मानना हमारी भ्रान्त धारणा होगी। इन्द्रियां बाहर की ओर दौड़ती हैं, तब कामना जागती है । कामना जागती है, तब मनुष्य उन्हें शत्रु मान बैठता है । हम सोचें, वे बाहर की ओर क्यों दौड़ती हैं? इसीलिए कि हमारा आत्मा के प्रति गाढ़ अनुराग नहीं है। हमारा अनुराग बाहर की ओर है । बच्चा कोई वस्तु खाना चाहता है, शरीर उसका स्वस्थ नहीं है, इसलिए डॉक्टर या माता-पिता बच्चे को बार-बार रोकते हैं। बच्चे में खाने के प्रति आसक्ति नहीं होती तो डॉक्टर या माता-पिता उसे निषेध नहीं करते। उसके मन में खाने की तीव्र भावना है, इसलिए निषेध किया जाता है । जैसे डॉक्टर का निषेध बच्चे की आसक्ति से जुड़ा हुआ है, वैसे ही संयम व्यक्ति की आसक्ति से जुड़ा हुआ है । बच्चा अज्ञानी होता है। इसलिए वह दूसरों द्वारा निषिद्ध होता है, किन्तु ज्ञानी मनुष्य अपनी आसक्ति का स्वयं निषेध करता है । यही संयम है । जैनेन्द्र-क्या संयम नितान्त निरपेक्ष है ? मुनिश्री - निरपेक्ष नहीं, किन्तु सापेक्ष है। जैनेन्द्र-संयम की अपेक्षा क्या है? I मुनिश्री - जब तक आसक्ति है, तब तक संयम अपेक्षित है । जैसे ही आसक्ति क्षीण हुई, वैसे ही संयम कृतकार्य हो चला । निरपेक्ष मूल्य अपने अस्तित्व का है। शेष वही बचता है । संयम बन्धन नहीं है । वह मुक्ति है और वह मुक्ति, जिसका उत्स अनुराग है । 'अनुरागाद् विरागः ' - यह संयम का सिद्धांत है। जिसके प्रति अनुराग होगा, उसके प्रतिपक्ष में विराग अपने आप हो जाएगा । आत्मा के प्रति अनुराग, बाह्य के प्रति विराग और बाह्य के प्रति अनुराग, आत्मा के प्रति विराग । बाह्य के प्रति विराग यानी संयम । आत्मा के प्रति विराग यानी असंयम । अनुराग की ओर से कोई नियंत्रण नहीं आता, वह विराग की ओर से आता है। जैसे अध्यात्म का पुरुषार्थ प्रबल होता है, वैसे सयंम बढ़ता है, नियम कम होते हैं। जैसे अध्यात्म का पुरुषार्थ क्षीण होता है, वैसे संयम घटता है, नियम बढ़ते हैं । संयम और नियम की दूरी आचारांग सूत्र की भाषा में इस प्रकार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-शुद्धि १४५ व्यक्त हुई है-नेव से अंते नेव से दूरे-जिसने नियम ले लिया पर वासना नहीं छूटी, वह न तो दूर है और न नजदीक। बाहरी मर्यादा में बंधा होने के कारण वह करने की स्थिति में नहीं है और आकांक्षा से मुक्त नहीं होने के कारण 'नहीं करने' की अवस्था को भी प्राप्त नहीं है, इसलिए वह विषय से न तो दूर है और न नजदीक। धर्म के दो रूप हैं-स्वीकृत और आत्मोद्भूत। धर्म आत्मा से उद्भूत होता है। कुएं का पानी स्वीकृत नहीं है और वर्षा का पानी स्वीकृत है। धर्म का प्रभाव सहज है। नियम तट बन सकते हैं, किन्तु प्रवाह नहीं बन सकते। प्रश्न-वैराग्य से त्याग होता है या त्याग से वैराग्य आता है? संयम से नियम होता है या नियम से संयम आता है? त्याग से वैराग्य और नियम से संयम आता है, यह कहने में मुझे कठिनाई का अनुभव हो रहा है। वैराग्य और संयम का मूल अनुराग है, यह मैं पहले कह चुका हूं। एक के प्रति गाढ़ अनुराग, दूसरे के प्रति विराग। आत्म के प्रति अनुराग, अनात्म के प्रति विराग, धर्म के प्रति अनुराग अधर्म के प्रति विराग। वैराग्य हर व्यक्ति को हो सकता है और हर वस्तु से हो सकता है। अनुराग से विराग-इसी सिद्धांत का प्रयोग इन्द्रि-शुद्धि की साधना में किया जा सकता है। इन्द्रिय-शुद्धि की समस्या दृश्य जगत् शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक है। इसके साथ हमारा सम्बन्ध इन्द्रियों के माध्यम से होता है। दृश्य जगत् के साथ मन का प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। उसका सम्बन्ध इन्द्रियों के माध्यम से ही स्थापित होता है। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है, उसे रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है उनके प्रति होने वाला अनुराग। उत्तराध्ययन में एक प्रसंग है-शिष्य आचार्य से पूछता है-'भन्ते! धर्म के प्रति श्रद्धा (घनीभूत अनुराग) होने से क्या प्राप्त होता है?' 'आचार्य कहते हैं- 'धर्म के प्रति श्रद्धा होने से सुख-इंद्रिय-विषयों के प्रति विराग होता है।' यह वही सिद्धान्त है-धर्म के प्रति अनुराग और बाह्य के प्रति विराग। संयम की ध्वनि भी यही है। संयम 'यमु Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति उपरमे' धातु से बना है । हमारी लीनता वस्तु के प्रति जा रही थी, वह लौटकर अपने में आ गई, यही संयम है । संयम में इन्द्रियों के द्वार बन्द नहीं होते परन्तु अन्दर के द्वार खुल जाते हैं। पदार्थ के साथ हमारा विरोध नहीं है । इन्द्रियां और विषय न हमारे शत्रु हैं और न मित्र । वे अपने आप में जैसे हैं, वैसे हैं । 1 1 1 जयाचार्य ने 'साधक-बाधक' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रवृत्ति साधक भी है और बाधक भी है। जब प्रवृत्ति आसक्ति के स्रोत से प्रवाहित होती है तो वह सिद्धि में बाधक बन जाती है । जब अनासक्ति के स्रोत से प्रवाहित होती है तो वह साधक बन जाती है । मन का शरीर के प्रति जो विरोध-भाव है, वह हमारी दुर्बलता के कारण है । दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है । जो दोनों के स्वरूप में ऐक्य मान रखा है, उसे भिन्न-भिन्न करना है इसीलिए संकल्प करते हैं कि 'मैं शरीर से भिन्न हूं' । आत्मा में आनन्द अनन्त है । शरीर को कष्ट देने में वह नहीं है । यह भाषा बन गई है कि शरीर को जितना कष्ट दोगे उतना ही धर्म होगा । मैं आपसे पूछना चाहता हूं, धर्म का सम्बन्ध कष्ट से है या आत्मानुभूति से ? यदि आत्मानुभूति से है, तो कष्ट हो या न हो, धर्म होगा । यदि आत्मानुभूति से नहीं है - चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है तो कष्ट हो या न हो, धर्म नहीं होगा । एक व्यक्ति एक मास की तपस्या करता है और पारण में कुश के अग्र भाग पर टिके उतना खाता है । फिर मास की तपस्या करता है । ऐसे तपस्वी की आत्मा यदि ऋजु नहीं है तो वह अनन्त जन्म-मरण तक संसार-भ्रमण करता रहता है, मुक्त नहीं होता। यदि काया को कष्ट देने मात्रा से मुक्ति होती तो कभी हो जाती । सहजभाव से साधना चले, उसमें यदि कष्ट आएं तो उन्हें सहन करें। इससे आध्यात्मिकता प्रज्वलित होगी । इन्द्रियों को कष्ट देना हमारा लक्ष्य नहीं । हमारा लक्ष्य है, उन्हें अनासक्ति के स्रोत से प्रवाहित करना । यह प्रतिसंलीनता या प्रत्याहार का सिद्धान्त है । इसके उपयोग से इन्द्रियों की गति बहिर्मुखी कम और अन्तर्मुखी अधिक हो जाती है । फलतः उनकी ग्रहण - शक्ति की मर्यादा बदल जाती है - आवश्यक अंश गृहीत होता है, अनावश्यक अंश परिहत हो जाता है । इस प्रकार अव्यर्थ और व्यर्थ के बीच एक स्पष्ट रेखा खिंच जाती है । जैनेन्द्र- इस आत्मलीनता में मुझे बहुत खतरा दिखाई देता है । यह Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणापान-शुद्धि १४७ स्व-रति का भाव आगे चल स्वार्थ में बदल जाता है। स्वार्थ की प्रेरणा में मुझे कोई रस नहीं है। __ मुनिश्री-आप स्व-रति का जिस अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, वह आत्मलीनता से भिन्न है। आत्मलीनता से परमार्थ की प्रेरणा प्रबल होती है। स्वार्थ मोह का रूपान्तर है जबकि आत्मलीनता मोह का विसर्जन। आसक्ति का स्रोत कषाय है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । कषाय का त्याग नहीं होता। व्यवहार की भाषा में कहते हैं क्रोध का त्याग कर दिया। अग्नि पर राख डालने से वह ढंक जाती है पर वह बुझ नहीं जाती। क्रोध का त्याग नहीं होता, वह त्यक्त होता है। चैतन्य उबुद्ध होने से क्रोध की क्षमता नहीं रहती। त्याग की भाषा संकल्प की भाषा है और त्यक्त की भाषा संकल्प-सिद्धि की भाषा है। संकल्प की भाषा अन्तर की भावना का स्पर्श करती है पर तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकती। यदि भाषा और अर्थ में तादात्म्य होता तो. 'मैं अहिंसक हूं'-इतना कहने मात्र से हर कोई अहिंसक बन जाता। शब्द के उच्चारण मात्र से अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। यदि होती तो लड्डू का नाम लेने मात्र से पेट भर जाता। किन्तु ऐसा होता नहीं है। संयम और विधि (कानून) में यही अन्तर है। कानून बाहर की भाषा है और संयम अन्तर की चेतना का जागरण है। ___आसक्ति ऋणात्मक (निषेधात्मक) शक्ति है और अनासक्ति धनात्मक शक्ति है। धनात्मक शक्ति मनुष्य का स्वभाव है। उसका विकास होने पर ऋणात्मक शक्ति जो कि स्वभाव नहीं है, अपने आप नष्ट हो जाती है। इन्द्रिय-शुद्धि के लिए इस सिद्धान्त का प्रयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। ३. प्राणापान-शुद्धि हमारे शरीर में वायु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे शरीर और मन-दोनों प्रभावित हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। वायु के मुख्य प्रकार पांच हैं-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इनमें से प्राण और अपान पर हमें कुछ चिन्तन करना है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : श्वास लिया जाता है, वह प्राण है और छोड़ा जाता है, वह अपान है। दोनों का संयुक्त शब्द है, प्राणापान । बौद्ध साहित्य में 'आनापानसती' और जैन - साहित्य में 'आनापान - निरोध' की चर्चा मिलती है । प्राण का केन्द्र नासिकाग्र है । उस पर मन टिकते ही मूल बंध हो जाता है, मूल नाड़ी तन जाती है । नासिकाग्र पर मन और प्राण के योग की यह निश्चित सूचना है। मूल नाड़ी के तनने का अर्थ है वीर्य के अधोगमन की समाप्ति और ऊर्ध्वारोहण का प्रारम्भ । मैंने एक डॉक्टर से मूल नाड़ी के विषय में पूछा। उसने कहा - 'हमारे चिकित्सा - शास्त्र में ऐसी कोई नाड़ी नहीं है, जिससे वीर्य का ऊर्ध्वारोहण हो ।' इस विषय पर मैं लम्बे समय तक सोचता रहा कि ऊर्ध्वारोहण के बिना ऊर्ध्वरता होने की बात सही कैसे होगी ? किन्तु अब मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि वीर्य का ऊर्ध्वारोहण हो, ऐसी नाड़ी शरीर में है और ऊर्ध्वरेता की प्रक्रिया भी सही है । रेत का मूल रक्त है । वह समस्त शरीर में संचालित होता रहता है। कामवासना सक्रिय होती है, तब रक्त का प्रवाह वृषण ग्रंथियों में अधिक होता है । और वहां रक्त का रूपान्तरण रेतस् हो जाता है । वह पूर्ण मात्रा में संचित होकर वासना को उद्दीप्त करता है और अन्त में क्षरित हो जाता है । उसका क्षरण अपान वायु से होता है । प्राणवायु वश में हो तो वह क्षरण रुक जाता है । I क्षरण रुकने के दो अर्थ हो सकते हैं-वीर्य का न बनना और बने हुए का पाचन होना यानी रूपान्तरण होना । प्राणवायु वश में हो तो रक्त का प्रभाव वृषण ग्रन्थियों में कम होता है । रक्त का प्राण - तत्त्व सीधा ओजस् में बदल जाता है । योग-विद्या में वीर्य का स्तम्भन और वीर्य का आकर्षण - ये दो शब्द प्रचलित हैं। रेतस् का पात होते-होते रुक जाता है, वह स्तम्भन है और रक्त से सात्म्य रहकर मस्तिष्क तक पोष देता है, वह आकर्षण है । नवनीत दूध में व्याप्त है। उससे पृथक् नहीं है तो दूध दूध कहलाएगा, नवनीत नहीं । इसी प्रकार रेतस् रक्त में व्याप्त है। उससे पृथक् नहीं है तो रक्त रक्त की कहलाएगा, रेतस् नहीं । फिर भी दूध में जैसे नवनीत की सत्ता है, वैसे ही रक्त में रेतस् की सत्ता है। रेतस् रक्त से अलग Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणापान-शुद्धि १४६ न हो और ओज रूप में बदल जाए, यही ऊर्ध्वरेता होने की प्रक्रिया है। रेतस् का प्राणायाम या संकल्पशक्ति द्वारा ओज रूप में पाचन या रूपान्तरण करना भी ऊर्ध्वरेता होने की प्रक्रिया है। शरीर में सात धातु हैं। सातवीं धातु रेतस् है। सातों साधुओं का सूक्ष्म रूप ओज है। वह धातु नहीं, धातु का सार है। रेतस् का क्षरण अधिक होता है तो ओज कम बनता है और उसका क्षरण कम होता है या नहीं होता है तो ओज अधिक बनता है। ओज की वृद्धि से दृढ़ निश्चय, धैर्य, सहिष्णुता, कुशग्रीय प्रतिभा आदि गुण विकसित होते हैं। इस विकास की पृष्ठभूमि में बहुत बड़ा कर्तव्य प्राणवायु का है। इसी दृष्टि से मैं कह रहा था कि प्राण हमारी शक्ति का आधार है। प्राणवायु का स्थान नासाग्र से पादांगुष्ठ तक है। उसमें नासाग्र, हृद् और नाभि मुख्य हैं। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में महावीर की मुद्रा के दो अंग माने हैं-पर्यंकासन में शरीर का शिथिलीकरण और नासाग्र पर दृष्टि का स्थिरीकरण 'वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च, दृशौ च नासा नियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैः, जिनेन्द्र! मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥' नासाग्र पर ध्यान करने से श्वास के आने-जाने के क्रम का बोध होता है। उससे प्राणवायु वश में हो जाता है। प्राणवायु के वश में होने का अर्थ है-मन और बिन्दु (वीर्य) का वश में होना। प्राण, मन और बिन्दु की विजय-रेखा एक ही है। प्राण की विजय होने से मन और बिन्दु की, मन की विजय होने से प्राण और बिन्दु की तथा बिन्दु की विजय होने से प्राण और मन की विजय अपने आप हो जाती है। तंत्रशास्त्र में प्राण को ज्ञान का नाथ कहा गया है 'इन्द्रियाणां मनो नाथः, मनोनाथस्तु मारुतः । मारुतस्य लयो नाथः, स लयो नादमाश्रितः ॥' प्राणवायु के गमनागमन के साथ मन का योग करें और उसमें लीन हो जाएं। छह मास के अभ्यास से क्लेश और दुःख की मात्रा कम हो जाएगी। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० मैं: मेरा मन : मेरी शान्ति प्राणवायु को वश में करने की प्रक्रिया है-नाभि-दर्शन | नाभि पर दृष्टि टिकाने की दो पद्धतियां हैं : (१) सीधा लेटकर सोने के बाद सिर को थोड़ा-सा ऊपर उठाकर नाभि को देखना | ( २ ) जालंधर बंध कर नाभि को देखना । ४. अपानवायु और मनः शुद्धि अपानवायु का मुख्य स्थान नाभि से नीचे और पृष्ठभाग के पाष्णिदेश तक है। उसका कार्य है मल, मूल, वीर्य आदि का विसर्जन करना अर्थात् बाहर निकालना। उसके विकृत होने से मन में अप्रसन्नता होती है और उसकी शुद्धि से प्रसन्नता होती है। नीचे के भाग में होने वाले मस्सा आदि तथा वीर्य-सम्बन्धी रोग अपानवायु दूषित होने से होते हैं, उसकी शुद्धि में नहीं होते । अपानवायु का सम्बन्ध पेट-शुद्धि से ही है । पेट की अशुद्धता में कोष्ठबद्धता हो जाती है तथा कृमि आदि जीव पैदा हो जाते हैं । उसकी शुद्धि के लिए अश्विनी मुद्रा तथा नाभि पर ध्यान करना श्रेष्ठ प्रयोग है I I शरीर की शक्ति का स्रोत नाभि और गुदा के बीच में है । अपान को जीतने से शक्ति का स्रोत विकसित होता है। घोड़े की शक्ति का रहस्य उसकी संकोच -विकोच की मुद्रा है । अपानवायु दूषित हो जाए तो सौ बार अश्विनी मुद्रा करने से शुद्ध होती है। मूलबन्ध भी इसमें सहयोगी बनता है । प्राणवायु को बाहर निकाल कर यथाशक्ति रोकने से भी अपानवायु शुद्ध होती है 1 हठयोग का अर्थ है - प्राण और अपान का योग । 'ह' - सूर्य और 'ठ'–चन्द्र- 'हठ' का अर्थ है - सूर्य और चन्द्र का मिलना । रहस्यवादी कविगण ने सूर्य और चांद के मिलने की चर्चा की है। सूर्य और चांद का मिलन अर्थात् रात और दिन का मिलन | सूर्य और चांद का मिलन नाभि में होता है । मूलबन्ध के साथ श्वास को नाभि में ले जाने से प्राण और अपान का योग होता है, वैषम्य का विनाश होता है। वैषम्य ही मानसिक रोग, शारीरिक रोग और पाप है । साम्य ही स्वस्थता और धर्म Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपानवायु और मनः शुद्धि १५१ है । साधु के लिए विधान है कि वह गोचरी से आने के बाद भोजन से पूर्व क्षण भर विश्राम करे - वीसमेज्ज खणं मुणी' । तेज चलकर आने से धातुएं विषम बन जाती हैं । उस समय खाया हुआ अमृत भी जहर बन जाता है। पं. लालन ने आचार्यश्री से कहा- “साधुओं के बीमार होने का एक कारण उनकी गोचरी है । गोचरी से आते ही जो आहार करते हैं, वे बीमारी को निमंत्रण देते हैं । कठोर परिश्रम के बाद तत्काल खाने और पीने से रोग पैदा हो जाते हैं। धातुओं को सम करने के लिए दस-पन्द्रह मिनट तक विश्राम करना चाहिए ।" मन की उच्चावच अवस्था में भी नहीं खाना चाहिए । क्रोध, काम-वासना, लोभ आदि मानसिक भावों में किया गया भोजन विष रूप में बदल जाता है । विषमता आध्यात्मिक दोष ही नहीं है किन्तु शारीरिक और मानसिक दोष भी है । समता आध्यात्मिक गुण ही नहीं अपितु शारीरिक और मानसिक गुण भी है । प्राण और अपान की विषमता यानी शरीर और मन की अस्वस्थता । प्राण और अपान की समता यानी शरीर और मन की स्वस्थता | मनः शुद्धि मन क्या है? जो चेतना बाहर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है। शरीर का अस्तित्व जैसे निरन्तर है वैसे भाषा और मन का अस्तित्व निरन्तर नहीं है, किन्तु प्रवाहात्मक है । 