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६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
देना, फिर कोई भी तेरे सामने नहीं आ सकेगा।'
चोर-'मां! डर के मारे मेरा गला रुंध गया है, हुंकार मैं नहीं कर सकता।'
देवी-'जो तुझे पकड़ने आए, उसके सामने आंख उठाकर देख लेना फिर तुझे कोई भी नहीं पकड़ सकेगा।
चोर-'मां! डर के सारे मेरी आंखें पथरा गई हैं, मैं आंख उठाकर सामने नहीं देख सकता।'
देवी-'अच्छा, मन्दिर के किवाड़ बन्द कर लेना, फिर तुम नहीं पकड़े जा सकोगे।'
__चोर-'हां! तुम कहती हो, वह ठीक है पर डर के मारे मेरे हाथ सठिया गए हैं, मैं किवाड़ बन्द नहीं कर सकता।'
देवी-'जा, मेरी प्रतिमा के पीछे छिप जा।'
चोर-‘मां! बहुत ठीक कहती हो पर डर के मारे मेरे पैर स्तब्ध हो गए हैं, मैं चल नहीं सकता।'
देवी ने क्रुद्ध स्वर में कहा-'तो ऐसे निर्वीर्य और निकम्मे आदमी की सहायता मैं भी नहीं कर सकती।'
सफलता के लिए हमें नये पुरुषार्थ की आवश्यकता है। आइए, हम एक नया पुरुषार्थ करें और सर्वप्रथम अपनी धर्म-सम्बन्धी धारणाओं का परिष्कार और नये सम्बन्धों या अनुबन्धों की सृष्टि-संरचना करें।
अर्थसत्ता की फलोपलब्धि ऐश्वर्य है। उसके साथ सहानुभूति और संवेदनशीलता का अनुबन्ध होना चाहिए। इससे शोषण और संग्रह-दोनों वृत्तियों पर अंकुश लगता है।
राज्यसत्ता की फलोपलब्धि अधिकार है। उसके साथ आत्मानुशासन का अनुबन्ध होना चाहिए। इससे अधिकार का उच्छृखल उपयोग नहीं होता।
धर्मसत्ता की फलोपलब्धि पवित्रता है। उसके साथ नैतिक अनुबन्ध होना चाहिए। धार्मिक की दृष्टि केवल परलोक की ओर दौड़ती है, वर्तमान जीवन की ओर कम दौड़ती है। धर्म नहीं करने से परलोक के बिगड़ने का डर रहता है घर अनैतिक व्यवहार करने से परलोक बिगड़ जाएगा, यह डर नहीं रहता। एक दिन माला-जप नहीं होता तो मन में
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