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धर्म की आत्मा एकत्व या समत्व
धोखादेही वहीं होती है, जहां एकत्व की अनुभूति नहीं है।
धर्म की आत्मा है - सबके साथ एकत्व या समत्व की अनुभूति । इसका जितना तादात्म्य होता है, उतना ही व्यक्ति के जीवन में धर्म का उदय होता है । चिन्तन की इस भूमिका पर देखता हूं तब मुझे लगता है कि हमने धर्म के कल्पवृक्ष की आत्मा का स्पर्श नहीं किया, केवल उसका वल्कल ओढ़ा है । यह स्पर्श समुद्र के किनारे रेत में पड़ी सीपियों, घोंघों और केकड़ों का है, उसके अन्तराल में छिपे रत्नों का नहीं है । ऐसी स्थिति में हम करें क्या? महर्षि टॉल्स्टॉय ने यही प्रश्न खड़ा किया था कि हम करें क्या?
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परिस्थिति की जटिलता से मुक्ति पाने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है । पुरुषार्थ से परिस्थिति के चक्र को घुमाया जा सकता है । परन्तु भारतीय लोग कर्मवाद में सीमा से अधिक विश्वास कर बैठे हैं । करोड़ों लोग भाग्य - भरोसे या राम भरोसे जी रहे हैं । न जाने कितने लोग भाग्य के भरोसे बैठकर दुःख के भंवर में फंस गए हैं और फंसते जा रहे हैं। जो होना है, वही होगा और जो भाग्य में लिखा है, वही होगा - इन दो धारणाओं ने भारतीय जीवन को जितना क्षतिग्रस्त किया है, उतना किसी भंयकर भूचाल और तूफान ने भी नहीं किया। जिसमें अपना पुरुषार्थ नहीं है, उसे दूसरा कौन सहारा देगा? और क्यों देगा ? मैं आपको एक कहानी सुनाऊं, बहुत मार्मिक और बहुत हृदयवेधी |
एक चोर चोरी कर रहा था। घरवाले जाग गए। हल्ला किया । आस-पास के लोग जाग उठे। चोर भागा। आगे-आगे वह भाग रहा था पीछे-पीछे लोग दौड़ रहे थे। इस दौड़ में पुलिस भी उसका पीछा करने लगी । वह दौड़ता-दौड़ता थक गया । कहीं छिपने को कुछ नहीं मिला । जंगल में एक देवी का मंदिर था। वह उस मन्दिर में चला गया ।
उस प्रदेश में देवी की बहुत बड़ी प्रभावना थी । हजारों लोग उसकी पूजा किया करते थे । 'वहां जाकर कोई भी निराश नहीं लौटता,' यह जनप्रवाद निरन्तर फैल रहा था । मन्दिर के प्रांगण में पहुंच चोर कुछ आश्वस्त हुआ । उसने देवी को प्रणाम किया । वह भक्ति भरे स्वर में बोला - ' मां ! मुझे बचा, मैं तेरी शरण में हूं।' देवी उसकी विनम्रता से प्रसन्न हो गई । वह बोली- 'जब तुझे कोई पकड़ने आए तब हुंकार कर
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