'भाष्यमाणा' भाषा होती है । भाषण से पहले भी भाषा नहीं होती और भाषण के बाद भी भाषा नहीं होती । भाषा केवल भाषणकाल में होती है- 'भासिज्जमाणी भासा' । इसी प्रकार 'मन्यमान' मन होता है । मनन से पहले भी मन नहीं होता और मनन के बाद भी मन नहीं होता । मन केवल मनन काल में होता है - 'मणिज्जमाणे मणे' । मन एक क्षण में एक होता है- 'एगे मणं तंसि तंसि समयंसि' । मन का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है । इन्द्रियों के स्पर्श आदि पांच विषय हैं । इन विषयों में सारी वस्तुएं समाविष्ट हैं । इन्द्रियों द्वारा हम हर वस्तु को और उसके स्थूल रूपों को पकड़ते हैं । शीत और उष्ण के स्पर्श से वस्तु का ज्ञान होता है । आम के रस के स्वाद से हम आम को पहचान लेते हैं । रस ही आम नहीं है । उसमें रूप भी है, पर हम इसके द्वारा उसको पहचान लेते हैं। गंध के द्वारा भी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति बाह्य-जगत् से हमारा सम्पर्क होता है। रूप और संस्थान भी सम्पर्क के माध्यम हैं। शब्द के माध्यम से भी हमारा बाह्य-जगत् से सम्बन्ध जुड़ता है। मन का बाह्य से सीधा सम्पर्क नहीं होता। वह इन्द्रियों के माध्यम से होता है। बुद्धि और मन में भेद क्या है? बुद्धि और मन एक ही चेतना के तारतम्य रूप हैं। सूर्य एक है, पर उसका प्रकाश खण्ड-खण्ड होकर खिड़की आदि अनेक द्वारों से आता है। उससे अनेक द्वारों के अनेक रूप बन जाते हैं। वर्षा का एक ही जल तालाब, गड्ढे और समुद्र में जाकर भिन्न-भिन्न रूप ले लेता है। जयाचार्य ने लिखा है-एक चौकी रेत में दब गई। कहीं से खोदा तो उसका एक कोना दिखाई दिया। दूसरी ओर खोदने से दूसरा कोना दिखाई दिया। चार कोने चार वस्तुएं बन गईं। पूरी खुदाई से वह एक अखण्ड चौकी हो गई। वैसे ही हमारी चेतना का जितना आवरण हटता है, वहां उनका रूप भिन्न-भिन्न हो जाता है। बुद्धि, इन्द्रिय और मन एक ही चेतना के तारतम्य रूप हैं। वास्तव में साम्यावस्था ही मनःशुद्धि है। सामायिक का भी यही अर्थ है। साधु जीवन एक प्रकार से सामायिक ही है पर उसमें भी साम्य की विशेष साधना की अपेक्षा है। इसलिए उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा-'अनुत्तरं साम्यमुपैति योगी'। योगी जन विशेष साम्य का अनुभव करते हैं। विषमता के अनेक हेतु हैं-सम्मान, अपमान, आज्ञा, अनुशासन आदि। जब तक ये मानदण्ड रहते हैं तब तक पुत्र यदि पिता की आज्ञा नहीं मानता है तो पिता को गुस्सा आ जाता है, क्योंकि यह उसके सम्मान को ठेस है। पत्नी यदि पति की अवज्ञा कर देती है तो पति की शान्ति भंग हो जाती है। इसलिए जब तक ये मानदण्ड नहीं बदलते तब तक मानसिक समाधि नहीं रह सकती। सृष्टि का स्वरूप ही द्वन्द्वात्मक है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान, जीवन-मृत्यु आदि विरोधी युगल हमारे सामने हैं। इसीलिए योगी को इनमें सम रहने का उपदेश किया गया है। लाभ में हर्ष और और अलाभ में खेद विषमता का प्रतीक है। समता आत्मानन्द है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि समता से मनुष्य प्रवृत्ति-शून्य हो जाता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपानवायु और मनःशुद्धि १५३ समता तो पुरुषार्थ की प्रतीक है। बाह्य-निवृत्ति का अर्थ है-अन्तःप्रवृत्ति। क्योंकि जो भी अस्तित्व-धर्मा पदार्थ है, उसमें क्रियाकारित्व अवश्य है। न्यायशास्त्र में सत् की परिभाषा है- 'अर्थक्रियाकारित्वं हि सत्'। अतः बिना क्रिया के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं हो सकती। जैन-दर्शन में पदार्थ को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक माना गया है। उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता उसके अवश्यंभावी गुण हैं। अतः अर्थ-क्रिया के बिना पदार्थ रह ही नहीं सकता। जिसमें ये तीनों नहीं हैं, वह अपदार्थ है, जैसे आकाश-कुसुम। अतः आत्मा यदि अस्तित्वधर्मा पदार्थ है तो वह क्रिया-शून्य हो ही नहीं सकता। वास्तव में धर्म स्वीकृत नहीं अपितु आत्मा का सहज गुण है, यह उद्भूत है। जो इस स्वरूप को समझ लेता है, वह तीनों ही लोकों का स्वामी बन जाता है। सामान्यतः हम लोग समझते हैं कि मन चंचल है। उसमें विक्षेप होता है। उससे अशुद्धि भर जाती है। पर विक्षेप वहां होता है, जहां इन्द्रिय, मन और पवन की विषमता होती है। इनकी समता होने पर विक्षेप अपने आप समाप्त हो जाता है। समता की स्थापना का माध्यम है-समताल श्वास। जितनी मात्रा में एक श्वास लिया, उतनी मात्रा में दूसरा, तीसरा श्वास लिया। यह समताल श्वास है। समस्वर और समलय में तन्मयता के साथ शक्ति भी विकसित होती है। मनःशुद्धि का एक प्रकार नाड़ी-संस्थान के दर्शन का भी है। लेटकर दाहिने पैर के अंगूठे पर ध्यान केन्द्रित करने से मन शान्त हो जाता है। वस्तुतः स्नायविक रचना बड़ी दुर्गम है। जो व्यक्ति इसे पहचान लेता है, वह बहुत बड़े-बड़े काम कर सकता है। मैं कुछ ऐसे व्यक्तियों को भी जानता हूं, जिनके पास कोई विशेषज्ञता नहीं है पर उन्हें कोई स्नायु-रहस्य प्राप्त हो गया और वे मामूली झटके से ही भयंकर पेट-दर्द आदि रोगों की चिकित्सा कर देते हैं। आकाश-दर्शन से भी ध्यान केन्द्रित होने में सहयोग मिलता है। क्योंकि आकाश अनन्त है। अनन्त का दर्शन स्वभावतः ही हमें अपनी आत्म-अनन्तता का बोध कराता है और हम अपने आप में खो जाते हैं। इसीलिए कई योगी केवल आकाश-दर्शन की पद्धति से भी ध्यान करते हैं। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति मनः शुद्धि के साथ दृढ़ता से एक विचार पर ध्यान केन्द्रित करने से हम विचार संप्रेषण भी कर सकते हैं । ५. स्नायविक तनाव का विसर्जन स्नायविक तनाव के विसर्जन को ही दूसरे शब्दों में शिथिलीकरण कहा जा सकता है । उसकी आवश्यकता तब होती है जब शरीर में तनाव हो । इसलिए शिथिल होने के लिए यह समझना आवश्यक है कि तनाव क्या तथा वह क्यों पैदा होता है? आजकल तनाव शब्द बहुप्रचलित हो गया है । क्योंकि उद्योगीकरण जितना बढ़ रहा है, उससे मानसिक तनाव भी उतने ही बढ़ रहे हैं । पिछले चातुर्मास में जापान के सहायक राजदूत आचार्यश्री के पास आए थे । आचार्यश्री ने उनसे प्रश्न किया, 'क्या आप भी कभी शिथिलीकरण - कायोत्सर्ग करते हैं? उन्होंने बताया, 'हमारे देश में तो कायोत्सर्ग बहुत प्रचलित है।' इसी प्रकार अमेरिका तथा जर्मनी के विशेषज्ञों ने भी बताया कि कायोत्सर्ग के बिना हमारे देश में तो जीना भी बहुत कठिन है। बल्कि जापान में तो विश्वविद्यालय से निकलने वाले अधिकांश विद्यार्थियों को छह महीने के लिए एकान्त में इसका प्रशिक्षण लेना आवश्यक होता है । उसके बाद ही वे कर्मक्षेत्र में उतरते हैं । यही कारण है कि वहां के लोग बहुत परिश्रमी होते हैं । उन्होंने बताया कि भारतीय लोग बोलते अधिक हैं, काम कम करते हैं । इसका प्रमुख कारण यही है कि यहां के लोग कायोत्सर्ग नहीं करते। इसीलिए इनमें अनुशासन का भाव भी कम होता है । यह सच है कि श्रम से तनाव बढ़ता है। यह भी सच है कि शारीरिक श्रम से उतना तनाव नहीं बढ़ता जितना कि मानसिक उलझनों से बढ़ता है । मानसिक तनाव के प्रमुख कारण हैं-भय, घृणा, क्रोध, कपट आदि । भय- इससे मनुष्य में अस्वाभाविक वृत्तियां पैदा होती हैं । सचमुच भय के परिणाम कल्पनातीत होते हैं । मनोवैज्ञानिकों ने भी इस पर बहुत प्रकाश डाला है । भय के बारे में अनेक अनुसंधान हुए हैं। आयुर्वेदिक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नायविक तनाव का विसर्जन १५५ तथा होम्योपैथिक पद्धति में भी इस पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है। उनका कहना है कि भय से शरीर में ऐंठन पैदा होती है। इससे स्नायुओं पर अस्वाभाविक दबाव पड़ता है और वे कार्य करने में अक्षम बन जाते हैं। यह तो हम स्पष्ट देखते हैं कि भय के समय हमारे शरीर की क्या स्थिति होती है। सारे शरीर में एक प्रकार की सिकुड़न-सी पैदा हो जाती है। कभी-कभी तो आकस्मिक भय से हार्ट फेल तक हो जाता है। शास्त्रों में अकाल-मृत्यु के सात कारणों में से भय को भी एक कारण माना है। वैज्ञानिक लोग भी इसका समर्थन करते हैं। घृणा-घृणा की अभिव्यक्ति को साहित्य में नाक-भौंह सिकोड़ना कहकर बताया गया है। इससे स्पष्ट है, जब हमारे मन में घृणा के भाव आते हैं, तब शरीर में अपने आप तनाव आ जाता है। उससे रक्त-क्रिया में परिवर्तन हो जाता है तथा क्षीणता प्राप्त होती है। क्रोध-यह तो प्रमाणसिद्ध बात है कि क्रोधी मनुष्य के मन में हमेशा तनाव बना रहता है। इससे वह किसी भी कार्य को मुक्तभाव से नहीं कर पाता। वैज्ञानिकों ने क्रोधी मनुष्य के रक्त को निकालकर उसे चूहों के शरीर में प्रविष्ट करवाया तो उनमें विचित्र हरकत पैदा हो गई; यहां तक कि कई चूहों की तो उससे मृत्यु भी हो गई, क्योंकि क्रोधि से रक्त में विषाणु फैल जाते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि माता यदि क्रोध के समय बच्चे को स्तनपान कराए तो उससे कभी-कभी बच्चे की मृत्यु तक भी हो जाती है। हमने राजस्थान में एक घटना सुनी थी। एक गांव में बहुत ही शान्त प्रकृति का व्यक्ति था। साधारणतया उसे कभी क्रोध नहीं आता था। पर एक दिन अध्यापक ने उसके लड़के को पीट दिया। उसे जब इस बात का पता चला तो इतना गुस्सा आया कि उस आवेश में वह उसी समय स्कूल की तरफ चल पड़ा। पर वह थोड़ी ही दूर गया था कि इतने में उसे हृदय का दौरा पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। कपट-दूसरों को ठगना बहुत प्रिय होता है। बल्कि उस मनुष्य को होशियार माना जाता है जो चतुराई से दूसरों को ठग सके। पर इससे मानसिक तनाव बहुत बढ़ जाता है। क्योंकि जब हम किसी को ठगते हैं तो इसका अर्थ होता है कि वस्तु के प्रति हमारे मन में तीव्र आसक्ति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्तिन है। आसक्ति जब घनीभूत हो जाती है तब मन में तनाव पैदा होता है। प्रेम का ही उदाहरण लें। प्रेमी व्यक्ति की जिसमें आसक्ति हो जाती है, उसे हर क्षण वही-वही दीखता है, उसकी भूख और नींद भी हराम हो जाती है। इससे अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ____डॉक्टरों ने अनुसंधान करके पता लगाया कि सौ में से साठ रोग तो केवल मानसिक होते हैं। दस-बीस प्रतिशत रोग शारीरिक होते हैं। कुछ रोग कीटाणुओं के कारण भी होते हैं। पर वे भी इसीलिए कि मनुष्य की रोगों से लड़ने की क्षमता क्षीण हो जाती है। हमारे शरीर में लाल अणु जितने कम होते हैं, उतनी ही हमारी प्रतिरोध-शक्ति कम होती चली जाती है। यह सब मानसिक उलझन की ही देन है। इसलिए बाह्य रोग भी हमारे पर तभी प्रभाव डाल सकते हैं जबकि हमारे मन में उलझन हो। ___ भौतिक दृष्टि से अमेरिका बहुत समृद्ध देश है। पर वहां बीमारियों की संख्या बहुत अधिक है। कहते हैं कि वहां पैंतालीस प्रतिशत व्यक्ति मानस-रोगी हैं। भारत भौतिक दृष्टि से यद्यपि काफी पिछड़ा देश है पर मानसिक रोगियों की संख्या यहां पन्द्रह प्रतिशत ही है। कारण इसका स्पष्ट है कि यहां मानसिक तनाव उतना नहीं है। शहरी सभ्यता के साथ-साथ मानसिक द्वन्द्व भी बढ़ते हैं। गांवों में यह स्थिति कम रहती है। यद्यपि वहां खान-पान, रहन-सहन अत्यन्त साधारण है, फिर भी ग्रामीण लोग शहरी लोगों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ रहते हैं क्योंकि उनके मानसिक तनाव अत्यन्त अल्प होते हैं। मानसिक तनाव के और भी अनेक कारण हैं। पर उनके प्रतिकार का जो साधन है, वही साधना है। कायोत्सर्ग इसका प्रमुख साधन है। मन को सबल बनाए बिना मानसिक उलझन कभी नहीं मिट सकती। अतः मन को सबल बनाना स्नायविक तनाव से मुक्ति पाने का प्रथम सोपान है। इसे ही दूसरे शब्दों में ग्रन्थिमोक्ष कहा जा सकता है। कायोत्सर्ग की तीन प्रक्रियाएं हैं-सोकर, बैठकर तथा खड़े होकर करना। तीनों में सोकर करने वाली प्रक्रिया सबसे सुगम है। इसमें पहले-पहल आंखें मूंदकर सीधा लेटना होता है। उसके बाद हाथों को ऊपर कर यथाशक्ति सांस भरकर सारे शरीर में तनाव पैदा करना होता है। फिर सांस को धीरे-धीरे छोड़ते हुए सहज स्थिति में आना होता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नायविक तनाव का विसर्जन १५७ यह क्रम तीन बार होता है। इससे रक्त-संचार की बाधा समाप्त हो जाती है और कार्बन बाहर निकल आता है। तदनन्तर धीरे-धीरे सांस को बाहर निकालकर हाथ-पैरों को सुविधानुसार फैलाकर शरीर को शिथिल कर दिया जाता है। इस अवस्था में सांस बिलकुल धीमा और सहज हो जाता है। यही पहली क्रिया है। उसके बाद मानसिक क्रिया प्रारम्भ होती है। आंखें मूंदकर दृष्टि को सबसे पहले सिर पर, फिर क्रमशः आंख, नाक, कण्ठ, हाथ, छाती, पेट, जांघ, ऊरु, पैर तथा अंगुलियों पर केन्द्रित करना होता है। प्रत्येक पर ध्यान केन्द्रित होते समय यह चिन्तन चलाते रहना है कि मेरा वह अवयव अवश्य शिथिल हो रहा है। पैर की अंगुलियों पर ध्यान केन्द्रित करते समय यह चिन्तन रहता है कि मेरा तनाव इस मार्ग से, अंगुलियों से, बाहर निकल रहा है। यह दूसरी क्रिया है। - इसके बाद मांसपेशियों को शिथिल करने का क्रम चलता है। नीचे से लेकर ऊपर तक दृष्टि को मांसपेशियों पर केन्द्रित कर उन्हें क्रमशः शिथिल होने की सूचना दी जाती है। यह तीसरी क्रिया है। चौथी क्रिया ममत्व-विसर्जन की है। जब तक शरीर के प्रति थोड़ा भी ममत्व रहता है, मन में कोई उलझन रहती है, तब तक कायोत्सर्ग पूर्णतः नहीं सध पाता। जब व्यक्ति अपने आपको भूल जाए तब उसे समझ लेना चाहिए कि उसका कायोत्सर्ग सध रहा है। जैनेन्द्र-मनुष्य को जब तक 'मैं हूं-'अहम् अस्मि' का अनुभव होता रहता है, तब तक वह लीन नहीं हो सकता। अतः 'वह है' के चिन्तन में ही अहम् से मुक्ति मिल सकती है। 'वह' अखण्ड तत्त्व का . प्रतीक बनता है, 'मैं' खण्डित बोध का। इसीलिए जिस प्रक्रिया में अहं का विसर्जन होता है वही कायोत्सर्ग है। कुछ भक्त भजन में इतने लीन हो जाते हैं कि अपने आपको भूल जाते हैं। इस अवस्था में वे जो कहें, वह इतना संवेदनपूर्ण हो जाता है कि उसका प्रभाव अचूक होता है। विचार-संप्रेषण इसी तन्मयता की उपलब्धि है। जब 'मैं' 'वह' में लीन हो जाता है तो उस एकाग्रता में विचार अपने आप अतिक्रान्त होने लग जाते हैं। इसमें देश की दूरी भी व्यवधान नहीं बन सकती। मुनिश्री-इसे लययोग कहा जाता है। योग के अनेक प्रकार Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति हैं-जपयोग, लययोग, ध्यानयोग आदि। पर सब योगों की अन्तिम शर्त है-आत्मा, इन्द्रिय तथा मन की एकलयता। शिष्य का अर्थ ही यही है कि वह गुरु में अपने आपको लीन कर दे। यदि शिष्य गुरु में लीन नहीं होता है तो उसे बौद्धिक उपलब्धि भले ही हो जाए पर उससे परे जो आत्मोपलब्धि है वह नहीं हो सकती। प्राचीन आचार्य शिष्यों को पढ़ाते बहुत थोड़ा थे और अपना काम ज्यादा करवाते थे। वस्तुतः जो शिष्य गुरु में लीन हो जाता था, वह दिनभर गुरु की सेवा में तन्मय रहता था। जब कभी गुरु. उसे थोड़ा-बहुत ज्ञान दे देते उससे उसकी आत्मा जागृत हो जाती थी। आत्मजागृति के सामने बौद्धिक उपलब्धि अत्यन्त तुच्छ वस्तु है। वास्तव में जो दूसरों में अपने आपको लीन नहीं कर देता वह सदा अपने आप में उद्विग्न और चिन्तित रहता है। इस सारे चिन्तन से हम एक ऐसे स्थल पर पहुंचते हैं, जहां शरीर और आत्मा भिन्न नहीं रह पाते। मेरे विचार से आध्यात्मिक प्रक्रियाओं द्वारा शरीर को स्वस्थ करने की एक बहुत ही समर्थ विधि विकसित की जा सकती है। साधना-केन्द्र में यदि इस आध्यात्मिक चिकित्सा का प्रयोग किया जा सके तो सचमुच यह एक सर्वथा नवीन पद्धति होगी। मानसिक चिकित्सा से भी यह विधि अधिक सार्थक सिद्ध हो सकती है। प्राकृतिक चिकित्सा पर तो आज काफी बल आ ही रहा है, पर अमेरिका में आजकल कुछ ऐसे भी चिकित्सक हैं जो केवल श्वास-प्रक्रिया से रोगों को ठीक कर देते हैं। ६. ग्रन्थि-मोक्ष हम ग्रन्थि से अपरिचित नहीं हैं। रस्सी में, पेड़ में, शरीर में हमें गांठे देखने को मिलती हैं। जैसे बाह्य द्रव्यों में गांठें घुलती हैं, वैसे ही मन में भी घुलती हैं। बाह्य ग्रन्थियो की अपेक्षा मानसिक ग्रन्थियां अधिक जटिल होती हैं। मानसिक ग्रन्थियों के मूल कारण हैं : १. मिथ्यादर्शन, २. मानसिक आकांक्षा, ३. कुटिलता। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थि-मोक्ष १५६ मिथ्यादर्शन-यह ग्रन्थिपात का प्रमुख कारण है। हमारी मान्यताएं जितनी विपर्यस्त होती हैं उतनी ही मानसिक ग्रन्थियां पड़ती हैं। उनसे हम यथार्थ को छोड़ अयथार्थ को स्वीकार कर लेते हैं। कहीं हम संदिग्ध हो जाते हैं और कहीं विपर्यस्त। एक के प्रति सन्देह होने से उसके प्रति अनायास विरोध के भाव जागते हैं और उसे हम शत्रु मान बैठते हैं। सम्राट् श्रेणिक की रानी चिल्लणा सो रही थी। हाथ बाहर रह गया था। सर्दी से रानी का हाथ ठिठुर गया। जब वह जगी तो उसके मुंह से निकला, 'वह क्या करता होगा! राजा ने इस वाक्य को सुना। उसने निर्णय किया, रानी का आचरण अच्छा नहीं है, यह किसी से प्रभावित है। प्रातःकाल होते ही राजा ने अभयकुमार को आदेश दिया कि 'महल जला डालो।' महल को जलाने के पीछे राजा का सन्देह था। रानी के मुंह से अनायास ही मुनि की स्थिति फूट पड़ी, जो खुले में ध्यान कर रहा था और जिसे कल ही रानी ने देखा था। ऐसा कौन है, जो सन्देह के कारण ऐसा नहीं करता। स्थल में चाकचिक्य के कारण जल की कल्पना कर मृग दौड़ता है, वैसे हम विपर्यस्त दृष्टिकोण से चलते हैं। अशाश्वत को शाश्वत, आत्म को अनात्म और दुःख को सुख मान लेते हैं। आज का धनी-वर्ग और शासक-वर्ग इसी आधार पर चल रहा है। क्या सत्ता का जो प्रयोग हो रहा है, वह वांछनीय है? क्या इतना धन संग्रह करना वांछनीय है? यह सब विपरीत दृष्टिकोण के कारण हो रहा है। ___ मानसिक आकांक्षा-हरेक को जीवन की प्राथमिक आवश्यकता पूरी करनी होती है पर आकांक्षा उससे आगे चलती है। दूध पीने पर रसानुभूति होती है। जब वह आकांक्षा में बदल जाती है, तब वह अनबन्ध बन जाती है। एक दिन दूध पीने से वासना नहीं होती। जो प्रतिदिन दूध पीता है, वह यदि एक दिन नहीं पीता तो उसे कमी का अनुभव होता है। वह कोरी आवश्यकता ही नहीं है, उससे अतिरिक्त भी है, वह है-आकांक्षा। प्रतिदिन का अभ्यास इतना पुष्ट बन जाता है कि आवश्यकता आकांक्षा का रूप ले लेती है। कोई भी शरीरधारी अपेक्षा से मुक्त नहीं है पर उसमें तरतमता होती है। जल की लकीर, बालू की लकीर, मिट्टी की लकीर और पत्थर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति की लकीर में जैसे तरतमता है वैसे ही अपेक्षा में तरतमता होती है। जो अपेक्षा जल की लकीर की तरह होती है, वह आवश्यकता-भर है। जो बालू की लकीर के समान है, वह थोड़ी-सी अतृप्ति है। जो मिट्टी की लकीर के समान है, उसमें आकांक्षा की मात्रा बढ़ जाती है। जो पत्थर की लकीर के समान है, उसमें आवश्यकता गौण हो जाती है और वह आकांक्षा अनन्तानुबंधी बन जाती है। अतृप्ति को तृप्त करने के प्रयत्न से तृप्ति नहीं होती परन्तु अतृप्ति बढ़ जाती है, एक के बाद दूसरी अतृप्ति उभर आती है। तर्कशास्त्र में इसे अनवस्था कहा जाता है। एक कपड़े को साफ रखने के लिए उस पर खोली चढ़ाते हैं। उसे साफ रखने के लिए उस पर दूसरी, दूसरी को साफ रखने के लिए तीसरी, चौथी और पांचवीं-इस प्रकार क्रम बढ़ता ही जाता है। अतृप्ति का कहीं अन्त नहीं आता। अनवस्था का यही स्वरूप है। कुटिलता- कुटिलता ग्रन्थिपात का एक चरण है। माया अर्थात् ग्रन्थिपात, आर्जव यानी ग्रन्थि-मोक्ष। ऋजु व्यवहार के पहले, पीछे और वर्तमान में मानसिक जटिलता नहीं होती, इसलिए उसमें ग्रन्थिपात का अवसर नहीं आता। कुटिल व्यवहार में पहले, पीछे और वर्तमान में मानसिक जटिलता होती है, इसलिए उस स्थिति में ग्रन्थियां पड़ती हैं। ग्रन्थि-मोक्ष की तीन पद्धतियां हैं-(क) आत्मविश्लेषण की, (ख) निर्देशन, (ग) निरसन। आत्म-विश्लेषण की पद्धति मनोवैज्ञानिक है। आत्म-विश्लेषण प्राच्य भाषा में प्रायश्चित्त है। जो अकृत हो जाता है, उससे मन में द्वन्द्व होता है, उससे मन में ग्रन्थि घुलती है। आत्म-विश्लेषण या प्रायश्चित्त से वह खुलती है। निर्देशन-इसका अर्थ है, स्वतः सूचना। यह भारतीय योग की प्रक्रिया है। इससे मानसिक स्वभाव में परिवर्तन आता है। स्वतः सूचना से मानसिक ग्रन्थि टूट जाती है। पूरक (श्वास को भीतर लेते समय) काल में निष्ठा के साथ निर्देश देने से बहुत बड़ा लाभ होता है। सोते समय निर्देश देना भी शीघ्र फलदायी होता है। इस विधि से दिए गए निर्देश तीन मिनट में रक्त के साथ सारे शरीर में व्याप्त हो जाते हैं। श्वास को लम्बाना आवश्यक है। निर्देश से दुरभिसन्धि भी मिट जाती है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थि-मोक्ष १६१ निरसन-यह निर्जरण की प्रक्रिया है। निर्देशन ग्रन्थि को खोलता है और निरसन तोड़ता है। निरसन में चैतन्य इतना प्रबल हो जाता है कि मानसिक चंचलता टिक नहीं सकती, ग्रन्थि टूट जाती है। उसमें सत्य के प्रति आग्रह होता है। बुद्ध ने इसी आग्रह की भाषा में कहा था 'इहासने शुष्यतु मे शरीरं, त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु । अप्राप्य बोधिं बहुकालदुर्लभां, नैवासनात्कायमिदं चलिष्यति ॥' सत्य के प्रति आग्रह होने पर ग्रन्थि-भेद हुए बिना नहीं रहता। जितने महापुरुष हुए हैं, उन सबने सत्य के प्रति आग्रह का व्रत लिया था। आग्रह इतना दृढ़ किया कि कार्य-सिद्धि या शरीर का पात। ऐसे दृढ़ आग्रह से ग्रन्थि-छेद सरलता से हो सकता है। निरसन की पद्धति तपस्या की पद्धति है। यह पद्धति निषेध, अस्वीकार या आत्मोन्मुखता की पद्धति है। इससे आत्मविमुखता मिट जाती है। ____ आत्म-विश्लेषण ग्रन्थि को सुलझाता है, निर्देशन ग्रन्थि को खोलता है और निरसन ग्रन्थि को तोड़ना है। ग्रन्थि मोक्ष का परिणाम सरलता-जीवन की सहजता है। वक्रता और सरलता जीवन के दो पक्ष हैं। जितना टेढ़ापन है, वह जीवन में समस्याएं उभारता है। वास्तविक समस्याएं हमारे जीवन में बहुत नहीं हैं, उनका ताना-बाना मनुष्य स्वयं बुनता है। कुछ लोग सोचते हैं, ऐसा युग आ गया, ऐसा शासन आ गया जो समस्याएं बढ़ रही हैं। समस्याएं बाह्य वृत्त में हो सकती हैं पर उनसे आपको कष्ट नहीं होता। आपको कष्ट तभी होता है, जब आप उनको अपने मन में संजोते हैं। मन का दरवाजा टूटा हुआ होता है, हर कोई भीतर घुस सकता है। यदि वह मजबूत हो तो बाहर का कोई असर नहीं होता। खिड़की बन्द करने से बाहर की शीत लहर भीतर प्रवेश नहीं कर पाती, क्योंकि निरोध मतबूत है। यही स्थिति परिस्थिति की है। यदि मानसिक चंचलता होती है तो वह बाहर की परिस्थिति को तत्काल पकड़ लेती है। एक व्यक्ति प्रतिकूल बात सुनकर टाल देता है। दूसरा उसे बुरा मानकर कुछ करता है और तीसरा उसे अन्याय मान तत्काल प्रतिकार की बात सोचता है। उसके लिए भयंकर घटना बन जाती है। घटना समान होने पर भी अनुभूति की Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भिन्नता है। जिसका मन जितना तरल है, वह उतना ही बाह्य परिस्थिति से प्रभावित होगा। मन की शान्ति नितान्त घटना से नहीं, मानसिक चंचलता से भंग होती है। मानसिक शान्ति के लिए घटना और घटनाजनित परिणाम का विश्लेषण होना आवश्यक है। ... जैनेन्द्र-शान्ति श्मशान की शान्ति नहीं होनी चाहिए। जड़ शान्ति में चैतन्य कुण्ठित हो जाता है। . मुनिश्री-मैं परिस्थिति से आंख-मिचौली करने वाली कृत्रिम शान्ति की बात नहीं कर रहा हूं। अन्याय के प्रतिकार को मैं शान्ति-भंग नहीं कह रहा हूं। मैं उस शान्ति की बात कह रहा हूं, जिसमें प्रतिकार की शक्ति सुरक्षित है, जिसे प्रतिगामी चुनौती नहीं दे सकता, प्रतिकार की क्षमता से विचलित कर स्वयं को आकुल नहीं बना सकता। मन की स्थिति सुदृढ़ होने पर वह अग्राह्य को छोड़ देता है, जैसे चलनी आटा छानती है उसमें अग्राह्य अंश शेष रह जाता है। कुटिलता व्यक्त होने पर ऋजुता शेष रहती है। ग्रन्थि-मोक्ष अपने आप हो जाता है। ७. संकल्प-शक्ति का विकास हमारे शरीर में दो केन्द्र हैं-ज्ञान केन्द्र और क्रिया केन्द्र। दो नाड़ी-क्रम हैं-ज्ञानवाही नाड़ी-क्रम और क्रियावाही नाडी क्रम। ज्ञानवाही नाड़ियों का सम्बन्ध ज्ञान-केन्द्र से है और क्रियावाही नाड़ियों का सम्बन्ध क्रियाकेन्द्र से। मनोविज्ञान के अनुसार मानस की प्रवृत्तियों के तीन पक्ष हैं-ज्ञानपक्ष, वेदनापक्ष और क्रियापक्ष । ज्ञान और क्रिया में कोई दूरी नहीं होती, यदि मनुष्य वेदनाशील नहीं होता। पेट ठीक न होने से विवेक कहता है, आज दूध नहीं मट्ठा लेना चाहिए। यह विवेककृत मोड़ या परिवर्तन है। विवेक की अपेक्षा आस्था का स्थान पहला है। संकल्प का कार्य है-ज्ञान को आस्था में बदलना। संकल्प, जप और भावना-ये तीन शब्द हैं। पतंजलि ने जप शब्द का प्रयोग किया। जैन-साहित्य में भावना शब्द है और आधुनिक साहित्य में संकल्प शब्द अधिक व्यवहृत है। तीनों शब्दों के तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। जप का अर्थ है-तदर्थभावित होना। जप्य से इतना Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकल्प-शक्ति का विकास १६३ भावित हो जाना कि जप्य और जापक में भेद ही प्रतीत न हो। ___ आयुर्वेद में लवणभास्कर को नींबू से भावित किया जाता है। आमलकी रसायन स्वरस भावित होता है, आंवलों के रस में आंवलों की घुटाई होती है। द्रव्य में अन्तर नहीं होने पर भावना से गुणों में अन्तर आ जाता है। जिन द्रव्यों को जिससे भावित किया जाता है, उसकी ही प्रधानता हो जाती है। पांच पुटी अभ्रक और एक हजार पुटी अभ्रक के गुणों में बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है। कई संकल्प करते हैं पर घुटाई नहीं करते। दो-चार बार संकल्प दोहराने से उतना फल नहीं मिलता जितना चाहते हैं। घुटाई करने में समय लगता है। जितना समय लगेगा, उतनी ही वस्तु भावित होगी। जिससे भावित करेंगे, उसमें उसके ही गुण प्रधान रहेंगे। नींबू की भावना में नींबू का और अनार के रस की भावना में अनार का गुण प्रमुख रूप से रहेगा। यही हमारे मन की प्रक्रिया है। मन को भी जिस भावना से भावित किया जाएगा, उसमें वैसा ही स्थायीभाव बन जाएगा। आस्था भिन्न-भिन्न होने का यही कारण है। आस्था के निर्माण में संकल्प का योग महत्त्वपूर्ण है। ____ मंत्र-शास्त्र की प्रक्रिया में संकल्प-शक्ति का बहुत बड़ा योग हैं। संकल्प के लिए सात शुद्धियों की अपेक्षा है : १. द्रव्यशुद्धि-व्यक्ति का अंतरंग क्रोध, दंभ और ईर्ष्या से मुक्त. तथा ऋजु-सरल होना चाहिए। २. क्षेत्रशुद्धि-स्थान शान्त और पवित्र होना चाहिए। ३. समयशुद्धि-तीन संध्या-प्रातः, मध्याह्न, सायं। ४. आसनशुद्धि-ध्यानासनों में, कंबल, काष्ठपट्ट या जमीन पर। ५. विनयशुद्धि-उच्चारण में उपयुक्त स्थल पर विराम। ६. मनःशुद्धि। ७. वचनशुद्धि। संकल्प के तीन प्रकार हैं-वाचिक, उपांशु और मानसिक। वाचिक-जो उच्चारणपूर्वक किया जाता है। उपांशु-बाहर भाषा नहीं, किन्तु होंठों के भीतर शब्द होते हैं। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति जप उनका करना चाहिए जो हमारे आदर्श हैं। इसस आस्था का निर्माण होता है। वीतराग (पवित्र आत्मा) के जप से मन उसी भावना से रंग जाता है। हर शब्द की शरीर पर क्रिया होती है। भिन्न-भिन्न शब्द का भिन्न-भिन्न रोगों पर असर पड़ता है। इसी आधार पर शब्द-चिकित्सा चली। शब्द वायुमण्डल में प्रकम्पन पैदा करता है और स्फोट भी करता है। वह अणु-स्फोट से कम प्रभावी नहीं है। संकल्प विधायक होना चाहिए। 'मैं क्रोध नहीं करूंगा', इसके स्थान पर 'मेरा प्रेम बढ़ रहा है'-ऐसा संकल्प होना चाहिए। ऋणात्मक की अपेक्षा धनात्मक अधिक फल लाता है। संकल्प की विधेयात्मकता में नकारात्मकता स्वयं लीन हो जाती है। भगवती सूत्र का एक प्रसंग है। भगवान् महावीर से पूछा गया-'भगवन्! अग्निपक्व अन्न वनस्पतिकाय है या तैजसकाय? उत्तर मिला-'तैजसकाय।' वह तेजस् से भावित हो गया, इसलिए जो अन्न वनस्पति था वह तैजस हो गया। यह तादात्म्य है। इसमें पूर्वावस्था उत्तरावस्था में विलीन हो जाती है। संकल्प लम्बे समय तक किया जाए, यह उसकी सफलता का रहस्य है। लीनता या तादात्म्य-स्थापना के लिए अल्प-काल पर्याप्त नहीं होता। मैं पवित्र हूं, इस संकल्प को कम-से-कम पचास मिनट तक किया जाए और इतनी तन्मयता से किया जाए कि उसमें ध्याता और ध्येय का भेद ही नहीं रहे। ऐसी तन्मयता ही फल लाती है। इसे जैनाचार्य 'समरसीभाव' और पतंजलि ‘समापत्ति' कहते हैं। संकल्प का हृदय शब्दोच्चारण में नहीं है, किन्तु संकल्प और संकल्पकार की एकात्मकता में है। जैनेन्द्र-प्रातःकालीन प्रार्थना के समय जो संकल्प करा रहे हैं, उससे मुझे खतरा दिखाई देता है। मुनिश्री-खतरा क्या है? जैनेन्द्र-मैं ऐसा मानता हूं कि अहं से मुक्त हुए बिना बंधन नहीं कटता। मुनिश्री-अहं को आप बंधन ही क्यों मानते हैं? वह अस्तित्व भी तो है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक एकाग्रता १६५ जैनेन्द्र-मैं अस्मितासूचक अहं की बात कह रहा हूं। मुझे 'मैं आत्मा हूं', इसकी अपेक्षा 'आत्मा है' की भाषा अधिक प्रिय है। ____ मुनिश्री-'मैं आत्मा हूं' इस संकल्प में अस्तिता प्रधान है, अस्मिता नहीं। __ अहं या आत्मा में तन्मयता प्राप्त करने पर व्यक्ति शरीर से विच्छिन्न हो आत्ममय बन जाता है। ८ मानसिक एकाग्रता व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्रों में मानसिक एकाग्रता या ध्यान को आठवां सूत्र क्यों चुना? यह तो पहला होना चाहिए था। यह प्रश्न पैदा होता है और यह बहुत स्वाभाविक है। किन्तु इसके प्रति मेरा दृष्टिकोण यह है-पिछले सात सूत्र प्रारम्भिक हैं, ध्यान की भूमिका के रूप में हैं। यदि वे सध जाते हैं तो ध्यान की साधना सहज हो जाती है। प्रारम्भ में मन की चंचलता का निरोध कठिन होता है। एकाग्रता होने में तीन बाधाएं हैं-स्मृति, कल्पना और वर्तमान की घटना। स्मृति-अतीत की घटनाएं जो घट चुकी हैं, वे निमित्त पाकर उभर आती हैं। बीस वर्ष पहले किसी गांव में गए थे। उस क्षेत्र को देखते ही वहां की स्मृतियां ताजी बन जाती हैं, यह दैशिक-स्मृति है। ग्रीष्म ऋतु आते ही पहले ग्रीष्म की घटनाएं उभर जाती हैं, यह कालिक-स्मृति है। बाह्य वृत्त और व्यक्ति का संधान होते ही स्मृति जाग उठती है और उसमें मन उलझ जाता है। यह वैयक्तिक स्मृति है। कल्पना-स्मृति अतीत की बाधा है तो कल्पना भविष्य की बाधा है। क्या करना है, क्या लिखना है, कहां से रुपये लाना है आदि अनेक कल्पनाएं मन संजोता रहता है। कल्पना वर्तमान में सत्य नहीं होती। अतीत की स्मृति मन को आन्दोलित करती है, वैसे ही भविष्य की कल्पना भी मन को आन्दोलित करती है। वर्तमान की घटना-वर्तमान की घटना भी मन को आन्दोलित करती है। मन तत्काल बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध स्थापित कर आन्दोलित Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति हो जाता है। हम चाहते हैं, हमारा मन आन्दोलित न हो या उतना न हो जितना होता है तो उसके लिए तीनों बाधाओं से मुक्ति पाना अपेक्षित है। उसका मार्ग ध्यान है। तीनों से विच्छिन्नता प्राप्त कर चैतन्य सूत्र को चैतन्य से जोड़ देना यही बस ध्यान है। ध्यान की पुरानी परिभाषा है : 'ज्ञानान्तराऽस्पर्शवती ज्ञानसन्ततिः ध्यानम्।' चैतन्य का वह प्रवाह ध्यान है जो ज्ञानान्तर का स्पर्श न करे। इसमें निरन्तर स्व-द्रव्य का स्पर्श और पर-द्रव्य का अस्पर्श होता है, इसलिए इसे ज्ञान-सन्तति कहा जा सकता है। अपने में लीन होना ध्यान है। आत्मा 'स्व' है और शेष सब 'पर' है। 'पर' से निवृत्त हो शुद्ध आत्मा का चिन्तन लेकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना आत्मज्ञान है। और जो पहले क्षण का ज्ञान है, वही दूसरे-तीसरे क्षण में होता है, क्रम-भंग नहीं होता, यही संतति है। जैसे दीपशिखा है, प्रथम क्षण की लौ चली गई, दूसरी और तीसरी आयी, वह भी चली गई। ऐसा उसमें वर्तमान का अतीत के साथ सम्बन्ध होता है। दीपशिखा की भांति चिन्तन-प्रवाह का वैसा होना ही एकाग्रता है। ध्यान का मुख्य विषय परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है। जो चेतना बहिर्मुखी थी, उसे हटा आत्मा में लीन करना है। जैनेन्द्र-ध्याता और ध्येय-यह द्वैत न हो वहां एकत्व कैसे सम्भव है? आत्मा आत्मा में लीन-यह कैसी स्थिति है? मुनिश्री-आत्मा का आत्मा में लीन होना यह स्थिति का द्वैत है। जिसमें लीन होना है, वह शुद्ध अवस्था है। जिसे लीन होना है, वह बहिर्मुखी अवस्था है। जैनेन्द्र-मुझे ध्यान खतरनाक लगता है। उसे स्व-रति के खतरे से बचना है। थोड़ा ध्यान जिसमें स्वास्थ्य-लाभ हो, जिसका सेवा में उपयोग हो, जिसे आत्मरमण कहते हैं, वह ठीक है, पर आत्म-रमण और स्व-रति में भेद है। आत्म-रमण बड़ा शब्द है। स्व-रति मनोविज्ञान में भी चलता है, वह संकुचित है। भक्त और भगवान् दो हैं। भक्त अपनी ही भक्ति में स्व का द्वैत उत्पन्न करे, फिर एकीकरण करे? - मुनिश्री-द्वैत और एकीकरण, यह दोनों प्रक्रियाओं में समान है। एक जगह भगवान् और भक्त का एकीकरण है तो दूसरी जगह आत्मा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक एकाग्रता १६७ की दो भिन्न स्थितियों का एकीकरण है। सहारे की अपेक्षा हो तो वह उसमें भी है और इसमें भी है। जैनेन्द्र-जो 'स्व' में ही निष्ठ हो गया, होते-होते निकम्मा ही नहीं, विक्षिप्त हो गया। परिस्थिति से सम्बन्ध रह नहीं सका। मुनिश्री-यह परिस्थिति की तुलना में स्व-निष्ठा की बात नहीं है। स्व-निष्ठा का अर्थ चैतन्य है, प्रबुद्धता है और वह प्रबुद्धता जिसमें चैतन्य ही चैतन्य हो। साधनाकाल में ध्याता और ध्येय का विभाग रहता है, सिद्धि-काल में वे दोनों एक हो जाते हैं। जैनेन्द्र-चैतन्य का स्वभाव सिमटकर सीमित होना नहीं है। चेतना बाहर से लौटकर भीतर की ओर नहीं आती, वह बाहर की ओर फैलकर विराट् बन जाती है। मुनिश्री-चैतन्य का भीतर की ओर लौटने का अर्थ सिमटना नहीं किन्तु विस्तार ही है। आप क्षेत्रीय विस्तार की भाषा में कह रहे हैं, मैं शक्ति-विस्तार की भाषा में कह रहा हूं। क्षेत्रीय दृष्टि से तो आकाश भी विराट् है। चैतन्य की विराटता उससे विलक्षण है। जैनेन्द्र-आप कहते हैं, कल्पना को समाप्त कर दो। मैं कहता हूं कल्पना को मुक्त कर दो। मुनिश्री-साधना के कुछ स्तरों में आपकी भाषा मान्य हो सकती है। साधना का स्तर सबका एक नहीं होता। जैनेन्द्र-कल्पना को छोड़ने में लगे हुए अधिक बिखर गए हैं, यह मैंने देखा है। मुनिश्री-उनका आत्मा के साथ ठीक योग नहीं हुआ। जैनेन्द्र-योग शब्द ठीक है। पहले आपने विच्छिन्न कहा। यदि योग है तो यह मैं भी मानता हूं। मुनिश्री-मैंने तो पहले ही कहा था, स्व-द्रव्य के साथ योग और पर-द्रव्य के साथ अयोग। कोरा अयोग या विच्छेद नहीं कहा था। मोहन (जैनेन्द्रजी से)-छोड़ते जाओ, छोड़ते जाओ, यह तो समझ में आता है पर विस्तार करते जाओ, यह भाषा समझने में कठिनाई है। इसका व्यावहारिक रूप क्या है? जैनेन्द्र-आचार्य तुलसी के प्रति आपकी श्रद्धा है। तुलसीजी में Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आपका लीन होना सरल है। जैनेन्द्र जैनेन्द्र में लीन हो जाए, यह कठिन लगता है। अपने से दूसरों में लीन होना विस्तार है और वह सरल भी मुनिश्री-स्वलीन या परलीन यह भाषा-भेद है। भाषा कोई सत्य नहीं है। सत्य जहां पहुंचता है, वहां पहुंचना है। जैनेन्द्र-आत्मा के नाम पर अहं की साधना होने से धर्म अधर्म बन जाता है। मुनिश्री-अहं शब्द एक है पर इसके दो रूप हैं। अहं अस्मित्व का सूचक हो तो वह अधर्म हो सकता है पर अस्तित्व का सूचक हो तो वह अधर्म कैसे होगा? विषय-विच्छेद की प्रक्रिया ध्येय के साथ तादात्म्य स्थापित करने की प्रक्रिया प्रत्याहार है। उसके लिए एक मुद्रा है-सर्वेन्द्रियोपरम। इससे मानसिक शान्ति मिलती है। दो-चार मिनट इस मुद्रा में रहने से घंटे-भर का श्रम मिट जाता है। कितना ही मन बिखरा हो, इस मुद्रा से केन्द्रित हो जाता है। रस-विच्छेद की प्रक्रिया ध्यान के चार प्रकार हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ और रूपातीत। एकाग्रता में एक आलम्बन लेना होता है, चाहे वह परमात्मा का हो, आत्मा का हो या किसी बाह्य वस्तु का हो। पिण्डस्थ में अपने शरीर का आलम्बन लेकर अभ्यास किया जाता है। शरीर में नासाग्र आदि सोलह स्थानों पर मन का योग करने से शान्ति मिलती है। जैनेन्द्र-ध्यान में प्रवृत्ति-शून्यता या अहं की वृद्धि का खतरा है। मुनिश्री-ध्यान में सहज आनन्द की अनुभूति होती है। मैं अपने में देखता हूं। ध्यान के लिए कुछ समय लगाता हूं, फिर भी मेरी प्रवृत्ति कम नहीं हुई है और न मुझे अहं सताता है, प्रत्युत आनन्द का अनुभव कर रहा हूं। इसलिए मुझे लगता है कि ध्यान कोई खतरा नहीं है। जहां आनन्द नहीं मिलता, वहां ध्यान की प्रक्रिया में गलती हो सकती है। जैनेन्द्र-मेरे जीवन में कम-से-कम एक दर्जन व्यक्ति आए। दो-दो Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक एकाग्रता १६६ घंटे ध्यान करते थे, फिर भी उनका मन बिखर रहा है । मुनिश्री - प्रक्रिया में कहीं गलती हो सकती है, अन्यथा ध्यान से आनन्द ही मिलता है, मन बिखरता नहीं । राजसमन्द में रजनीशजी आए । ध्यान के विषय में बात चली । उन्होंने निरालम्ब की बात पर बल दिया। मैंने कहा- यह आगे की भूमिका है। प्रारम्भ में आलम्बन के बिना कठिनता आती है। नाभि का आलम्बन मन को एकाग्र करने में बहुत सहायक बनता है। जहां से श्वास स्पन्दन होता है, उस पर नियंत्रण होता है। उससे एकलयता आती है । मन की स्थिरता आती है । भृकुटी, नासाग्र, कण्ठ, हृदय, नाभि, उपस्थ, पादांगुष्ठ- ये चेतना के केन्द्र - स्थान हैं। मन को इन शरीरकेन्द्रों में केन्द्रित करना पिण्डस्थ ध्यान है । पदस्थ ध्यान में शब्दों का आलम्बन लिया जाता है । जो शब्द इष्ट हैं- परमात्मा या कोई, उसका आलम्बन लिया जाए। रूपस्थ ध्यान में अपने से भिन्न किसी मूर्त-वस्तु के साथ सम्बन्ध कर ध्यान करना होता है । मूर्ति का विकास इसी रूपस्थ ध्यान के सहारे हुआ है । एकलव्य को शस्त्र कला में पारंगत होना था । उसके लिए सबसे सुन्दर आलम्बन द्रोणाचार्य थे। उनकी मूर्ति को आलम्बन बना वह उस कार्य में लीन हो गया । । रूपातीत ध्यान परम आत्मा का ध्यान है। इससे रस - निवृत्ति हो जाती है । यह रस - विच्छेद की प्रक्रिया है। गीता में बताया है : 'विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥' विषय और रस दो हैं । विषय बाहर है, रस भीतर है। जैन - भाषा में रस का अर्थ विकार है । विषय २३ हैं और विकार २४४ हैं। आंखें 1 मूंद लेने से विषय नहीं मिलता पर रस नहीं मिटता । यह तभी मिटता हैं, जब 'परं' का दर्शन हो जाता है । परं यानी परमात्मा । वह रस- वर्ज है, निर्विकार है, लक्ष्य है, जो आप होना चाहते हैं, वह है । उस 'परं' के दर्शन से रस निवृत्त हो जाता है। ध्यान में विषय की निवृत्ति और रस की निवृत्ति - दोनों हो जाती हैं। जैनेन्द्र- क्या मुक्ति अभावात्मक स्थिति है ? Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति ___मुनिश्री-नहीं, भावात्मक है। वहां ससीम सुख की निवृत्ति होती है तो असीम सुख की उपलब्धि होती है। परमात्मा का आनन्द अनन्त है। अचल है, अक्षर है। यहां के सुख क्षरणशील हैं। मनुष्य इतना मूर्ख नहीं, कि सत्ता को छोड़ शून्यता में जाए। वैशेषिक की अभावात्मक मुक्ति का उपहास करते हुए किसी नैयायिक आचार्य ने लिखा है : 'वरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्ट्रत्वमभिवांछितम् । न तु वैशेषिकी मुक्तिं, गौतमो गन्तुमिच्छति ॥' 'वृन्दावन में सियाल होना मान्य है पर वैशेषिक की मुक्ति में जाना गौतम को मान्य नहीं है।' मुक्ति भावाभावात्मक स्थिति है 'अत एवान्यशून्योपि, नात्मा शून्यः स्वरूपतः । शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ॥' __हम अनन्त ज्ञान चाहते हैं, अनन्त आनन्द चाहते हैं, अनन्त पवित्रता और शक्ति चाहते हैं। जहां ये नहीं, वहां धर्म नहीं है। हमारे ये चार लक्ष्य हैं। उपलब्धि चाहे कम हो, लक्ष्य यही है। यह चेतना की विकसित अवस्था है। अभावात्मक अवस्था नहीं है। जिसे हम नहीं चाहते, वह सान्त अवस्था है। उसकी सत्ता वहां समाप्त हो जाती है, इसलिए वह भावाभावात्मक है। जैनेन्द्र-कुछ सर्वोदयी नेता जे. के. कृष्णमूर्ति की ओर झुक रहे हैं। एक दिन दादा धर्माधिकारी मुझे भी उनके पास ले गए। बात सुनने में बेहद ठीक है। वे निश्चय की भाषा में बोलते हैं। कहने से आगे उतरती नहीं। कहते हैं-समय की सत्ता नहीं पर सात रोज का कार्यक्रम आगे का बंधा रहता है। मुनि सुख-तीर्थंकर और केवली की वीतरागता समान है। तीर्थंकर तीर्थ की रचना करने में प्रवृत्त होते हैं और केवली नहीं। तो क्या वीतरागता की परिपूर्णता रचना में है? मुनिश्री-रचना संवेदन में से प्राप्त होती है पर उसका आकार अपने सामर्थ्य और भूमिका के अनुसार होता है। शरीर व्यवहार और Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक एकाग्रता १७ प्रवृत्ति दोनों के लिए अनिवार्य है। यह अनिवार्यता तब तक चलेगी, जब तक शरीर का अस्तित्व रहता है। मुनि सुख- पिण्डस्थ, पदस्थ आदि में क्रमबद्धता है या नहीं? मुनिश्री-क्रमबद्धता के विषय में कभी सोचा नहीं, पर चाहें तो उसे ढूंढ़ सकते हैं। इसी बीच उमरावचन्दजी मेहता बोल उठे-शरीर, वाणी और मन की स्थिरता द्वारा आत्मा तक पहुंचना है। रूपातीत आत्मा है। पहले तीनों शरीर, वाणी और मन की स्थिरता के निमित्त हैं। ___ मुनिश्री-कुछ ग्रन्थों में भिन्न क्रम भी मिलता है पर प्रस्तुत क्रम सार्थक भी है। पिण्ड (शरीर), पद (भाषा) और रूप में दूसरे की अपेक्षा पहला अधिक निकट है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामुदायिक साधना के आठ सूत्र १. सत्-व्यवहार सत् के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ है-सत् अर्थात् सत्ता, अस्तित्व। दूसरा अर्थ है-सत् यानी अच्छा। सत् के ये दो अर्थ प्रचलित हैं। यहां दोनों ही अर्थ गृहीत हैं। सत्-व्यवहार यानी आत्मीय व्यवहार या सौजन्य-पूर्ण व्यवहार। आत्मीय तो प्रथम है ही। सौजन्यपूर्ण व्यवहार को भी बहुत महत्त्व दिया गया था। आचार्य सोमप्रभ ने लिखा है : वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणामसाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः सम्पदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुन्दरं, विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता। सौजन्य अच्छा है, भले फिर कुछ भी न मिले। दौर्जन्य से कुछ मिलता है तो वह शोथ-जनित स्थूलता है। उस स्थूलता की अपेक्षा कृशत्व बहुत अच्छा है। वह स्थूलता रोग है और कृशता स्वास्थ्य। असत्-व्यवहार की कसौटी क्या है जिससे कसकर हम समझ सकें कि यह व्यवहार असत् है और यह सत् ? असत्-व्यवहार की तीन कसौटियां हैं-क्रूरता, कपट और निरपेक्षता। सद्व्यवहार की तीन कसौटियां हैं-मूदुता, मैत्री और सापेक्षता। क्रूरता जिस व्यवहार की भूमिका में क्रूरता हो, वह सत् नहीं हो सकता। कई धार्मिक कहते हैं-धार्मिक के लिए व्यवहार की क्या आवश्यकता है? पर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्-व्यवहार १७३ मैं समझता हूं कि हृदय में अहिंसा और अध्यात्म है और व्यवहार में क्रूरता है, क्या यह सम्भव है? धार्मिक का व्यवहार क्रूर हो ही नहीं सकता। इसलिए व्यवहार के सत् होने में एक शर्त है कि वह मृदु हो। जैनेन्द्र-कहीं असष्णुिता भी सद्व्यवहार का अंग हो सकती है? मुनिश्री-हां, हो सकती है। जैनेन्द्र-असिहष्णुता होगी तो कठोरता आ जाएगी। मुनिश्री-कुम्हार घड़े को पीटता है पर नीचे उसका हाथ रहता है। मृदु-व्यवहार में इसका अवकाश है। जैनेन्द्र-सत् व्यवहार की कसौटी आत्मीयता हो सकती है, मृदुता कैसे? मुनिश्री-मैंने क्रूरता के प्रतिपक्ष में मृदुता का प्रतिपादन किया, कठोरता के प्रतिपक्ष में नहीं। कठोरता क्रूरता से भिन्न है। मां का पुत्र के प्रति और गुरु का शिष्य के प्रति आवश्यकतावश कठोर-भाव हो सकता है, पर क्रूरता नहीं। भगवान् महावीर ने क्रूर व्यवहार को वर्जित करने वाले अनेक व्रतों का विधान किया। वृत्तिच्छेद, बन्ध, अंगच्छेद, अतिभार आदि-आदि के वर्जन को चाहे आप अहिंसा कहें, चाहे क्रूर व्यवहार का वर्जन। नौकर, मुनीम आदि जो अपने आश्रित हों, उनकी आजीविका का विच्छेद करना वर्जित है। वह धार्मिक भी कहां है, जो गाय के दूध न देने पर घास न डाले। पशु पर अधिक भार न लादा जाए, यह क्रूर व्यवहार का वर्जन है। क्रूरता में धर्म टिकेगा कैसे? भोजन में अमृत भी है, जहर भी है। दोनों एक साथ कैसे होंगे? धर्म भी है, क्रूरता भी है, दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते । व्यवहार में क्रूरता है तो वहां धर्म की आशा नहीं करनी चाहिए। व्यवहार की मृदुता का एक सूत्र है-इच्छाकार। यह जैन मुनियों की एक सामाचारी है। इसका हार्द है- 'यदि आप चाहें तो यह काम करें।' गुरु भी सामान्यतया इच्छाकार सामाचारी का प्रयोग करते हैं। फिर व्यवस्था कैसे चलेगी? आज्ञा देना-करना ही होगा-यह विशेष स्थिति में प्राप्त है। जितना मेरा अस्तित्व है, उतना ही सामनेवाले का है। दोनों का अस्तित्व सापेक्षता से जुड़ा है। एक मेरी अपेक्षा है, एक दूसरे की है। मैं उसकी अपेक्षा में योग दूं और वह मेरी अपेक्षा में योग दे, यह समाज या सामूहिकता का आधार है। प्राचीनकाल में दास क्रीत Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : होता था । खरीदने के बाद वह उसका होता था । क्रीत को प्राणदण्ड भी दिया जाता था । इसीलिए दास प्रथा जघन्य मानी गई और उसका विच्छेद किया गया । कपट कुछ लोग कहते हैं कि आज के युग में सरलता उपादेय नहीं है। मुझे लगता है कि सरलता शाश्वत सत्य है । वह सदा उपादेय और उसके बिना मन की शान्ति मिल ही नहीं सकती। सरलता को अनुपादेय बताने वाले भूल जाते हैं कि सरलता और भोलापन एक नहीं है । कुछ शब्द रूढ़ हो गए हैं । उनमें परिवर्तन की अपेक्षा है । जैनेन्द्र- सदाचार शब्द चलता है । किन्तु समाचार काफी नहीं, सत्याचार होना चाहिए । सदाचार समाज की मानी हुई तात्कालिक नीति है । यदि धर्माचरण का विचार भी वहीं तक रह गया तो जिस क्रान्ति की आवश्यकता है, वह धर्म की ओर से नहीं आएगी, धर्म को उससे गहरे जाना चाहिए । शान्ति, सहिष्णुता आदि शब्द भी कुछ वैसे ही रूढ़ार्थ में प्रयुक्त होने लगे हैं । मुनिश्री - सदाचार में सत् शब्द है, वह भी सत्य का वाचक है । सत् अर्थात् सत्य । समय की मर्यादा के साथ दूसरा अर्थ आ गया । सदाचार सत्याचार ही न रहा, अच्छा आचार भी बन गया । भाषाशास्त्र के अनुसार शब्द का अपकर्ष और उत्कर्ष होता रहा है 1 जैनेन्द्र- सत्याचार की अभिव्यक्ति वह होगी, जो आज सदाचार में नहीं है । मुनिश्री - यह ठीक है । सदाचार के पीछे जो भावना आ गई है, शब्द - परिवर्तन से उसमें भावना भी परिवर्तित हो सकती है । जैनेन्द्र- साहित्य में प्रतिक्रिया और पलायन - दो शब्द बहुत चल रहे हैं। मुझे पलायनवादी कहा जाता है। मैं कहता हूं, ऐसा कौन है जो बैल को समाने देखकर पलायन न करे? मुनिश्री - हर शब्द की यही स्थिति है। उत्कर्ष, अपकर्ष, उत्क्रान्ति अपक्रान्ति से मुक्त कोई शब्द नहीं है। आज से दो-ढाई हजार वर्ष पहले 'पाषंड' शब्द श्रमण सूचक था । अशोक के शिलालेख, जैन और बौद्ध Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्-व्यवहार १७५ साहित्य में उसका गौरव के साथ प्रयोग हुआ है । आज 'पाषंड' शब्द कुत्सित बन गया है । 'पाषंडी' कहने से अप्रिय - सा लगता है । जैनेन्द्र-असुर शब्द हमारे लिए घृणा का है पर ईरान और फारस में असुर देव के लिए है । मुनिश्री - प्राचीन साहित्य में असुर शब्द देव के अर्थ में था । यक्ष भी महत्त्वसूचक था। आज उससे भिन्न है । आज साहसिक शब्द प्रशंसासूचक है परंतु जब चला था उस समय अविमृश्यकारी - बिना विचारे कार्य करने वाले के अर्थ में था । अर्थ के उत्कर्ष का अपकर्ष हो गया। राजेन्द्र - तो क्या शब्द विचार - जनित है? मुनिश्री - शब्द प्रवृत्ति और विचार दोनों की सृष्टि है। शब्द से अपने आप कोई शक्ति नहीं, वह मात्र द्योतक है। कर्म तेजस्वी होता है तो शब्द गौरव पा लेता है। उसके क्षीण होने पर शब्द - शक्ति भी क्षीण हो जाती है । राजा यानी ईश्वर जो था, वह आज राज-कर्म क्षीण होने से अप्रिय बन गया, इतिहास का शब्द रह गया । राजेन्द्र-कर्म समाज-जनित है या विचार-जनित ? मुनिश्री - कोई भी कर्म पहले विचार में आता है । व्यवहार विचार की प्रतिकृति है । विचार और कर्म का कार्य-कारण सम्बन्ध है | विचार के विकास की पृष्ठभूमि समाज है । इसलिए हम कह सकते हैं - समाज से विचार और विचार से कर्म निष्पन्न होता है । राजेन्द्र - सामाजिक कर्म के निर्माण में विचार कारण है या विचार के निर्माण में सामाजिक घटना ? मुनिश्री - सामाजिक घटनाओं में से विचार फलित होते हैं । फिर उनसे कर्म निष्पन्न होते हैं । राजेन्द्र - जो विचार हममें हैं, वे बाह्य प्रतिक्रिया से पैदा हुए हैं, इसलिए वे क्रियात्मक नहीं, किन्तु प्रतिक्रियात्मक हैं । जैसे गणित का प्रश्न है, उसका हल अनूठा हो सकता है पर वह अनूठा होने पर भी उस प्रश्न का बन्दी है । जैनेन्द्र- ( ये कहते हैं) अपने विचार के विभु नहीं, अधीन हैं । मुनिश्री - प्रश्न के बाद उत्तर निष्पन्न होता है, इसलिए उसका प्रश्न Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति के अधीन होना स्वाभाविक है। विचार के पीछे प्रश्न ही नहीं, व्यक्ति के अपने संस्कार भी हैं और बाह्य प्रतिक्रिया भी। मन में विचार उठता है, यह क्यों? क्योंकि आपके अपने संस्कार हैं। हर विचार अपनी प्रतिक्रिया छोड़ जाता है। आज कोई विचार करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया शेष रहती है, तभी स्मृति होती है। बाह्य परिस्थिति का प्रभाव भी होता। राजेन्द्र-हमारे सारे विचार सामाजिक घटनाओं से तो छनकर आ रहे हैं। मुनिश्री-आ सकते हैं, पर यह ऐकान्तिक बात है। हमें बहुत बार स्थूल मन (चेतन मन) के पीछे जो अचेतन मन है, उससे निर्देश मिलते राजेन्द्र-क्या उससे कुछ नयी निष्पत्ति होती है? मुनिश्री-ऐसी कोई घटना नहीं हो सकती, जिसे हम सोलह आना नयी कह सकें। नरसिंह का अवतार एक नयी घटना है पर उसमें नर और सिंह दोनों का योग है। सारी विचित्रता योगज निष्पत्ति है। वैज्ञानिक प्रयोग भी बिल्कुल नये नहीं हैं। दो का होना नहीं है। नया है अनेक में से किन्हीं दो का योग। जितनी औषधियां हैं, वे क्या हैं? वनस्पति के योग ही तो हैं। आदि से अन्त तक कोई नयी सृष्टि नहीं है। योग का प्रयोग नया है। जैनेन्द्र-विचार की क्रिया का कारण भीतर नहीं है। क्रिया का कारण व्याप्त परिस्थिति या समय है। राजेन्द्र-अहंता हमारी प्रतिक्रिया का पिण्ड है। मुनिश्री-अहंता के पीछे एक और भी है जो उससे भिन्न है और योगज है। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त न्यूटन ने दिया। सिद्धान्त की कल्पना बाह्य निमित्त से आयी। उसके पीछे कोई शास्त्रीय ज्ञान नहीं था। तत्काल सेव को गिरते देख कल्पना हई। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त यदि केवल घटनाओं की प्रतिक्रिया होती तो वह पहले भी हो सकता था और किसी भी व्यक्ति को हो सकता था। वह न्यूटन को ही क्यों हुआ? किसी दूसरे को क्यों नहीं हुआ? इस चर्चा को समात करने से पूर्व हम इतना और समझ लें कि व्यक्ति की अपनी योग्यता और बाह्य घटना-दोनों के योग से कोई नया ज्ञान निष्पन्न होता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्-व्यवहार १७७ राजेन्द्र-चित्त को स्वीकार न करने में क्या कठिनाई है? मुनिश्री-कठिनाई कोई नहीं, उसे न मानना स्वाभाविक है। उसे मानने में पराक्रम की आवश्यकता है। जो दृश्य है, वह चित्त नहीं है। इसलिए आस्तिक की अपेक्षा नास्तिक होना अधिक सरल है। जैनेन्द्र-आस्तिकता ऐसी चीज है, जो घर में पैदा होने से ही आ जाती है। नास्तिकता बुद्धि के प्रयोग से होती है। मैं पहले आस्तिक था, फिर बहुत वर्षों तक अपने को नास्तिक कहता था। अब मानने लगा हूं आस्तिक हूं। पहली आस्तिकता जल्दी टूट गई। ____ मुनिश्री-यह आस्तिकता पुरुषार्थ से आयी। मन, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर आदि जो साधन हैं, आत्मा के अस्तित्व की जानकारी के प्रत्यक्ष सहायक नहीं हैं। डॉक्टर अणु-अणु को बिखेर देता है पर शरीर में कहीं भी चित्त नहीं मिलता। इसीलिए मैं कह रहा था चित्त को मानना आश्चर्य है। जैनेन्द्र-स्वीकार करता हूं, कुछ है पर चित्त नहीं है। मुनिश्री-चेतना की निष्पत्ति मानते हैं, अनुस्यूत चेतना नहीं मानते। त्रैकालिक चेतना का स्वीकार बहुलांश में आस्था के बल पर माना जाता है। बुद्धि के बल पर माना जाए तो वह दो वकीलों के वाद-विवाद का-सा रूप हो जाता है, हाथ कुछ नहीं आता। आस्था, अनुभूति और ध्यान का पक्ष प्रबल हो जाए तो फिर चित्त के अस्वीकार में कठिनाई होगी। राजेन्द्र-शरीर के बिना चैतन्य का कोई अस्तित्व है? .. जैनेन्द्र-प्रेत है। प्रेत यानी शरीर-मुक्त चित्त। .. राजेन्द्र-प्रेत या तो है नहीं और है तो शरीर-मुक्त नहीं। मुनिश्री-विद्युत् में प्रकाश की शक्ति है पर उसकी अभिव्यक्ति बल्ब में होती है। वैसे ही चित्त की अभिव्यक्ति शरीर में होती है। राजेन्द्र-विद्युत् को प्राथमिकता देते हैं, बल्ब को क्यों नहीं देते? मुनिश्री-विद्युत् आगत है, बल्ब में निष्पन्न नहीं। इसी प्रकार शरीर में चेतना निष्पन्न नहीं, अनुस्यूत है। राजेन्द्र-चित्त को शरीर से भिन्न जानने की वैज्ञानिक पद्धति क्या है? जैनेन्द्र-शरीर से भिन्नता का पीछा करना आपको क्यों आवश्यक है? मुनिश्री-आपके पास प्रयोगशाला है। आप शरीर के कण-कण की Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति छानबीन कर सकते हैं पर शरीर से मुक्त चैतन्य को जानने के आपके पास साधन कहां हैं? हमारे पास ज्ञान के साधन पांच इन्द्रियां हैं। वे शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श को जान सकती हैं। उनको शरीर द्वारा जाना जा सकता है, उसमें विद्यमान चैतन्य को नहीं जाना जा सकता। यदि आप शरीर और चैतन्य की भिन्नता जानना चाहते हैं तो उसका साधन ध्यान है। समुचित मात्रा में ध्यान करने पर आपको यह अनुभूति न हो तो मुझे आश्चर्य होगा। जैनेन्द्र-धर्म में से पराक्रम निकले तब अध्यात्म सम्पन्न होता है. अन्यथा शैथिल्य रहता है। अन्याय होता है। मुनिश्री-उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम-ये पांच शब्द हैं। इनसे मुक्त कोई भी धर्म-क्रिया नहीं है। इनका उपयोग रण क्षेत्र में भी हो सकता है और धर्मक्षेत्र में भी हो सकता है और व्यापार में भी हो सकता है। जो पराक्रम शून्य है वह निकम्मा है। यह मान लिया कि जो धार्मिक है, उसे सहिष्णु होना चाहिए। एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल सामने कर देना चाहिए। इसमें पराक्रम की भावना नहीं, हीनता आ गई है। उपवास चैतन्य का पराक्रम है। आज उपवास 'न खाना' मात्र रह गया है। जैनेन्द्र-'जिन' शब्द में भी पराक्रम था। राजेन्द्र-जैनेन्द्र में भी है। जैनेन्द्र-जैनेन्द्र में 'जिन' के साथ 'इन्द्र' का योग आ गया। समर्पण हीनभावना नहीं है। हीन-भावना के कारण अपने को कुछ न मानना नपुंसकता है। प्रार्थना में हीन-भावना नहीं, नम्रता है, आकिंचन्य है। मुनिश्री-आकिंचन्य में तीन लोक का प्रभुत्व है। सापेक्षता सापेक्ष व्यवहार अर्थात् सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार। सामाजिक प्राणी को हर स्थिति में अपेक्षा रहती है। समाज का आधार ही सापेक्षता है। उससे प्रेम का वातावरण बनता है। उपेक्षा से उदासीनता आती है और दूरी बढ़ती है। आचार्यश्री महोत्सव के दिनों में अधिक व्यस्त रहते हैं। व्यस्तता के कारण किसी की बात को ध्यान से नहीं सुना जाता तो वह Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्-व्यवहार १७६ समझता है मेरे प्रति निरपेक्ष व्यवहार हो रहा है। यह साधुओं की स्थिति है, दूसरों की स्थिति तो और अधिक चिन्तनीय होगी। हर व्यक्ति चाहता है मेरी अपेक्षा हो। अपेक्षा का सम्बन्ध मधुर होता है। सापेक्षता में कठोर व्यवहार भी खलता नहीं है। अच्छा व्यवहार करते हुए भी निरपेक्षता झलके तो सामने वाला कहेगा, यह तो ऊपर का व्यवहार है, दिखावा है। परिवार में कटुता आती है, उसके पीछे निरपेक्षता रहती है, जितनी सहानुभूति की आवश्यकता होती है, उसका अभाव रहता है। मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। मैंने अपनी व्यस्तता के कारण कभी-कभी आवश्कयता से कम बातचीत की, फलतः मुझे अव्यावहारिक बताया गया। मैंने उसके साथ असत् व्यवहार नहीं किया, फिर भी सापेक्षता नहीं बरती जितनी सामाजिक जीवन में बरतनी चाहिए थी, इसीलिए मैं अव्यावहारिक बन गया। घर के मुखिया इस ओर सजग नहीं होते तब प्रतिक्रिया होती है। इसीलिए प्रमुख व्यक्ति इस ओर सजग रहते हैं। आचार्यश्री ने इसी वर्ष मर्यादा-महोत्सव के दिनों में साधु-साध्वियों से कहा कि जिसको आवश्यकता हो, वह मुझसे समय मांग ले। उन्होंने एक-एक को आमंत्रित कर बातचीत की। दस मिनट की बातचीत में आचार्यश्री उन्हें क्या दे देते हैं? फिर भी वे सापेक्षता के वातावरण में पा अपने को सार्थक मानते हैं, कृतकृत्य हो जाते हैं। कृतार्थता सापेक्षता से आती है, प्राप्ति से नहीं। चन्दन-क्या यह राग नहीं है? मुनिश्री-अनुराग है। अभी हम धर्मानुराग से रक्त हैं। सम्यक् दर्शन के आठ सूत्र हैं। उनमें एक वात्सल्य है। वात्सल्य के बिना एकसूत्रता नहीं रहती। उससे कई बातें फल जाती हैं। वात्सल्य से कठोर अनुशासन भी कर सकते हैं, प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं, ऐसी परिस्थिति में भी डाल सकते हैं, जिसकी कल्पना करना कठिन है। वात्सल्य का धागा सहानुभूति की सुई में सहज ही पैठ जाता है। अनुराग और विराग दो नहीं हैं। एक के प्रति अनुराग ही दूसरे के प्रति विराग है। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष या धर्म के प्रति जो अनुराग है, वह शुद्ध है। चन्दन-क्या वात्सल्य या अनुराग मोह नहीं है? । मुनिश्री-हो सकता है पर सामाजिक जीवन के सम्बन्धों से उसे Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति निकाल कैसे पाएंगे? पिता-पुत्र का सम्बन्ध है। पिता पुत्र की चिन्ता करता है, अपेक्षा के साथ निर्वाह करता है, तो व्यवहार माधुर्यपूर्ण होता है। यदि वह एकत्व की भावना से सोचे-'अकेला ही व्यक्ति आया है, अपने ही पुण्य-पाप साथ चलते हैं, कौन किसका साथी है'-और परिवार में रहता हुआ भी निरपेक्ष व्यवहार करे तो वह व्यवहार पुत्र के मन में पिता के प्रति शत्रु-भाव पैदा करता है। राजा उद्रायण के मन में आया, पुत्र को राज्य नहीं देना चाहिए, क्योंकि राजा नरकगामी होता है। पुत्र को क्यों नरक में ढकेला जाए? इसलिए उसने अपना राज्य पुत्र को न देकर भानजे को दिया। परिणाम यह आया कि पिता के प्रति पुत्र का द्वेष हो गया और वह अन्तिम समय तक बना रहा। उसने कहा-सबसे क्षमा याचना कर सकता हूं, पर पिता से नहीं। भानजे के मन में आया-मामा कहीं वापस आकर राज्य न ले ले, इसलिए उसने उद्रायण को मार डालने का प्रयत्न किया। व्यवहार का लोप करने से यह परिणाम आया। ___ जैनेन्द्र-क्या निश्चय और व्यवहार-ये दो बातें मन में रखनी पड़ेंगी? निश्चय में से व्यवहार नहीं निकल सकता क्या? व्यवहार स्वयं निश्चय की साधना में फलित होगा। निश्चय को साधेगे तो अनुराग, विराग नहीं होगा। व्यवहार की ओर झुके तो निश्चय टूटेगा, निश्चय पर झुके तो व्यवहार टूटेगा। निश्चय का पूरी ईमानदारी से पालन करेंगे तो व्यवहार स्वयं सधेगा। मुनिश्री-तीर्थंकर सारे व्यवहार का प्रवर्तन करते हैं, संघ का प्रवर्तन करते हैं, व्यवस्था का प्रवर्तन करते हैं। यह व्यवहार कहां से आया? प्रवृत्ति उनके जीवन में कहां से आयी? निश्चय में से ही व्यवहार निकला है। तीर्थंकर कृतकृत्य हो गए, उनके लिए करना कुछ प्राप्त नहीं, फिर भी वे करते हैं। कोई भी शरीरधारी व्यवहार से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक शरीर का पराक्रम है तब तक व्यवहार होता रहेगा। श्रावक के बारह व्रतों में एक अतिचार है कि 'अपने आश्रितों की जीविका का विच्छेद नहीं करूंगा।' यह व्यवहार कहां से आया? जो जितना धार्मिक होगा, उसका व्यवहार भी उतना ही सुखद होगा। जैनेन्द्र-व्यवहार में जितनी त्रुटि हो उतनी ही धार्मिकता की कमी होगी। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्-व्यवहार १८१ मुनिश्री-रूपचन्द्रजी सेठिया धर्मनिष्ठ श्रावक थे। वे जितने धर्मनिष्ठ थे, उतने ही व्यवहार के प्रति सजग थे। चन्दन-क्या व्यवहार मोह नहीं है? मुनिश्री-आप व्यवहार में केवल मोह ही क्यों देखते हैं, उसके साथ जुड़े हुए न्याय या समभाव को क्यों नहीं देखते? कल्पना कीजिए-एक पिता के चार लड़के हैं। एक के प्रति अधिक स्नेह है। उसे दो लाख रुपये देता है। दूसरे को एक लाख, तीसरे और चौथे को आधा-आधा लाख। परिणाम होगा कि परस्पर झगड़े होंगे। पिता अपने को धार्मिक भले माने पर पुत्र उसे अधार्मिक और अव्यावहारिक मानेंगे। यदि व्यवहार धर्म से प्रभावित होता तो सबके प्रति समान वृत्ति होती। तीन के प्रति अन्याय नहीं होता। चन्दन-अन्याय न हो, यह ठीक है। पर एक-दूसरे के प्रति जो भावना होती है, वह क्या हमारे पूर्व-कर्म का परिणाम नहीं है? मुनिश्री-हमारी मान्यता और नीति भी तो हो सकती है? जैनेन्द्र-पर मैं मानता हूं कि इसकी जिम्मेदारी सामने वाले व्यक्ति पर भी होती है। मुनिश्री-वीतराग के प्रति भी किसी का असन्तोष हो सकता है। जैनेन्द्र-बल्कि तीव्र असन्तोष होता है। हमें कोई मारने नहीं आता पर गांधीजी को मार दिया। ईसा प्रेम की मूर्ति थे पर उन्हें फांसी मिली। मुनिश्री-वैषम्य अपनी मनोवृत्ति के कारण उपजता है। जैनेन्द्र-जिन्होंने फांसी लगाई ईसा को, ईसा के मन में भी उनके प्रति प्रेम था। यह ईसा का गुण था। जगत् के संचालन में धर्म की आराधना करने वाला बाहर देखे, मेरे कारण क्या हो रहा है तो वह कुछ नहीं कर सकता। मुनिश्री-सावधानी यह बरतनी है कि अपनी द्वेषात्मक प्रवृत्ति से तो कुछ नहीं हो रहा है। घर का दायित्व ले रखा है और उस स्थिति का लोप करना है तो विषमता पैदा होती है। उस स्थिति में होना और उसका लोप करना-इन दोनों में कोई मेल नहीं है। कोई दायित्व न ले तो कोई कठिनाई नहीं। दायित्व ओढ़ ले और फिर न निभाए तो कठिनाई पैदा होती है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति चन्दनबाला का पिता राजा दधिवाहन था । शतानीक ने आक्रमण किया। वह युद्ध के भय से भाग निकला। सैनिक आए, नगर को लूटा | रानी को मरना पड़ा । चन्दनबाला को उठा ले गए । क्या हम मान लें, राजा भागा, उसके पीछे अहिंसा की प्रेरणा थी? अहिंसा नहीं, प्रत्युत कायरता थी । सबके साथ विश्वासघात और कर्तव्य के प्रति गैरजिम्मेदारी । वह वैराग्य नहीं, दायित्व के प्रति विमुखता थी । यदि वैराग्य होता तो वह राज्य के दायित्व को अपने कन्धों पर ओढ़ता भी क्यों? चन्दन - दायित्व ले और उसे निभाए तो क्या धर्म होता है? मुनिश्री - व्यवहार के प्रति सावधान रहने वाला दूसरों के मन में धर्म के प्रति रुचि पैदा करता है । हम छह साधु हैं । एक बीमार है । मैं सोचूं - 'इधर समय लगाने में मेरे ध्यान में बाधा आएगी। अगला लिखाकर लाया है। स्वयं अपना कर्म अपने आप भोगना है, मैं क्या करूं? यदि मैं ऐसा सोचूं तो मैं धर्म के प्रति विमुखता पैदा करूंगा, सम्मुखता कभी नहीं । चन्दन - पत्नी बीमार है, ध्यान का समय आ गया । उस समय पति ध्यान करे या पत्नी की सेवा ? मुनिश्री - ध्यान को मैं बहुत आवश्यक मानता हूं पर व्यवहार में रहने वाला सेवा का लोप कैसे करेगा, जहां दूसरों के मन में धर्म और धार्मिक के प्रति विमुखता उत्पन्न होने का प्रसंग हो । जैनेन्द्र- सहानुभूति रहती है तो कोई व्यवहार बुरा नहीं है । व्यवहार की विमुखता अपने आप में क्रूरता है । मुनिश्री - अहिंसा की बात परिणाम - काल में सोचने की अधिक होती है, जबकि होनी चाहिए स्वीकार - काल में । एक बार आचार्यश्री ने कहा था - राष्ट्र को रखना चाहते हैं, उस पर अधिकार रखना चाहते हैं तब अहिंसा की बात नहीं सोचते, उसकी बात तो केवल सुरक्षा के समय सोचते हैं। हिंसा का मूल परिग्रह की सुरक्षा में नहीं किन्तु स्वीकार में है 1 फूलकुमारी - परिवार बढ़ने पर अलग हो जाएं, फिर व्यवहार की स्थिति क्या होगी ? मुनिश्री - महावीर और बुद्ध घर से चले गए, उन पर दायित्व नहीं Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का विस्तार १५३ रहा। सम्बन्ध रखने की स्थिति में यह बात लागू होती है। कोई व्यक्ति घर से निकलकर जंगल में चला जाता है तो उसकी स्थिति भिन्न हो जाती है। सम्बन्ध का दायित्व लेकर उसका पालन नहीं करता है, वह धार्मिक अपने व्यवहार से आसपास के अनेक लोगों को धर्म-विमुख बना देता है। अन्तरंग का वैराग्य घनीभूत हो जाए, वहां व्यवहार के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। २. प्रेम का विस्तार विस्तार यानी फैलना, 'स्व' की सीमा को लांघकर 'पर' की सीमा में प्रवेश पाना या 'स्व-पर' की सीमा का भेद विसर्जित करना। व्यापारी प्रसरण करते हैं-अप्राप्त काम-भोगों की प्राप्ति के लिए, अनुपलब्ध काम-भोगों की उपलब्धि के लिए। एक विस्तार ऐसा है जिसमें दोष प्राप्त होता है और एक विस्तार ऐसा है जिसमें दोष विसर्जित होता है। घृणा दोष है। व्यक्ति के मन में अपने प्रति उत्कर्ष का भाव होता है और दूसरे के प्रति हीन-भाव। वह भाव-भेद घृणा उत्पन्न करता है। अपने प्रति आकर्षण घनीभूत होता है, तो दूसरे के प्रति घृणा के सिवाय कुछ बच नहीं रहता। घृणा को मिटाने का सबसे अच्छा उपाय है प्रेम का इतना विस्तार कि जिसमें घृणा का अवकाश ही न रहे। एक व्यक्ति प्रिय है, दूसरा अप्रिय। प्रिय के प्रति प्रेम होता है, अप्रिय के प्रति जुगुप्सा। इस भूमिका में प्रेम की व्यापकता या सघनता नहीं है, इसलिए इसमें घृणा का अवकाश है। जहां घृणा है वहां द्वेष है। जहां द्वेष है वहां मानसिक अशान्ति है। घृणा हो और मानसिक अशान्ति न हो, ऐसा हो नहीं सकता। घृणा और मानसिक शान्ति दोनों साथ-साथ नहीं चल सकतीं। प्रश्न-क्या घृणित वस्तु से भी प्रेम करें? उत्तर-घृणा उस वस्तु में नहीं, अपने मन में है। विश्व के सारे के सारे पदार्थ सुन्दर बन जाएं, कभी सम्भव नहीं। स्थिति का द्वैध रहेगा। पर उसके आधार पर घृणा होना अनिवार्य नहीं है। हमें जो प्रिय है, क्या वह सुन्दर है? इसका उत्तर अनेकान्त की भाषा में मिलता है। एक वस्तु सुन्दर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति नहीं है, फिर भी प्रिय है। एक वस्तु सुन्दर है पर प्रिय नहीं है। एक वस्तु सुन्दर भी है और प्रिय भी है। एक वस्तु सुन्दर भी नहीं है और प्रिय भी नहीं है। सुन्दरता और प्रियता की नितान्त घनिष्ठता नहीं है। जैनेन्द्र-सुन्दरता दृष्टि से स्वतन्त्र चीज है क्या? उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है क्या? मुनिश्री-सुन्दरता संस्थानगत और रूपगत होती है। प्रियता मनोगत होती है। कड़वी के कड़वी चीज भी मनोगत हो सकती है पर मधुर नहीं। अमुक स्त्री सुन्दर है पर पति के मन को नहीं भाती। वह क्यों? उसके प्रति प्रियता का मनोभाव नहीं हुआ। प्रियता जहां जुड़ती है वहां घृणा नहीं रहती। मन में प्रेम का विस्तार हो तो सामने वाली वस्तु गौण हो जाएगी कि वह मनोरम है या मनोरम नहीं है। प्रेम का विस्तार सबको समा लेता है, वह 'प्रति' पर निर्भर नहीं होता, अपने पर निर्भर होता है। 'प्रति' का अर्थ किसी के प्रति नहीं यानी सबके प्रति। प्रेम सम्बन्ध का विस्तार नहीं, आत्मगुण का विस्तार है। जैनेन्द्र-आत्म-विस्तार में शायद तारतम्य का अवकाश नहीं देखते हैं? मोहन-किसी के चार लड़के हैं। चारों के साथ लेन-देन में हल्का-भारी व्यवहार होता है, यह क्यों? जैनेन्द्र-उस भेद का भी अवकाश है। चारों में मोह-राग के कारण भेद नहीं है। विवेककृत है। आत्म-गुण के विस्तार में विवेक का तारतम्य डूबता नहीं है, सबकी समानता नहीं होती। __मुनिश्री-एक साधु ने वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। गुरु ने स्थूलिभद्र को वहां जाने की आज्ञा दी थी पर उसे नहीं दी। आज्ञा नहीं दी, उसके पीछे प्रेम ही था। भले आप उसे विवेक कह लें। वहां जाना उसके हित में नहीं था इसलिए उसे आज्ञा नहीं दी। मां चार वर्ष के बच्चे को चाबी नहीं देती, बड़ों को दे देती है। वहां प्रेम की कमी नहीं, विवेक है। प्रेम में अन्तर नहीं होता, फिर भी व्यवहार में भेद बुद्धि-कृत आता है। सामने वाले के बुरे व्यवहार के कारण प्रेम में अन्तर नहीं आएगा। विवेक में अन्तर इतना-सा आएगा कि उसे ऐसा काम नहीं सौंपे जिससे उसकी हानि हो। विवेक पर-सापेक्ष है, प्रेम पर-सापेक्ष नहीं है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम का विस्तार १८५ कर्म की मर्यादा भिन्न-भिन्न है । एक दरिद्र को देख धनी के मन में, महावीर के मन में और एक विचारक के मन में भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है । धनी उसे दस रुपये दे सकता है, महावीर कुछ नहीं दे सकते । मोहन - सामने जैसी वस्तु हो, वैसी ही मनःस्थिति बन जाती होगी ? मुनिश्री - सामने अच्छा आदर्श है और अपना विचार अपवित्र है तो अनुराग प्राप्त नहीं होगा । मूर्ति के प्रति श्रद्धा न हो तो अनुराग प्राप्त नहीं होगा। मूर्ति अपने आप में न प्रेम बांटती है और न घृणा । हर निमित्त की यह स्थिति है । जैनेन्द्र- प्रेम में विवेक का स्थान नहीं है क्या? मुनिश्री - विवेक से व्यवहार फलित होता है, प्रेम तो अखण्ड होना चाहिए। कोई मेरे साथ पांच प्रतिशत व्यवहार ठीक करता है और कोई दस प्रतिशत। प्रेम भी उसी अनुपात से हो तो वह खण्डित हो जाएगा । जैनेन्द्र-पर-सापेक्षता प्रेम के लिए संगत है। मुनिश्री - विस्तार की प्रक्रिया क्या हो, यह सहज ही प्रश्न हो सकता है । विस्तार का पहला सूत्र है - विचार की स्पष्टता या सम्यक् दर्शन । दूसरा सूत्र है - संकल्प का उपयोग । संकल्प की भाषा निश्चित और समय दीर्घ होना चाहिए। उतना दीर्घ कि उसे दोहराते - दोहराते उसमें तन्मयता आ जाए । भाषा का आकार एक होने से उत्तरोत्तर स्पष्टता आती है । आज कुछ, कल कुछ, परसों कुछ इस प्रकार भाव - भाषा भिन्न होने से धारणा भिन्न-भिन्न बनेगी। हमारी पहचान निश्चित आकार से ही होती है। एक आकार होने से धारणा में दृढ़ता आती है । भाषा, भाव, स्थान और समय की निश्चितता अवश्य प्रभाव लाती है । जैनेन्द्र-संकल्प में कर्तृत्व सहायक नहीं, बाधक बनता है । 'मैं प्रेम का हूं', 'मैं प्रेम कां हूं' - इसमें महत्त्व प्रेम को मिलेगा । “मेरा प्रेम बढ़ रहा है' इसमें जो कर्तृत्व है, वह अन्त में बाधक बन जाएगा । कर्तृत्व अपने पास न रहे तो क्षमता का विस्तार हो सकता है। भजन में प्रणिपात की भावना से तृप्ति मिलती है । वही सब है, मैं शून्य हो जाऊं। इसमें आत्म-गुणता, तत्समता का रास्ता सरल हो जाता है । मैं सब बनने में हाथ फैलाता हूं । I Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति __ मुनिश्री-ध्यान की प्रक्रिया यही है। एक ध्येय है। मैं अपने आप में इतना शून्य हो जाऊं कि वह मुझमें समाविष्ट हो जाए। ध्येय-आविष्ट का अर्थ है-ध्यान। आचार्य रामसेन ने इस शून्यीकरण को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने लिखा है 'यदा ध्यानबलाद् ध्याता, शून्यीकृत्य स्वावग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्, तादृक् संपद्यते स्वयम् ॥' ध्याता ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य कर लेता है। तब वह ध्येय स्वरूप में आविष्ट होकर वैसा ही बन जाता है। प्रेम के विस्तार का भी यही सूत्र है। चैतन्य के प्रति इतना प्रेम हो कि शरीर और मन अन्य भावों से शून्य हो कर प्रेममय बन जाएं। ३. ममत्व का विसर्जन या विस्तार ममत्व के विसर्जन से ममत्व का विस्तार हो जाता है और ममत्व के विस्तार से ममत्व विसर्जित हो जाता है। इन दोनों में शब्द-भेद होने पर भी अर्थ-भेद नहीं है। अहंकार और ममकार, ये दो मोह-व्यूह के सेनापति हैं। मोह की युद्धकालीन रचना बड़ी अभेद्य होती है। ममकार का अर्थ है-अनात्मीय में आत्मीयता का आरोपण। मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा शरीर आदि-आदि। सबसे निकट शरीर है। शरीर से लेकर बाह्य वस्तुओं को अपना मानना ममकार है। ममकार अशान्ति का हेतु है। जिसके प्रति ममत्व हो, उसके योग में हर्ष और वियोग में कष्ट होता है। अपना लड़का कहना नहीं मानता तो अधिक कष्ट की अनुभूति होती है। दूसरे का लड़का यदि कहना न माने तो उतना कष्ट नहीं होता, क्योंकि वह पराया है। ममत्व की रेखा ही व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भेद डालती है। ममत्व के बाद उसके विसर्जन की बात आती है। यह मेरा नहीं है, इतना कहने मात्र से ममत्व से मुक्ति नहीं मिलती। हमने अमुक-अमुक को अपना मान रखा है। फलस्वरूप जो मेरा है, उसके प्रति अनुराग और जो मेरा नहीं है, उसके प्रति द्वेष हो जाता है। मेरे की सुरक्षा के लिए Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व का विसर्जन या विस्तार १८७ मेरे से भिन्न को धोखा देने में संकोच नहीं होता । यह मेरा है, यह मेरा नहीं, इस भेद-बुद्धि के पीछे अन्याय और शोषण पल रहा है । विसर्जन की प्रक्रिया ही विस्तार की प्रक्रिया है । अमुक के प्रति मेरापन है, उसे निकाल दो और सबको मेरा मान लो । ममत्व की संकुचित सीमा में अपना और पराया - यह द्वैध रहता है । इसलिए वहां अपना लाभ और दूसरे की हानि - इस स्थिति को अवकाश है । ममत्व की मर्यादा विस्तृत होने पर स्व-पर का द्वैध नहीं रहता । इसलिए वहां किसी के लाभ और हानि की स्थिति प्राप्त ही नहीं होती । आकिंचन्य का अर्थ है - कुछ नहीं । मेरा कुछ नहीं, यानी सब कुछ मेरा है । आचार्यश्री से एक भाई ने पूछा- आपका हेडक्वार्टर कहां है? आचार्यश्री ने उत्तर दिया- कहीं नहीं है । कहीं नहीं यानी सर्वत्र जहां जाते हैं वहीं हेडक्वार्टर बन जाता है । वह एक स्थान पर होता तो वहीं होता, सर्वत्र नहीं होता । जिस दिन यह अनुभूति होगी कि मेरा कुछ नहीं है, उस दिन तीन लोक की सम्पदा अपनी हो जाएगी। कहा भी है 'अकिंचनोहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवे । योगिगम्यमिदं प्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः ॥' अब व्यवहार की भूमिका पर आइए । साम्यवाद ममत्व - विसर्जन की प्रक्रिया है । सिद्धान्ततः साम्यवाद बुरा नहीं है । जिस पद्धति से आज वह क्रियान्वित हो रहा है, उसे मैं अच्छा नहीं मानता। साम्यवादी शासन में लड़का जन्मता है, तब से वह राष्ट्र की सम्पत्ति है। धन और मकान भी अपने नहीं हैं। शरीर पर भी अपना अधिकार नहीं है । यह शासन की प्रक्रिया है। इसमें हृदय का सम्बन्ध नहीं होता, बलाभियोग होता है । ममत्व - विसर्जन की प्रक्रिया धार्मिक हो तो वह हार्दिक हो सकती है। धर्म का मूल मंत्र है - भेद - विज्ञान | भेद - विज्ञान - यानी शरीर और आत्मा के पृथक् अस्तित्व का स्वीकार । यही सम्यक् - दर्शन है। सांख्य दर्शन में इसे विवेकख्याति कहा गया है। देह में आत्मीय बुद्धि हो तो विशाल ज्ञान होने पर भी सम्यक्-दर्शन प्राप्त नहीं होता । भारतीय धर्म ममकार - विसर्जन पर बल देते रहे हैं । अब उसे प्रायोगिक रूप देने की आवश्यकता है । उसमें भाव, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति भाषा और परिस्थिति-इस सारे चक्रवाल पर ध्यान दें। हम कहते हैं-यह वस्तु मेरी निश्राय-आश्रय में है। यह मेरा है-ऐसा कहने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। जैनेन्द्र-ट्रस्टीशिप के लिए यह 'निश्राय' शब्द चल सकता है। गांधीजी को इसके लिए उपयुक्त हिन्दी-शब्द नहीं मिल रहा था। ___मुनिश्री-भिक्षु स्वामी और जयाचार्य ने साधु-संघ में ममत्व-विसर्जन को घ्यावहारिक रूप दिया था। वह तेरापंथ की बड़ी उपलब्धि है। चातुर्मास-समाप्ति के बाद साधु-साध्वियों के सिंघाड़े आचार्य-दर्शन को आते हैं। वे सबसे पहले इस शब्दावली का उच्चारण करते हैं-ये मेरे सहयोगी साधु या साध्वियां, पुस्तकें और मैं आपकी सेवा में समर्पित हैं। आप जहां चाहें वहां रहने को तैयार हैं।' इस पूर्ण समर्पण के बाद ही वे भोजन और पानी लेते हैं। ममत्व-विसर्जन की प्रक्रिया निष्पन्न होने पर शान्ति का उदय या आत्मोदय होता है। लोग दूध को गर्म करते हैं, जमाते हैं, बिलौना करते हैं, यह सब क्यों करते हैं? मक्खन के लिए। वैसे ही सारा प्रयत्न शान्ति के लिए है, सुख के लिए है, यह कहते-कहते मैं रुक जाता हूं। गीता में कहा है-अशान्तस्य कुतः सुखम्-अशान्त को सुख कहां? जितने शास्त्र लिखे गए, वे सब शान्ति की उपलब्धि के लिए लिखे गए, ऐसा एक आचार्य का अभिमत है 'शमार्थं सर्वशास्त्राणि, विहितानि मनीषिभिः । स एव सर्वशास्त्रज्ञः, यस्य शान्तं सदा मनः ॥' चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार का भागी बनता है, सुगन्ध का नहीं। केवल शास्त्रों को दुइाई देने वाला शास्त्रों का भार ढोता है, उनकी सुगन्ध का अनुभव नहीं कर पाता। सुगन्ध का अनुभव उसे होता है, जिसका मन शान्ति से पुलक उठता है। पांच-छह वर्ष पहले एक भाई मेरे पास आया। उसने पूछा- 'आप गुरु किसे मानते हैं? मैंने कहा-'अपने आपको। दूसरे को कौन मानता है? क्या आप आचार्य तुलसी को गुरु नहीं मानते ? उसने फिर पूछा। मैंने कहा-'आचार्य तुलसी को इसीलिए मानता हूं कि उनका अहम् मेरे Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व का विसर्जन या विस्तार १८६ अहम् से मुझे भिन्न प्रतीत नहीं होता।' ____ जहां अहम् का तादात्म्य होता है वहीं गुरु और शिष्य का एकत्व होता है। कबीर ने कहा है जब 'मैं' था तब गुरु नहीं अब गुरु हैं 'मैं' नाहिं । प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहि ॥ जब अहम् था, तब गुरु नहीं थे। अब गुरु हैं, अहम् नहीं है। ममत्व-विस्तार में सारा विश्व अपना हो जाता है। वहां दूसरे की बुराई के लिए अवकाश नहीं रहता। प्रेम की सघनता इतनी है कि कहीं शून्यता नहीं है तो दूसरी बात कहां से आएगी? ममत्व का इतना विस्तार होने पर सीमित ममत्व स्वयं विसर्जित हो जाता है। ममत्व का विस्तार सकारात्मक है और ममत्व-विसर्जन नकारात्मक है। तात्पर्यार्थ में दोनों एक हैं। पहले सम्यक्-दर्शन होता है, फिर उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है। जिसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें चित्त लीन हो जाता है 'यत्रैवाहितधीः पंसः, श्रद्धा तत्रैव जायते । यत्रैव जायते श्रद्धा, चित्तं तत्रैव लीयते ॥' ममत्व-विसर्जन की बात अच्छी है, यह प्रथम परिचय है। ऐसी स्पष्ट अनुभूति होने पर श्रद्धा बनती है। ज्ञान तरल है। उसका घनीभूत होना ही श्रद्धा है। पानी तरल है। बर्फ उसी का घनीभूत रूप है। दूध तरल है। खोया उसी का घनीभूत रूप है। वैसे ही ज्ञान पुष्ट होते-होते श्रद्धा बन जाता है। जैनेन्द्र-ज्ञान बुद्धि से होता है और श्रद्धा अन्तर्मन से। राजकुमार-यह श्रद्धा कैसे प्राप्त हो? मुनिश्री-दूध से खोया बनता है, यह जान लेने पर उसे गाढ़ा बनाने के लिए समय लगाना होता है। वैसे ही ममत्व-विसर्जन की प्रक्रिया जान लेने के बाद उसके प्रयोग की आवश्यकता है। ___ मदन-ममत्व-विसर्जन से क्या सार्वजनिक जीवन में बाधा नहीं आती? मुनिश्री-व्यवहार में बाधा नहीं बल्कि वह अधिक स्वस्थ होगा। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति 'छूट जाने' की स्थिति में बाधा आती है, किन्तु 'छोड़ देने' की स्थिति में नहीं। आचार्यश्री के पास एक बार शरणार्थी आए और कहा-'हमारा सब लुट गया।' आचार्यश्री ने कहा-'धन आपके पास नहीं है, हमारे पास भी नहीं है। मकान आपके पास नहीं है, हमारे पास भी नहीं है। परिवार आपके बिछुड़ गए, हम भी परिवार से दूर हैं। स्थिति दोनों की समान है, पर अनुभूति में अन्तर है और वह इसलिए कि आपसे ये 'छूट गए' हैं और हमने इन्हें 'छोड़ दिया' है। फूलकुमारी-परिवार से संलग्न रहते हुए ममत्व का विस्तार करें तो क्या व्यवहार में कटुता नहीं आती? जैनेन्द्र-(प्रश्न को स्पष्ट करते हुए कहा)-प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। एक परिवार का सदस्य है। वह अपने ममत्व का विस्तार करना चाहता है तो पहले वह सगे रिस्तेदारों से आगे कम रिश्तेदारों से अपना ममत्व बांटता है, फिर उससे आगे इस प्रकार यदि वह क्रमिक और आंकिक विस्तार करता है तो परिवार में दिक्कत पैदा होती है। एक बार सवाल आया-व्यक्ति से विराट् बनना चाहिए। विराट् तो अनन्त है, वह कैसे होगा? विराट् बनना नहीं है, अहंशून्य हो जाए तो फिर उसकी सीमा कहां रह गई? अनन्त तक विराट् हो जाएगा। एक गिलास दूध में एक चम्मच शक्कर डालने से वह सारे गिलास में फैलेगी, उसके आठवें भाग में नहीं। विस्तार की प्रक्रिया आंकिक व पारिमाणिक नहीं, गुणात्मक है। पचास हजार रुपये हैं। बीस आदमी सगे हैं और बीस आदमी परिवार के हैं। जिनमें यह भाव आया कि ममत्व-विसर्जन करना है उसने अपना संग्रह कम कर लिया। वह संग्रह से सम्बन्ध-विच्छेद कर वैसा कर सकता है। मुनिश्री-ममत्व-विसर्जन यदि दानात्मक हो तो कटुता आ सकती है, किन्तु त्यागात्मक हो तो उसकी संभावना नहीं दिखाई देती। दान और त्याग में बड़ा अन्तर है। दान में अहं बद्ध होता है जब कि त्याग में वह मुक्त हो जाता है। ममत्व के साथ जुड़े भय और चिन्ता निर्ममत्व के साथ जुड़कर अभव और निश्चितता में बदल जाते हैं। यह मन की शान्ति का अमोघ सूत्र है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. सहानुभूति सहानुभूति में तीन शब्द हैं-सह, अनु और भूति । भूति यानी होना - अस्तित्व । मैं हूं, यह मेरा अस्तित्व है, मेरा व्यक्तित्व है अध्यात्मक में वैयक्तिकता होती है, उसमें व्यक्ति होता है । मैं हूं, यह शुद्ध अस्तित्व है । 'मैं अमुक हूं, यह सामाजिक अस्तित्व है । मैं विद्वान हूं, धनी हूं, धार्मिक हूं, 'हूं' के पहले विशेषण लगा कि व्यक्ति भूति से अनुभूति के जगत् में आ गया। मैं कई बार सोचा करता था कि व्यक्ति और समाज को बांटने वाली रेखा क्या है? अब मुझे सूझ रही है कि वह 'भूति' है । इससे इधर व्यक्ति है और उधर समाज । जुड़ने पर 'भूति' का अर्थ होता है - किसी के पीछे होना । अनुभूति स्वतन्त्र नहीं होती । वह ऐन्द्रियक हो या मानसिक, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता । सहानुभूति १६१ हमारे सामाजिक जीवन की स्वतन्त्रता सापेक्ष होती है । इन्द्रिय और मानसिक जगत् परिपूर्ण निरपेक्ष नहीं हो सकता । स्वतन्त्रता की भिन्न-भिन्न मर्यादाएं हैं । स्वतन्त्रता वहां होती है, जहां केवल क्रिया हो, प्रतिक्रिया के लिए अवकाश न हो। अनुभूति में सारी प्रतिक्रियाएं होती हैं । एक बच्चा मिट्टी का ढेला फेंकता है । दूसरा वापस ढेला फेंकता है । यह क्रिया की प्रतिक्रिया है । प्रश्न आता है कि पहले ने ढेला फेंका, क्या वह क्रिया नहीं है ? नहीं, वह भी प्रतिक्रिया है । भूति के बिना कहीं क्रिया नहीं होती । हर क्रिया संस्कार और स्मृति से परतंत्र होती है। स्मृति से बाधित या प्रेरित कोई भी क्रिया स्वतंत्र हो सकती है, ऐसा नहीं लगता । प्रतिक्रिया का अर्थ है - व्यक्तित्व का प्रतिबन्ध । सामाजिक जगत् में क्रिया नहीं किन्तु प्रतिक्रिया होती है | अनुभूति सामाजिकता है। एक शब्द 'सह' और लगा, फिर तो वह शुद्ध सामाजिकता हो गई। जैसे - सह - शिक्षा, सह-चिन्तन, सह-भोजन आदि-आदि। सहानुभूति सामाजिकता का बड़ा गुण है। जहां अनुभूति 'सह' नहीं होती, वहां स्वार्थ को विकसित होने का अवसर मिलता है। एक व्यक्ति शोषण इसलिए करता है कि उसमें सहानुभूति नहीं है । यदि सहानुभूति हो तो वह शोषण नहीं कर सकता । अपने समान दूसरे के अस्तित्व का अनुभव करे, वह शोषण व अन्याय कभी नहीं कर सकता । क्रूरता का विकास जो हुआ और हो रहा है, वह सहानुभूति की निरपेक्षता से हुआ है । सहानुभूति 1 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति की स्थिति जीवन में हो तो क्रूरता नहीं पनप सकती । अपनेपन की तीव्रता से क्रूरता विकसित होती है, अहिंसा या दया की बातें क्षीण हो जाती हैं । स्वार्थ का पोषण सहानुभूति के अभाव में होता है। संघर्ष, द्वन्द्व आदि सहानुभूति के अभाव में ही फलते हैं । सामाजिकता का स्वीकार और सहानुभूति का तिरस्कार- इन दोनों में परस्पर विरोध है । शुद्धोपयोग सामाजिक जीवन में भी वैयक्तिकता की स्थिति है। उसमें केवल होने से आगे - अपने अस्तित्व के सिवाय कुछ नहीं है । यह मानसिक क्लेशों से मुक्त होने की प्रक्रिया है । साम्ययोग, चित्त निरोध, ध्यान या शुद्धोपयोग वह स्थिति है, जहां चेतना के व्यापार में बाह्य विषय की संलग्नता नहीं होती । मानसिक क्लेश शुद्धोपयोग के साथ बाह्य योग होने से होता है । 'मैं सुखी हूं', यह शुद्धोपयोग नहीं है। मेरे साथ सुख का भाव जुड़कर मेरे अस्तित्व को गौण बना देता है। सुख प्रतीति- सापेक्ष है, वह स्वाभाविक नहीं है । 'मैं दुःखी हूं', यह क्लेश की अनुभूति है । सुखानुभूति, दुःखानुभूति, क्लेशानुभूति - इन सारी अनुभूतियों से अलग सहज आनन्द की स्थिति है, वह शुद्धोपयोग है यदि हम शुद्धोपयोग की भूमिका में होते तो सहानुभूति की आवश्यकता नहीं होती । मेरी अनुभूति का दूसरे के साथ तारतम्य नहीं होता । किन्तु हम लोग अनुभूति की भूमिका पर जी रहे हैं, इसलिए सम्पर्क - सूत्रों से मुक्त नहीं होते। भले फिर वे साधु हों, तपस्वी हों या व्यापारी हों, भले फिर वे प्रवृत्ति में संलग्न हों या निवृत्ति में, सामाजिकता का प्रश्न उनसे विच्छिन्न नहीं होता । जब तक हम शरीर, मन और वाणी से संपृक्त हैं, तब तक हमारा सहानुभूति की भूमिका से अलग होना सम्भव नहीं है । सहानुभूति की मर्यादा यह है कि हम अपनी बाह्य स्वतन्त्रता का उपयोग दूसरों की स्वतन्त्रता के संदर्भ में करें। यदि हम दादा धर्माधिकारी को अतिथि मानेंगे तो उनकी स्वतन्त्रता बाधित होगी, हम पर भी भार होगा । हम भी मनुष्य हैं । वे भी मनुष्य हैं। मनुष्य - मनुष्य का सीधा सम्बन्ध है । न हम इनके तंत्र से बाधित हैं और न ये हमारे तन्त्र से बाधित हैं । मुक्तता के लिए मनुष्य का केवल मनुष्य होना आवश्यक है। मनुष्य का मनुष्य के नाते मनुष्य से सीधा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध होना चाहिए । 1 आज का सम्बन्ध ऐसा नहीं है। किसी का धनी के नाते सम्बन्ध है । एक की आवश्यकता है और एक के पास धन देने की क्षमता है यह दाता और आदाता का सम्बन्ध है । इसी प्रकार मालिक और नौकर, संरक्षक और संरक्षित आदि-आदि अनेक सम्बन्ध हैं । सहानुभूति १६३ जितने भी ऐसे सम्बन्ध हैं, वे मानवीय आधार पर नहीं हैं, योगज हैं। हमारे शब्द - जगत् की निष्पत्ति अधिक योगज है । शुद्ध शब्द कम हैं । शब्द तीन प्रकार के हैं- रूढ़, यौगिक और मिश्र । रूढ़ शब्द कम हैं 1 अधिकांश शब्द यौगिक और मिश्र हैं । सामाजिक चेतना में परस्परता का भाव है, उससे मुक्त होकर कोई जी नहीं सकता। किसी व्यक्ति को मोटर, रेडियो आदि आधुनिक सुख-सुविधा प्राप्त हो लेकिन पिता की सहानुभूति प्राप्त न हो तो पुत्र को कारा की - सी अनुभूति होगी । हर व्यक्ति प्रेम चाहता है । उसका अभाव हो तो कभी-कभी व्यक्ति जीवन से ऊब उठता है । सामाजिक स्तर पर जीने वालों के लिए सहानुभूति का सूत्र आवश्यक लगता है। वीतरागता बहुत अच्छी है, किन्तु उसका कृत्रिम प्रदर्शन - अपने स्वार्थ का उत्कर्ष - अच्छा नहीं है । 'मैंने पीया, मेरा बैल पीया, कुआं चाहे ढह पड़े'-- क्या यह वीतरागता है? यह तो केवल अपने स्वार्थ का पोषण है । स्वार्थ में दूसरों के लिए चिन्ता का अवकाश नहीं रहता । वीतरागता में 'भूति' की क्रिया इतनी प्रबल हो जाती है कि वहां अनुभूति को अवकाश नहीं रहता । समस्या वहां है, जहां अनुभूति हो और 'सह' का अवकाश हो । दो व्यक्ति सह-भोजन करते हैं। एक के खाने से दूसरे का पेट नहीं भरेगा । पेट खाने वाले का ही भरेगा। जितनी मात्रा में खाएगा, उतना ही पेट भरेगा । इस वैयक्तिक मर्यादा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । सह-भोजन में मन को तोष मिलता है। खाने की तृप्ति और मनः तृप्ति 'सह' के कारण हुई है। जहां भी 'सह' की स्थिति आती है समस्याएं सुलझ जाती हैं। छोटे सोचते हैं, बड़े लोग हमारे साथ नहीं । छोटी उम्र वाले सोचते हैं, बड़ी उम्र वाले हमारे साथ नहीं हैं। साथ रहते हैं, फिर भी साथ नहीं हैं । यह अलगाव की अनुभूति सामाजिकता का प्रश्नचिह्न है । इसका समाधान होने पर ही सामाजिक सौन्दर्य सम्भव है । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सज्जानाना उपासते ॥' यह वैदिक मंत्र मुझे बहुत आकर्षक लगता है। जैन-सूत्रों में साधारण-शरीरी जीव का उल्लेख मिलता है। साधारण-शरीरी जीव यानी एक शरीर में अनन्त जीव। वे एक साथ जन्मते हैं, साथ में खाते हैं, साथ में सांस लेते हैं, साथ में सुख-दुःख की अनुभूति होती है और एक साथ मरते हैं। ऐसी साधाणता यदि मनुष्य में आ जाए तो विश्व का स्थित्यन्तर हो जाए। इस संभावना के निचले स्तर पर भी 'अमुक काम करने से दूसरों को क्लेश होगा' -इस अनुभूति का तार साधारण हो जाए तो समाज में क्रूर व्यवहार नहीं हो सकता। ___ जब तक यह स्थिति नहीं बनती है तब तक मानसिक अशान्ति के अनेक हेतु उपस्थित हो जाते हैं। बहुत बार हम एकांगी हो जाते हैं। कभी हेतु पर अटक जाते हैं, कभी उपादान तक चले जाते हैं। केवल हेतु और केवल उपादान की मर्यादा अपने आप में पूर्ण नहीं है। दोनों का योग होने से क्रिया निष्पन्न होती है। हेतु है, उपादान नहीं है तो कोई क्रिया निष्पन्न नहीं होगी। उपादान है, हेतु नहीं है तो भी कोई क्रिया निष्पन्न नहीं होगी। प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त है कि रोग का उपादान-विजातीय तत्त्व विद्यमान हैं तो बाहर से निमित्त मिलते ही रोग उभर आता है। विजातीय तत्त्व नहीं हैं तो बाह्य निमित्त मिलने पर भी रोग नहीं होता। रोग उभरने में उपादान और हेतु का योग होता है। अहिंसा या दया का भाव हर व्यक्ति में होता है और घृणा का भाव भी हर व्यक्ति में होता है। निमित्त मिलने पर वे उभर आते हैं। आज अणुव्रत के मंच से धर्म के प्रायोगिक स्वरूप या अहिंसक समाज-रचना की बात सोची जा रही है। इस संदर्भ में, मैं कहना चाहता हूं कि स्वार्थ की प्रबलता से जो चैतसिक मूर्छा आ गई है, उसे मिटाए बिना यानी सहानुभूति का विस्तार किए बिना शान्ति के द्वार खुल नहीं पाएंगे। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहिष्णुता १६५ ५. सहिष्णुता सहिष्णुता का अर्थ है-सहन करना। इसक दूसरा अर्थ है-शक्ति। दोनों अर्थों के योग से ही सहिष्णुता मनुष्य के लिए उपयोगी बनती है। शक्ति-शून्य सहिष्णुता परवशता हो सकती है, अपनी स्वतन्त्र चेतना की स्फूर्ति नहीं। जहां शक्ति के साथ सहिष्णुता होती है, वहां मानवीय स्पर्श होता है। उसमें न अहंभाव होता है और न हीनभाव। अहंभाव और हीनभाव विषमता है। इससे मानवीय अन्तःकरण का स्पर्श नहीं होता। स्पर्श समता में है। प्रकृति का वैषम्य मानवीय सम्बन्धों को विच्छिन्न करता है। एक का दूसरे के साथ सम्बन्ध तभी हो सकता है, जबकि दोनों ओर से साम्य हो, न हीनभाव हो और न अहंभाव हो। अध्यात्मयोग और क्या है? यह साम्य ही तो अध्यात्मयोग है। आचार्य सोमदेव सूरि ने आत्मा, मन, मरुत् और तत्त्व के समतापूर्ण सम्बन्ध को ही अध्यात्मयोग माना है- 'आत्ममनोमरुततत्त्वसमतायोगलक्षणोह्यध्यात्मयोगः'। सहिष्णुता अपेक्षित क्यों है? जितने मनुष्य हैं, वे रुचि, विचार, संस्कार व कार्य की दृष्टि से सम नहीं हैं। वे बाह्य आकार से एक-सम न हों तो कोई कठिनाई नहीं। पर रुचि आदि सम नहीं हों तो उसमें कठिनाई पैदा होती है। उस कठिनाई का निवारण सहिष्णुता के द्वारा ही किया जा सकता है। असहिष्णुता आते ही स्थिति गड़बड़ा जाती है। एक बार हाथ, जीभ, दांत, पैर आदि एकत्र हुए। सबने निर्णय किया कि हम सब काम करते हैं पर पेट कुछ नहीं करता। जो हमारे साथ श्रम न करे, योग न दे, उसका हमें सहयोग नहीं करना चाहिए। सबने हड़ताल कर दी। एक दिन बीता, दो दिन बीते। हाथों में सनसनी छा गई, जीभ का स्वाद बिगड़ गया, मुंह थूक से भर गया, दांतों में मैल जब गया, बदबू आने लगी। तीसरे दिन सब मिले और हड़ताल समाप्त कर दी। हर व्यक्ति में रुचि का भेद होता है। शिविर में चालीस-पचास व्यक्ति हैं। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि यदि भिन्न हो तो उसके अनुसार Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति पचास प्रकार के साग चाहिए। ऐसा सम्भव नहीं। इस असंभवता को मिटाने के लिए रुचि का सामंजस्य आवश्यक होता है। यह रुचि का सामंजस्य ही सहिष्णुता है। इसके अभाव में योग नहीं, वियोग की स्थिति हो जाती है। ... संघीय शक्ति के निर्माण व सुरक्षा के लिए सहिष्णुता अत्यन्त अपेक्षित है। जो प्रमुख हो उसके लिए और अधिक। श्रीकृष्ण गणतंत्र के प्रमुख थे। अक्रूर और भोजवंशी नरेश विरोधी दल के नेता थे। वे भी कृष्ण पर तीव्र प्रहार करते थे। एक दिन कृष्ण उनकी आलोचना से खिन्न हो गए थे। इतने में नारदजी आ गए। पूछा-'उदास क्यों हैं? कृष्ण ने उत्तर दिया-'इनसे मैं तंग आ गया हूं। कोई मार्ग बताइये, अब क्या करूं? नारद ने कहा-'दो आपदाएं होती हैं-बाह्य और आन्तरिक। आपके सामने आन्तरिक आपदा है। बाह्य आपदा को युक्ति-शस्त्र दूर कर सकता है। आन्तरिक आपदा में शस्त्र काम नहीं देता।' 'तो फिर क्या किया जाए? तब नारद ने अनायस शस्त्र से उनकी जीभ बन्द करने की सलाह दी 'अनायसेन शस्त्रेन, मूदुना हृदयच्छिदा । जिहामुद्धर सर्वेषा, परिमृज्यानुमृज्य च ।' शस्त्र एक ही प्रकार का नहीं होता। बादशाह ने बीरबल से पूछा-'शस्त्र क्या है? बीरबल ने उत्तर दिया- 'अवसर'। बादशाह ने कहा-'क्या कह रहे हो? तलवार, भाला, तोप-ये तो शस्त्र हो सकते हैं पर अवसर कैसे? बीरबल ने कहा-'कभी प्रमाणित करूंगा।' एक दिन बादशाह की सवारी निकल रही थी। हाथी उन्मत्त हो दौड़ने लगा। बीरबल ने आगे बढ़ चारों तरफ देखा, एक कुत्ते के सिवाय कुछ नहीं था। तत्काल उसने कुत्ते की टांग पकड़कर घुमाया और हाथी पर दे मारा। हाथी वापस मुड़ गया। कुत्ता क्या शस्त्र है? पर अवसर था, कुत्ता शस्त्र बन गया। शास्त्र भी कभी-कभी शस्त्र बन जाते हैं। शास्त्र और शस्त्र में केवल एक मात्रा का भेद है। शब्दों की चर्चा और शास्त्रों के प्रमाण से मनुष्य जितना पथमूढ़ बनता है, उतना शस्त्र से भी नहीं बनता। कभी-कभी प्रयोग में शास्त्र Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहिष्णुता १६७ भी शस्त्र जसा बन जाता ह। कृष्ण ने पूछा-'अनायस शस्त्र क्या है?' इस पर नारद ने कहा 'शक्त्यान्नदानं सततं, तितिक्षार्जवमार्दवं । यथार्हप्रतिपूजा च, शस्त्रमेतदनायसम् ॥ "विरोधियों को जितना दे सकें, अन्न दें। तितिक्षा रखें-उनके शब्द सुन तत्काल आवेश में न आएं। ऋजुता का व्यवहार करें। मृदुता रखें। बड़ों का सम्मान करें। यह अनायस शस्त्र है, बिना लोहे का शस्त्र है।' नारद ने कहा-'इस शस्त्र से आप उनको वश में कर सकते हैं।' कृष्ण-'क्या मैं कमजोर हूं? क्या मुझमें शक्ति नहीं है, जो उनकी बातों को सहन कडूं? गाली देने वाला प्रतिक्रिया में गाली इसीलिए देता है, 'कि क्या मैं कमजोर हूं? तत्काल अहंभाव उभर आता है। व्यक्ति प्रतिक्रिया में लग जाता है। नारद ने कहा-जो महान् होता है वही सहन कर सकता है नाऽमहापुरुषः कश्चित, नाऽनात्मा नाऽसहायवान् । महतीं धुरमाधत्ते, तामुद्यम्योरसा वह ॥' धुरा आपको चलाना है। जो महान् नहीं, वह सहन नहीं कर सकता। जो आत्मवान् नहीं, वह सहन नहीं सकता। जो सहाय-सम्पन्न नहीं, वह सहन नहीं कर सकता। क्या आप महान्, आत्मवान् और सहाय-सम्पन्न नहीं हैं? कमजोर व्यक्ति कभी सहिष्णु नहीं बन सकता। सहिष्णु वही बन सकता है, जो शक्तिशाली होता है। यहां पीछे पर्दा है। पर्दे का होना और धूप का न आना-दोनों जुड़े हुए हैं। वैसे ही शक्ति का होना और क्रोध का न होना, दोनों जुड़े हुए हैं। मानसिक शान्ति के लिए सहिष्णता आवश्यक है। यह प्रमोद-भावना का बड़ा अंग है। गुणी के गुणों को देख मन में प्रसन्न होना, ईर्ष्या न करना प्रमोद-भावना है। जहां सहिष्णुता होगी वहां प्रमोद-भावना का विकास होगा। ___ एक करोड़पति परिवार था, सब तरह से सम्पन्न। उनमें एक व्यक्ति प्रमुख रूप से काम देखता था, शेष उसके सहयोगी थे। उनके Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति दिल में एक विचार आया। यह तो केवल आज्ञा चलाता है। व्यापार हम करते हैं, पूछ इसकी होती है। असहिष्णुता का भाव आया और सब अलग-अलग हो गए। परिणाम यह हुआ कि जो प्रमुख था, वह कुशल था, इसलिए उसने कुशलता से अपना काम जमा लिया। शेष कठिनाई में पड़ गए। दूसरों को नीचा दिखाने का भाव भी असहिष्णुता से आता है। एक सेठ के घर दो पंडित आए। एक पण्डित कार्यवश इधर-उधर गया। सेठ ने दूसरे से पहले का परिचय पूछा। उसने कहा-'मेरा अधिक सम्पर्क नहीं है, अभी साथ हुए थे। लगता है यह तो बना-बनाया बैल है।' पहला पंडित आया तो दूसरा किसी कार्यवश बाहर गया। उससे दूसरे पंडित का परिचय पूछा गया तो उत्तर मिल-'यह तो पंडित क्या है, गधा है। सेठ ने भोजन के समय एक के सामने चारा और एक के सामने भूसा रख दिया। पंडितों ने अपना अपमान समझा। सेठ ने कहा- 'मुझे तो यही परिचय मिला था। दोनो पंडितों के सिर झुक गए। किसी भी क्षेत्र में चले जाइए। एक कलाकार दूसरे कलाकार की, एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की, एक धार्मिक दूसरे धार्मिक की प्रगति को सहन न करे, उसकी प्रशंसा न करे तो क्या कला, साहित्य और धर्म का उत्कर्ष हो सकता है? लोग चाहते हैं समाज सुखी हो, सर्वत्र शान्ति हो। सुख-शांति क्यों नहीं है? इस प्रश्न पर विचार करते समय सीधा ध्यान अर्थ-तंत्र और राज-तंत्र की अव्यवस्था पर जाता है। यह सत्य है कि बाह्य-व्यवस्था का असर होता है। पर व्यक्ति के अपने स्वभाव का असर होता है, उस ओर ध्यान नहीं जाता। यह बाह्य के प्रति जागरूकता और अध्यात्म के साथ आंखमिचौली है। लोग सोचते हैं, अध्यात्म से क्या? उससे न रोटी मिलती है, न कपड़ा और न मकान। रोटी, कपड़ा और मकान जिसके लिए है वह, मनुष्य और उसका निर्माण अध्यात्म से होता है। जिसके लिए वस्तुएं हैं, उसका यदि निर्माण न हो तो रोटी, कपड़े और मकान का क्या होगा? पदार्थ का अपने आप में मूल्य नहीं है, मूल्य है व्यक्ति का। चैतन्य में आनन्द-उल्लास नहीं है और बाहर सब-कुछ प्राप्त है तो उस एक चैतन्य के अभाव में सब व्यर्थ हो जाते हैं। शेष पर ध्यान न दें, यह मैं नहीं कहता। मैं यह कहता हूं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय का विकास १६६ कि विशेष ध्यान मनुष्य पर दें। मनुष्य के मन को शान्त-संतुलित बनाने की प्रक्रिया न होगी तो वह प्राण-शून्य होगा। सारी अच्छाइयों और सारी बुराइयों का उत्स मन है। मन की क्षमता को बढ़ाने के लिए सहिष्णुता का विकास आवश्यक है। मन की शक्ति का विकास सहिष्णुता का विकास है। मन की शान्ति का ह्रास सहिष्णुता का ह्रास है। ६. न्याय का विकास न्याय क्या है? एक नीति शब्द है, एक न्याय शब्द है। नीति का अर्थ है-ले जाने वाली। नीति मार्ग है और न्याय लक्ष्य है। जहां पहुंचना है, वह न्याय है। इसका शाब्दिक अर्थ है-वापस आना। पक्षी दिन में उड़ जाते हैं और शाम को वापस घोंसले में आते हैं। संस्कृत शब्दानुशासन के न्यायों की बूढ़े की लाठी से तुलना की गई है-'न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः।' आवश्यकतावश बूढ़ा लाठी को टिकाता है, नहीं तो हाथ में ले चलता है। सब जगह उसे टिकाना अनिवार्य नहीं है। शायद हर न्याय की यही स्थिति है। समयानुसार न्याय के रूप भी बदलते रहे हैं। इतिहास बताता है, सामन्तशाही युग में दास को रखना न्याय था। राज्य-सम्मत था। दास का कार्य था मालिक की सेवा करना। स्वतन्त्र रहना उसके लिए अन्याय था। मालिक चाहते तो कान काट लेते, नाक काट लेते, और भी अंगच्छेद कर देते, मौत का दण्ड भी दे देते थे। वैसा करना मालिक के लिए अन्याय नहीं था। उस युग में एक व्यक्ति चाहे जितना धन रख सकता था। दूसरे के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी वह अन्याय नहीं माना जाता था। शक्ति और धन का अनुबन्ध मान लिया गया था। धर्म के क्षेत्र में न्याय का रूप था-पति के साथ पत्नी जीवित जल जाती थी। इसे धर्म का अनुमोदन मिलता था। इस प्रकार सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में न्याय के भिन्न-भिन्न रूप थे। ___ आज उन न्यायों का रूप बदल चुका है। दास की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। नौकर के साथ क्रूर व्यवहार घृणित कार्य माना जाता है। संग्रह भी लगभग अन्याय की दहलीज पर आ खड़ा है। एक Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति करोड़पति है, दूसरा भूखा है, यह अन्याय मान लिया गया है। . न्याय का आधार समता है। एक शब्द में कहूं तो विषमता अन्याय है, समता न्याय है। एकांगी कोण अन्याय है, सर्वांग-दृष्टि न्याय है। समता यान्त्रिक नहीं होनी चाहिए। यान्त्रिक वस्तुएं सम आकार-प्रकार की हो सकती हैं। मनुष्य में यदि यान्त्रिक समता हो तो चैतन्य का मूल्य ही क्या? मनुष्य के अस्तित्व का अर्थ ही है-यान्त्रिक समता से मुक्ति पाना। बाह्य आकार में फलित होने वाली समता मुझे कभी प्रभावित नहीं कर सकी। विविधता दुःखद नहीं, सुखद होती है। दिल्ली में एक ही प्रकार के पेड़ हों तो मन को नहीं भाते। पुराने जमाने में राजा किसी को दण्ड देता था तो उसे एक ही रंग के मकान में रख देता था। परिणामतः आंख विकृत हो जाती। दूसरी चीजें देखने को न मिलने से आंखों का प्रकाश कम हो जाता। मनुष्य विविधता चाहता है। नाना प्रकार की वस्तुएं मन को लुभाती हैं। एक व्यक्ति की तरह सबका आकार और कद होता तो सौन्दर्य नहीं होता। किसी की पहचान का मौका नहीं मिलता। एक को देखने से सबका ज्ञान हो जाता, अलगाव जैसा कुछ होता ही नहीं। बाह्य वातावरण में समता न फलित होने वाली है और न वांछनीय ही है। व्यक्ति के अन्तःकरण में समता होनी चाहिए, वर्ण-प्रकार भले ही भिन्न हो। अन्तर में समता हो तो बाह्य विषमता दुःखदायी नहीं होती। मन का द्वैध बाह्य में फलित होने से कष्ट होता है। बिल्ली अपने दांतों से बच्चे को पकड़ती है और चूहे को पकड़ती है। दांत एक ही हैं। दांतों के पीछे मन की क्रिया भिन्न है। एक के पीछे वत्सलता है, दूसरे के पीछे क्रूरता । एक व्यक्ति पुत्री से आलिंगन करता है और पत्नी से भी आलिंगन करता है। आलिंगन समान है पर मन की क्रिया भिन्न-भिन्न है। हाथ सहज उठता है। तर्जना के समय अंगुली उठाने पर स्वरूप बदल जाता है। तर्जना की शक्ति कहां है, अंगुली में या मन में? मन में तर्जना का भाव आते ही अंगुली उठ जाती है। घृणा का भाव आते ही अंगूठा दिखा दिया जाता है। बिजली के करेंट की तरह मन का प्रवाह बाहर फूट पड़ता है। विषमता का मूल अन्तःकरण है। वह वाणी के द्वारा अभिव्यक्त होता है। क्रोध के समय भृकुटि में तनाव आ जाता है। घृणा में नाक सिकुड़ जाती है। भाषा भाव की अभिव्यक्ति के लिए बनी है। स्थायी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय का विकास २०१ भाव, संचारी भाव आदि सारे भावों से मन का योग होता है। आंखें जड़ हैं, कांच हैं। उसके पीछे जो प्राण है, वह चैतन्य की प्रतिष्ठा है। ____ मन के केन्द्र में देखें, विषमता कितनी है। बाह्य परिस्थिति में विषमता की ओर जितना ध्यान दिया गया उतना यदि आन्तरिक विषमता की ओर दिया जाता तो परिस्थिति भिन्न प्रकार की होती। __ एक आचार्य ने शिष्य से कहा-सांप को नाप आओ। वह भूमि को चिह्नित कर उसे नाप आया। गुरु ने सोचा-काम नहीं बना। दूसरी बार कहा-सांप के दांत गिन आओ। क्या यह वैषम्य नहीं है? मारने का प्रयत्न नहीं है? शिष्य के मन में विपरीत भावना नहीं हुई, उसने गुरु की कृपा मानी। दांत गिनने का यत्न किया और सांप ने उसे काट लिया। गुरु ने कहा-आ जाओ। शिष्य को सुला दिया और कम्बल ओढा दिया। पसीना आया, शरीर से कीड़े निकले। रोग मिट गया, शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया। आपात् दर्शन में यह प्रकार अच्छा नहीं लगता। बाह्य में वैषम्य था पर अन्तर में विराट प्रेम था। अन्तर में प्रेम का प्रवाह हो तो कुछ भी खलता नहीं। अन्तर में प्रेम न हो और बाहर में समता का प्रदर्शन हो तो भी मन को भाता नहीं। इसलिए अन्तर् की समता को विकसित किया जाए। जिनके साथ हार्दिक सम्बन्ध हो जाता है, उनके लिए प्राण देने में भी कष्ट की अनुभूति नहीं होती। ___कानून बाहर से आता है। अध्यात्म अन्तःकरण से निकल बाहर को प्रभावित करता है। समस्या इसलिए उत्पन्न होती है कि अन्तःकरण पर ध्यान नहीं दिया जाता। अन्तःकरण में विषमता का मनोभाव न हो तो खलता नहीं है। कुम्भकार की तरह चोट के पीछे परिवार और जगत के प्रति सुरक्षा का भाव हो तो बाह्य विषमता कभी नहीं खलती। अन्याय दूसरों के प्रति ही नहीं, अपने प्रति भी होता है। खाने में क्या अपने साथ अन्याय नहीं किया जाता? दांतों और आंतों के साथ अन्याय किया जाता है। चबाकर न खाने से दांतों की शक्ति क्षीण होती है। पायरिया की बीमारी हो जाती है। बिना चबाए लार भीतर नहीं जाती। पचाने से आंतों को कष्ट होता है। कई व्यक्ति चाय और दूध इतना गरम पीते हैं कि कटोरे को संडासी से पकड़ना होता है। जिसका स्पर्श हाथ नहीं कर सकते, उसे आंतें कैसे सह सकेंगी! व्यक्ति जानता Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति है, 'मेरा पेट ठीक नहीं है, मैं नहीं पचा सकता'-फिर भी स्वादवश खा लेता है। परिणाम भोगना पड़ता है। दूसरी इन्द्रियों के साथ भी बहुत बार न्याय नहीं किया जाता। एकांगी दृष्टिकोण कुछ लोग धर्म की ओर इतने झुकते हैं कि उन्हें धर्म से इधर-उधर कुछ नहीं दिखाई देता। कुछ लोग धन की ओर इतने झुकते हैं कि वे धन के लिए प्राणों की भी परवाह नहीं करते। कुछ लोग काम (सेक्स) की ओर अधिक झुक जाते हैं। एकांगिता से मानसिक अशान्ति उत्पन्न होती है। प्राचीन समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर मन्थन कर एक निष्कर्ष निकाला था कि धर्म, अर्थ और काम का परस्पर विरोध भाव से सेवन करना चाहिए। ___ एक व्यक्ति गृहस्थ की भूमिका में रहना चाहता है, बच्चे और परिवार को रखना चाहता है और अपने दायित्व से हटना भी चाहता है। यह मतिभ्रम है। एक व्यक्ति ने आचार्यश्री ने पूछा- 'गाय को घास डालने में क्या होता है? आचार्यश्री से उत्तर दिया-'गाय को रखने में क्या होता है? जो गाय को रखने में होता है, वही उसको योस डालने में होता है।' जो व्यक्ति गाय को रखे, दूध पीये और घास डालते समय सोचे कि इसमें क्या होगा, यह व्यामोह जैसा है, स्वार्थवृत्ति होती है तब घास डालने में पाप का प्रश्न उठता है। दूध लेने में वह (पाप) आगे उपास्थत नहीं होता। आचार्य भिक्षु ने स्वार्थवृत्ति को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया। 'चार व्यक्तियों को एक गाय दक्षिणा में मिली। चारों ने समाझौता कर एक-एक दिन दोहना स्वीकार किया। पहले ने घास नहीं डाली। सोचा-'दूसरे दिन वाला डाल देगा।' दूसरे ने सोचा- 'पहले वाले ने घास डाली ही है, तीसरे दिन वाला फिर डाल देगा। एक दिन मैं क्या होगा? सभी ने ऐसा हीं सोचा। दूध तो सभी ने लिया, पर घास किसी ने नहीं डाली। परिणामतः गाय मर गई। परिवार से काम लेना और दायित्व से जी चुराना न्याय नहीं है। इसी प्रकार धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों में से एक का अधिक सेवन करना न्याय नहीं है। इसीलिए आचार्य सोमदेव ने लिखा है Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति का प्रबोध २०३ धर्म का अतिसेवन काम और धन को पीड़ित करता है। काम का अतिसेवन धर्म और धन को पीड़ित करता है। धन का अतिसेवन धर्म और काम को पीड़ित करता है। एकांगी दृष्टिकोण अपूर्ण होता है। बाह्य वातावरण में समता तभी फलित होती है जब उसके नीचे सौन्दर्य, प्रेम और पवित्रता होती है। यह न्याय के द्वारा संभावित है। मन की शान्ति तब तक नहीं, जब तक न्याय नहीं। मन की शान्ति बाह्य वातावरण में नहीं, मन में होती है। मन अनाकुल हो तो मनुष्य कोलाहल में रहकर भी शान्ति पा सकता है और मन अनाकुल न हो तो वह जंगल में रहकर भी शान्ति नहीं पा सकता। 'यह गांव है, यह जंगल है'-यह कल्पना उन लोगों की है, जो दृष्टात्मा नहीं हैं। जो आत्मदर्शी हैं, उनके मन में गांव और जंगल का भेद नहीं रहता। हम जितने बाहर फैले हुए हैं उतने ही आत्मा से दूर जा रहे हैं। यह अन्याय है। आत्मा में प्रतिष्ठित होना न्याय है। आत्म-प्रतिष्ठा और न्याय की भाषा एक होने पर अन्याय का प्रश्न नहीं रहता। ७. परिस्थिति का प्रबोध सूर्य की रश्मियां जैसे ही धरातल का स्पर्श करती हैं, वैसे ही अंधकार के परमाणु आलोक में बदल जाते हैं। यदि पदार्थ-जगत् में बदलने की क्षमता नहीं होती तो जो जैसे है, वह वैसा ही रहता। किन्तु ऐसा नहीं है। जो है, वह बदलता है और प्रतिक्षण बदलता है। पदार्थ में एक ऐसा परिवर्तन होता है, जो हमारी स्थूल-दृष्टि से गम्य नहीं है। वह सूक्ष्म होता है, इसलिए उस परिवर्तन से हमें रूपान्तरण की प्रतीति नहीं होती। स्थूल हेतुओं से होने वाले परिवर्तन स्थूल होते हैं और उनके हेतु भी स्पष्ट होते हैं। कुछ हेतु अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं और कुछ हेतु अपनी उपस्थिति तक अपना प्रभाव डालते हैं और अनुपस्थिति में वह प्रभाव मिट जाता है। लाल कपड़े से प्रभावित होकर स्फटिक लाल हो जाता है और लाल कपड़े के हट जाने पर उसकी लालिमा समाप्त हो जाती है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति एक आदमी पत्थर से ठोकर खाकर चोट खा लेता है। पत्थर का योग अल्पकालीन होता है किन्तु उसका परिणाम दीर्घकाल तक रह जाता है। निमित्तों, हेतुओं या कारणों की समुचित उपस्थिति में वस्तु को नया आकार प्राप्त होता है। वह बहुत स्पष्ट और स्थूल होता है, इसलिए उसे हम परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन के दो बीज हैं-उपादान और हेतु। क्षमता-बीज परिस्थिति का योग पाकर अंकुरित हो जाते हैं। परिस्थिति का योग पाए बिना क्षमता-बीज अंकुरित नहीं होते। जो क्षमता-बीज नहीं हैं, वे परिस्थिति का योग होने पर भी अंकुरित नहीं हो सकते। बीज और परिस्थिति दोनों का उचित योग होने पर ही परिवर्तन होता है। सूर्य की गरमी से धरती तप उठती है किन्तु आकाश नहीं तपता। जिसमें ताप-ग्रहण की क्षमता नहीं है, वह सूर्य की उपस्थिति में भी नहीं तपता। धरती में ताप-ग्रहण की क्षमता है पर वह सूर्य की अनुपस्थिति में नहीं तपती। परिस्थिति केवल बाह्य वातावरण या परिवेश ही नहीं है। वह बाह्य और आन्तरिक दोनों वृत्तों के धागों से अनुस्यूत होती है। हर वस्तु का अपना स्वभाव होता है। अंगूर में जो मधुरता है, वह मिर्च में नहीं है और मिर्च में जो तिक्तता है वह अंगूर में नहीं है। परिस्थिति के पट का एक तन्तु है-स्वभाव की मर्यादा। ____ बजरी का पाक चौमासे में होता है तो चना सर्दी में पकता है। चने की बुआई आषाढ़ में और बजरी की बुआई मिगसर में नहीं होती। परिस्थिति के पट का दूसरा हेतु है-काल की मर्यादा। घर में बिजली है। उसमें प्रकाश देने की क्षमता भी है। किन्तु बटन दबाने को कोई हाथ नहीं उठता है तो बिजली के होने पर भी प्रकाश नहीं मिलता। परिस्थिति के पट का तीसरा तन्तु है-प्रवृत्ति या पुरुषार्थ की मर्यादा। मनुष्य में प्रकाश का संस्कार संचित है, इसीलिए वह अंधकार में प्रकाश का संरक्षण चाहता है। संस्कार भावी उपलब्धि के दरवाजे को खटखटाता ही नहीं, खोल भी देता है। परिस्थिति के पट का चौथा तन्तु है-संस्कार या भाग्य की मर्यादा। यह विश्व कुछ सार्वभौम नियमों से बंधा हुआ है। उनका Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति का प्रबोध २०५ अतिक्रमण नहीं होता । विश्व का एक नियम है ध्रुवता । जो सत् है, वह ध्रुव है । इसी नियम के आधार पर विश्व था, है और होगा । विश्व का दूसरा नियम है - परिवर्तनशीलता । जो सत् है वह परिवर्तनशील है। इस नियम के आधार पर विश्व रूपान्तरित हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। परिवर्तनशीलता विश्व का अपरिहार्य नियम है, इसीलिए कुछ बदलता है और कुछ बदलने का हेतु बनता है । परिस्थिति के पट का पांचवां तन्तु है - नियति - सार्वभौम नियम । वस्तु की अनेक क्षमताएं उपयुक्त परिस्थिति ( साधन-सामग्री) के अभाव में व्यक्त नहीं हो पातीं। संचित कर्म का भी साधन-सामग्री के बिना पूरा परिपाक नहीं होता । शरीर की लम्बाई और चौड़ाई, रूप और रंग, भौगोलिक वातावरण से प्रभावित होते हैं। मानसिक उतार-चढ़ाव बाह्य सम्पर्कों से प्रभावित होते हैं । विचार बाह्य दृश्यों और रंगों से प्रभावित होते हैं । कोई भी व्यक्ति परिस्थिति के प्रभाव से मुक्त नहीं होता, जो उसके प्रभाव क्षेत्र में होता है। ठंडी हवा चलती है, आदमी कांप उठता है। कम्पन निर्हेतुक नहीं है। कड़ी धूप होती है, पसीना चूने लग जाता है। पसीना निर्हेतुक नहीं है । मन के प्रतिकूल योग मिलता है, आदमी क्रुद्ध हो उठता है । अचिन्त्य सामग्री मिल जाती है, आदमी गर्वोन्मत्त हो जाता है । हर्ष और उल्लास, भय और शोक ये सभी आवेग परिस्थिति के योग से अभिव्यक्त होते हैं । इनकी अभिव्यक्ति से मन का संतुलन बिगड़ता है । फलतः मन अशान्त हो उठता है । परिस्थिति के प्रभावक्षेत्र में रहकर मन उससे अप्रभावित नहीं रह सकता। वह भावना से भावित होकर उसके प्रभाव क्षेत्र के बाहर आ जाता है । फिर यह परिस्थिति के हाथ का खिलौना नहीं होता । अनित्य - भावना से प्रभावित मन संयोग-वियोग की ऊर्मियों से प्रताड़ित नहीं होता । अशरण - भावना से प्रभावित मन असहाय नहीं होता । एकत्व - भावना से प्रभावित मन सामाजिक जीवन के संघर्षों से व्यथित नहीं होता । मैत्री - भावना से प्रभावित मन आशंका, कुशंका, सन्देह, भय और द्वेष के चक्र से मुक्त हो जाता है। प्रमोद - भावना से प्रभावित मन ईर्ष्या से संत्रस्त नहीं होता । करुणा भावना से प्रभावित मन से क्रूरता विसर्जित हो जाती है । मध्यस्थ-भावना से प्रभावित मन क्रोध और निराशा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति से बच जाता है। अनुकूलता का वियोग, प्रतिकूलता का संयोग, असहायता की अनुभूति, संघर्ष, सन्देह, भय, द्वेष, ईर्ष्या, क्रूरता, क्रोध और निराशा-ये सब मन में असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। असन्तुलित मन में अशान्ति उत्पन्न होती है। वह सुख को लील जाती है। भावना, शान्ति और सुख में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। गीता में लिखा है-'न चाभावयतः शान्तिः, अशान्तस्य कुतः सुखम्?' ___भावना के बिना शान्ति नहीं होती, शान्ति के बिना कुछ नहीं होता। भावना संस्कार-परिवर्तन की पद्धति है। ध्येय के अनुकूल बार-बार मनन, चिन्तन और अभ्यास करने पर पूर्व-संस्कार का विलोप और नये संस्कार का निर्माण हो जाता है। अशान्ति के हेतुभूत संस्कारों का विलयन किए बिना कोई भी व्यक्ति शान्ति का स्पर्श नहीं कर सकता। परिस्थिति सदा एकरूप नहीं रहती। कभी वह अनुकूल होती है और कभी प्रतिकूल हो जाती है। अनुकूलता में जिसे हर्ष की तीव्र अनुभूति होती है, वह प्रतिकूलता में शोक की तीव्र वेदना से बच नहीं सकता। अपनी चेतना और पुरुषार्थ को सत्य की अनुभूति में प्रतिष्ठित करने वाला व्यक्ति परिस्थिति से आहत नहीं होता। असत्य का चुम्बकीय आकर्षण परिस्थिति के प्रभाव को अपनी ओर खींच लेता है। सत्य में वह चुम्बकीय आकर्षण नहीं है, इसलिए परिस्थिति का प्रभाव उसकी ओर प्रभावित नहीं होता। अग्नि से बहुत सारी वस्तुएं जल जाती हैं पर अभाव नहीं जलता। परिस्थिति से वही मन जलता है, जो सत्य की भावना से प्रभावित नहीं है। ८ सर्वांगीण दृष्टिकोण जीवन में सबसे प्राथमिक मूल्य मानसिक शान्ति का है। मानसिक शान्ति के बारे में समग्रता से किन्तु सहजता से चिन्तन होना चाहिए। जो योजनाकृत होता है, वह बहुत अच्छा नहीं होता। जो सहज भाव से निकले, वह स्वभाविक होता है। जो बुद्धिपूर्वक होता है, वह स्वाभाविक नहीं होता। वृक्ष अनित्य होता है क्योंकि वह कृत है। घट भी अनित्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वांगीण दृष्टिकोण २०७ है, क्योंकि वह कृत है। आकाश नित्य है क्योंकि वह अकृत है। कृत का मूल्य शाश्वत नहीं होता। सहज निष्पन्न अच्छा होता है। __मैंने मानसिक शान्ति के सोलह सूत्र निश्चित किए हैं। उनमें पूर्वापर क्रम नहीं सोचा था। किन्तु अब लगता है कि उनमें क्रम है। शरीर और मन का गहरा सम्बन्ध है। इन्द्रियों के साथ भी मन का घनिष्ठ योग है। उन्हें साधना भी बहुत आवश्यक है। एक योगविद् ने कहा है 'तत्त्वविज्ञानवैराग्यरुद्धचित्तस्य खानि मे । न मृतानि न जीवन्ति न सुप्तानि न जाग्रति ॥' हमारी इन्द्रियां साधना के द्वारा ऐसी हो जाएं कि न वे मृत हों और न जागृत। मृत इसलिए नहीं कि उनमें विषय-ग्रहण की शक्ति है। जीवित इसलिए नहीं कि उस समय विषय-आसक्ति नहीं है। सुप्त इसलिए नहीं कि विषय के अग्रहण में निद्रा जैसी परवशता नहीं है। जागृत इसलिए नहीं कि वे विषयों की ओर व्याप्त नहीं होती। इन्द्रिय और आत्मा के बीच में मन है। मन बाहर जाता है, इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हो जाती हैं और वह भीतर जाता है, इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं। मन पर बाह्य संघर्षों का प्रभाव होता है, इसलिए हमने उन पर भी विचार किया है। मन को कौन प्रभावित नहीं करता? यह सौर-जगत, वनस्पति-जगत्, प्राणी जगत्, परमाणु-जगत्-सभी मन को प्रभावित कर रहे हैं। योग के आचार्यों ने इस विषय का विशद विवेचन किया है। मन बाह्य आकर्षणों और विकर्षणों से जड़ा है। अभी देख रहा हं. कहीं से कोई स्पर्श नहीं हो रहा है। किन्तु सच यह है कि असंख्य परमाणु स्पृष्ट हो रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं। एक अमेरिकन महिला डॉ. जे. सी. ट्रस्ट ने अणु-आभा के फोटो लिये। आणविक प्रभाव को देखते हुए यह कहना बहुत सरल नहीं है कि मैं स्वतंत्र बुद्धि से सोच रहा हूं। हर व्यक्ति बाह्य परिस्थिति और निमित्तों से बंधा हुआ है। आज कोई भी शरीरधारी, जो इस जीवमण्डल और वायुमण्डल में जी रहा है, सार्वभौम स्वतंत्र नहीं है। जो कोई विचार निष्पन्न होता है, वह अनेक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति वस्तुओं के योग से निष्पन्न होता है, इसलिए निरपेक्षता की बात करना नितान्त अज्ञान होगा। ___ हमारा दृष्टिकोण सापेक्ष होना चाहिए। हमारे एक विचार के पीछे अनेक अपेक्षाएं होती हैं। सापेक्षता से हमारी मानसिक शान्ति को बल मिलता है। एकांगी दृष्टिकोण से अशान्ति निष्पन्न होती है। इन इक्कीस दिनों में आप लोगों ने मुझे, जैनेन्द्रजी और दादा धर्माधिकारी को सुना। कभी लगा कि हम लोग भिन्न-भिन्न बातें कर रहे हैं, कभी लगा कि निकट आ रहे हैं। कभी लगा कि विरोधी बातें कर रहे हैं और कभी लगा कि एक ही बात कह रहे हैं। . इस दुनिया में अनेक मार्ग हैं। आदमी भटक जाता है, किधर जाए? किसे सुने? और किसे माने? निर्णय नहीं कर पाता। एक की बात सुनता है तो वह ठीक लगती है। दूसरे का तर्क आने पर वह ठीक नहीं लगती। इस शब्द के जगत् में न जाने कितने तर्कों और वादों का जाल बिछा है। आप महाभारत को पढ़िए। कहीं आपको काल की अनन्त महिमा मिलेगी। लिखा है-काल से सारी बातें निष्पन्न होती हैं। समय पर सूर्य उदित होता है, समय पर वृक्ष फलते-फूलते हैं, समय पर वर्षा होती है और समय पर आदमी जन्मता-मरता है। ऐसा लगता है समय ही सब कुछ है। पुरुषार्थ को सुनेंगे तो लगेगा है कि पुरुषार्थ के सिवाय और कुछ नहीं है। सत्य यही है कि पुरुषार्थ करें। भाग्य के उदाहरण हजारों मिलेंगे। पढ़ा-लिखा नौकरी कर रहा है और अनपढ़ धनवान बना हुआ है। वर्षों तक पुरुषार्थ किया पर कुछ नहीं बना। नियतिवादी कहते हैं-सब अपने आप हो जाएगा। करने कौन जाता है? कितने वादों का चक्र है। मन में उलझन पैदा कर देता है। बहुत सारे मानसिक सिद्धान्तों को लेकर उलझे रहते हैं और उनकी मानसिक शान्ति भंग हो जाती है। एकांगी विचारों के आधार पर चलेंगे तो मानसिक शान्ति कभी नहीं मिलेगी। इसलिए दृष्टि को सापेक्ष बनाएं। जो सत्य दुनिया में है उसे सोलह के सोलह आना कहने के लिए किसी के पास शब्द नहीं हैं। मैं बोल रहा हूं और जानता हूं कि अनंत सत्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वांगीण दृष्टिकोण २०६ के एक निश्चित अंश पर बोल रहा हूं। अंश को पूर्ण मानते ही सत्य की हत्या हो जाती है। ज्ञान अच्छा है। पर आप उसकी जकड़ में आ गए तो कर्मविमुखता प्राप्त होगी। इस कर्म-विमुखता की स्थिति का अनुभव हुआ, तभी यह कहना पड़ा-'दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः। ___'जो आचरण नहीं करता उसका ज्ञान विधवा के श्रृंगार के समान शरीर के लिए भारभूत ही होता है।' क्षमा अच्छी है पर सर्वत्र उसकी अच्छाई मान्य नहीं हुई इसीलिए कहा गया-'क्षमा भूषणं यतीनां न भूपतीनाम्।' । सन्तोष अच्छा है। उसके समान सुख नहीं है पर सन्तोषी राजा अपना राज्य गंवा देता है : 'सन्तुष्टो राजा विनश्यति। सन्तोषी व्यापारी भी नष्ट हो जाता है। __हर विचार अपनी भूमिका से आता है। उसी के सन्दर्भ में उसका मूल्यांकन होता है और होना चाहिए। सत्य अनन्त है। कोई भी शब्द व भाषा उसके एक अंश को भी पूरा नहीं कर सकती। हम कहते हैं, सर्वज्ञ ने ऐसा कहा है। सर्वज्ञ जान सकता है पर कह तो नहीं सकता। इसीलिए कहा गया है कि प्रज्ञापनीय अनन्त है। वाणी का विषय उसका एक हिस्सा भी नहीं बनता। तीन लोक के सारे द्रव्य-पर्यायों को जानने वाला भी एक द्रव्य के अनन्त पर्यायों में से हजार पर्यायों की भी व्याख्या नहीं कर सकता। एक व्यक्ति जितना जानता है उतना ही ठीक है, या जो जानता है वही ठीक है, शेष नहीं-यह असत्य है। जो पहले जान लिया गया वही ठीक है, शेष नहीं, तो क्या पूर्वजों ने यह कभी कहा कि हमने पूरा सत्य कह दिया है, आगे के लिए दरवाजा बन्द है? यह मानना चाहिए कि जब तक संसार रहेगा, मनुष्य रहेगा, आत्मा की उपासना रहेगी, सत्य की खोज रहेगी, तब तक नयी-नयी उपलब्धियां होती रहेंगी। यह दृष्टि स्पष्ट रहेगी तो अपनी मानसिक शान्ति का भंग नहीं होगा। दादा धर्माधिकारी ने आर्थिक उत्पादन और वितरण के पहलू पर प्रकाश डाला। जैनेन्द्रजी ने बाह्य परिस्थिति पर प्रकाश डाला, कभी-कभी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति आन्तरिकता पर भी। मैंने मानसिक शान्ति की चर्चा की। ये सारे चिन्तन एकांगी हैं। जीवन का पक्ष एक ही नहीं है। मानसिक शान्ति की चर्चा हो, यदि रोटी न हो तो शान्ति नहीं मिलती। भूखा क्या पढ़ेगा? प्यास है, क्या वह साहित्य के रस से बुझ जाएगी? ___ एक रोगी स्वास्थ्य की कामना लिये चला। आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक, ऐलोपैथिक, यूनानी, प्राकृतिक आदि चिकित्सकों के पास गया। सबने अपनी-अपनी पद्धति का महत्त्व बताया और दूसरी का खण्डन किया। मैंने कई प्राकृतिक चिकित्सकों को सुना है। वे जब ऐलोपैथी का खण्डन करते हैं तब उनकी आत्मा मुखर हो उठती है। मैं स्वयं प्राकृतिक चिकित्सा को महत्त्व देता हूं। लेकिन ऐकान्तिक आग्रह मुझे अच्छा नहीं लगता। शल्य-चिकित्सा में प्राकृतिक चिकित्सा क्या करेगी? आयुर्वेद वाले ऐलोपैथिक का खण्डन करते हैं। वे कहते हैं-ऐलोपैथी दवा रोग को एक बार दबा देती है, उसकी प्रतिक्रिया होती है, तब दूसरे रोग उभर आते हैं। आयुर्वेदी चिकित्सा में रोग को जड़ से मिटाने का प्रयत्न होता है और ऐलोपैथी में वर्तमान पर ध्यान दिया जाता है। दीर्घकालीन चिकित्सा में आयुर्वेद सक्षम है और तात्कालिक चिकित्सा में ऐलोपैथी भी। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन सारी दृष्टियों से देखने पर सत्य के निकट पहुंचा जा सकता है। एकांगी दृष्टि से सत्य का किनारा नहीं मिलता। कई अध्यात्म पर बल देते हैं पर आसन, प्राणायाम आदि को अच्छा नहीं मानते। यह ऐकान्तिक आग्रह है। अमुक-अमुक रोग में आसन और प्राणायाम भी उपयोगी बनते हैं। एक भूमिका में धर्म साधन है और आवश्यक है पर मुक्ति-दशा में धर्म अनावश्यक बन जाता है। एकांगी आग्रह किसी भी क्षेत्र में ठीक नहीं। एक बात को त्रैकालिक मान पकड़ बैठने में कठिनाई होती है। हमारे व्यवहार की भूमिका यह है कि हम न अप्रिय सत्य बोलें और न असत्य बोलें किन्तु पाक्षिक सत्य बोलें। इस विषय में मैं एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूं। एक बार एक राजा ने, जो कि काना था, चित्रकारों को आमंत्रित किया। उसने कहा-'मेरा चित्र सुन्दर होना चाहिए, सत्य होना चाहिए, किन्तु नग्न सत्य नहीं होना चाहिए।' एक लाख रुपये के Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वांगीण दृष्टिकोण २११ रहा है, सुन्दरपत्रकार का नहीं है, क्योंकि ने के पुरस्कार की घोषणा की। सबके सामने समस्या थी कि शर्तों की पूर्ति कैसे हो? तीन चित्रकारों ने चित्र बनाना स्वीकार किया। एक चित्रकार चित्र ले जब राजा के पास पहुंचा तो उसे देख राजा ने कहा-'चित्र सुन्दर है, मुंह से बोल रहा है पर सत्य नहीं है, क्योंकि इसमें दो आंखें दिखाई गई हैं।' दूसरे चित्रकार का चित्र देख राजा ने कहा-'चित्र साक्षात् बोल रहा है, सुन्दर भी है, पर इसमें एक आंख फूटी हुई दिखाई गई है, इसलिए यह नग्न सत्य है।' तीसरे ने तन्मयता से सोचकर चित्र बनाया। उसने कल्पना से दिखाया कि राजा शिकार के लिए प्रत्यंचा ताने हुए है जिससे हाथ की ओट में एक आंख आ गई। राजा ने उसे देखकर प्रसन्नता व्यक्त की और उसे एक लाख रुपयों का इनाम मिल गया। तीसरा चित्र न असत्य था और न नग्न सत्य किन्तु पाक्षिक सत्य था। कई लोग स्पष्ट कहने में अपना गौरव मानते हैं। पर नग्न सत्य ग्राह्य नहीं होता। कई लोग दूसरे को प्रसन्न रखने के लिए असत्य का सहारा लेते हैं। वह उनके अहित के लिए होता है। पाक्षिक सत्य ग्राह्य भी होता है और हितकर भी। ___हमारा दृष्टिकोण सर्वांगीण, सामंजस्यपूर्ण और सापेक्ष होना चाहिए। सर्वांग दृष्टि में सत्य की दूरी नहीं होती। सारे विचारों को एक सूत्र में पिरोने से माला बन जाती है। यही अनेकान्त है। एक माला न बनने से एक-एक मनका बिखर जाता है। ___सत्य को किसी पर थोपने का अधिकार मुझे नहीं है। मैंने तो स्याद्वाद के विचार से अपने-आपको बांधा है। मुझे लगता है दृष्टि सत्योन्मुख है तो जीवन में कोई क्लेश नहीं है। आचार्यश्री ने मुझे सत्य की दृष्टि दी है। आगम-शोधकार्य के लिए आचार्यश्री ने कहा-'हम बड़ा दायित्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। कहीं भी साम्प्रदायिक दृष्टि से मत सोचना कि हमारी मान्यता क्या है? जो सत्य लगे उसे प्रकट कर देना है। अपनी परम्परागत मान्यता के लिए उल्लेख किया जा सकता है कि हमारी मान्यता यह है। पर सत्य को अपनी मान्यता से नहीं रंगना है।' व्यक्ति अधिक प्रिय है या सत्य? परिस्थिति अधिक प्रिय है या सत्य? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य भिक्षु ने दिया था। उन्होंने Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति कहा-'आज मैं जो कह रहा हूं, वह मेरी दृष्टि में शुद्ध है। कल कोई बहुश्रुत या तत्त्वविद् हो, उसे यह ठीक न लगे तो इसे छोड़ दे।' उन्होंने कभी ऐसी लक्ष्मण-रेखा नहीं खींची कि इस रेखा से बाहर सत्य नहीं है। ऐसा कहना आग्रह हो जाता है। ___कोई भी शब्द, भाषा या पदार्थ ऐसा नहीं है जो सत्य की परिपूर्ण व्याख्या दे सके। सारे विचारों को हम इस संदर्भ में देखें। सापेक्ष सत्य मानकर उसे स्वीकार करें। समग्रता से जो बात आएगी, वह ग्राह्य होगी। सूर्य चला जाता है, फिर अंधकार छा जाता है। पुराने जमाने में दीप से प्रकाश करते थे, आज बिजली से प्रकाश किया जाता है। प्रकाश के अनेक साधन हो सकते हैं और उनमें तारतम्य भी हो सकता है। परन्तु प्रकाश प्रकाश है। सूर्य प्रकाश देता है और दीया भी प्रकाश देता है। वैसे ही सत्य चाहे सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ तो या किसी तुच्छ व्यक्ति द्वारा। सत्य सत्य है, उसमें अन्तर नहीं। मात्रा में तारतम्य हो सकता है। समग्रता के संदर्भ में आप सारी प्रक्रिया पर विचार करेंगे तो मुझे विश्वास है कि आप मानसिक शान्ति से वंचित नहीं रहेंगे। ६. निगमन यदग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुंचति । जानाति सर्वथा सर्वं, तत् स्वसवेद्यमस्म्यहम् ॥ आचार्य पूज्यपाद ने अहं की व्याख्या करते हुए कहा-जो अग्राह्य का ग्रहण नहीं करता, गृहीत को छोड़ता नहीं, सबको सर्वथा जानता है वह 'अहं' है। जहां अग्राह्य का ग्रहण, गृहीत का मोचन और असर्व का ज्ञान है, वहां अहं की सत्ता प्राप्त नहीं है। जो अहं की कल्पना है, वही अहिंसक समाज की कल्पना है। स्वभाव कभी त्यक्त नहीं होता। त्यक्त विभाव होता है। जो 'अहं' से इतर है, उसे त्यागना है यही अणुव्रत है। प्रश्न-अणुव्रत-साधना-शिविर में खेती, उत्पादन, औजार आदि की चर्चा होती है, अच्छा खाते-पीते हैं, मनोरंजन करते हैं। क्या यही साधना Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगमन २१३ है? ध्यान, मौन आदि तो कम होते हैं। यह साधना-गृह है या मनोरंजन-गृह? उत्तर-जो साधना की निश्चित रेखा बना रखी है, उसी के भीतर साधना है, बाहर नहीं, यह क्यों मान रखा है? साधना क्या है? पहले इसे समझें। ध्यान, मौन, शिथिलीकरण साधना है, पर क्या बोलने-चलने, खाने-पीने, उठने-बैठने में साधना नहीं है? एक-दूसरे के साथ सद्व्यवहार करना साधना नहीं है? यदि नहीं, तो मैं कहूंगा साधना का अर्थ आपकी समझ में ही नहीं आया। दो राजा अपने-अपने रथ पर चढ़ शिकार करे गए। एक का रथ जल गया। दूसरे का घोड़ा मर गया। दोनों अपूर्ण हो गए। जंगल से वापस आने में कठिनाई हुई। दोनों ने समन्वय किया। एक ने घोड़ा दिया और दूसरे ने रथ। रथ पूर्ण हो गया, दोनों बैठ नगर में आ गए। इसे दग्धाश्वरथ न्याय कहते हैं। साधना की भी यही बात है। उसका एकांगी रूप पार ले जाने वाला नहीं होता। अमुक देश, काल व प्रवृत्ति में साधना हो सकती है, अन्यत्र नहीं हो सकती, यह आग्रह जहां है, वहां साधना की अखण्डता मान्य नहीं है। दो घंटे साधना में बीते और शेष बाईस घंटे असाधना में, यह जीवन की द्विविधा है। इससे दूसरों के मन में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। प्रातःकाल उठने से लेकर सोने तक जीवन के हर व्यवहार में द्विविधा न रहे, साधना की एकलयता रहे, यही अणुव्रत शब्द से साधना का भाव प्रकट होता है। फिर भी 'अणुव्रत साधना शिविर' में अणुव्रत शब्द के आगे साधना शब्द और जोड़ा गया है। संस्कृत-व्याकरण में 'वीप्सा' शब्द आता है। वीप्सा का अर्थ है- 'व्याप्तुमिच्छा'-अर्थात् व्याप्त होने की इच्छा। वीप्सा में दो बार, चार गर कहना दोष नहीं है। वीप्सा के अर्थ में ही अणुव्रत शब्द के आगे साधना का योग किया गया है। ध्यान, मौन, आसन आदि आवश्यक नहीं, ऐसा नहीं है। पर वे ही साधना नहीं हैं। दिन-भर के व्यवहार में जागरूक रहना साधना है। एक व्यक्ति अभी शिविर में रहा, बहुत धार्मिक था। बड़ी निष्ठा के साथ चार-पांच घंटे ध्यान, मौन आदि करता था। पर व्यवहार की उपेक्षा करता था। पत्नी और ससुराल वाले सब नाराज थे। उन लोगों की भी Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति उन्हें देख धर्म के प्रति अरुचि-सी हो गई थी। वह धार्मिक क्या जो व्यवहार का लोप करे! यहां रहकर साधना की और साधना के बारे में विचार बदले। जीवन में परिवर्तन आया। ज्योंहीं धर्म-आचरण के साथ व्यवहार के प्रति सजग हुआ, साधना को हर व्यवहार में उतारने का यत्न किया तो आसपास का वातावरण प्रसन्न हो गया। यदि जीवन में मानवीय व्यवहार का प्रतिबिम्ब न हो, विचारों में स्पष्टता न हो, मिथ्या दृष्टिकोण हो और हम कल्पना करें, कि ध्यान होगा, कैसे होगा? साधना को एकांगी या विभक्त मानकर चलें तो वह सही है। उपवास, ध्यान, मौन-ये साधन हैं। साधन और सिद्धि का जितना व्यवधान कम होगा, उतनी ही साधना सफल होगी। स्थितप्रज्ञ सारे दिन बोलता है, फिर भी वह मौन है। क्रोध या लड़ाई से मुंह सुजाकर बैठ जाना क्या मौन है? यदि है तब तो बगुला भी ध्यानी हो जाएगा। इसी भ्रम में राम ने बगुले की प्रशंसा की थी ‘पश्य लक्ष्मण! पंपायां, बकः परमधार्मिकः । दृष्ट्वा दृष्ट्वा पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया ॥' राम की बात सुन एक मछली बोली 'बकः किं शस्यते राम!, येनाहं निष्कुलीकृतः । सहचारी विजानीयात्, चरित्रं सहचारिणाम् ॥' बहू रूठकर घर के कोने में बैठ गई। कुछ नहीं खाया। क्या उसे उपवास मानेंगे? कुछ नहीं करना ही साधना नहीं है और कुछ करना ही असाधना नहीं है। साधना वह है, जहां आन्तरिक जागरूकता हो, भले फिर प्रवृत्ति हो या निवृत्ति। On Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internation आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां मन के जीते जीत आभा मण्डल किसने कहा मन चंचल है जैन योग चेतना का ऊर्ध्वारोहण एकला चलो रे • मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि अपने घर में • एसो पंच णमोक्कारो मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता समस्या को देखना सीखें नया मानव: नया विश्व ● भिक्षु विचार दर्शन अर्हम् मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति समय के हस्ताक्षर आमंत्रण आरोग्य को महावीर की साधना का रहस्य घट-घट दीप जले अहिंसा तत्व दर्शन • अहिंसा और शान्ति कर्मवाद संभव है समाधान • मनन और मूल्यांकन जैन दर्शन और अनेकान्त शक्ति की साधना धर्म के सूत्र जैन दर्शन: मनन और मीमांसा आदि-आदि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international - ww.almellorary, o