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धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता ६३
ग्लानि का अनुभव होता है और सोचते हैं कि आज का दिन निकम्मा चला गया । किन्तु अनैतिक व्यवहार करने में न ग्लानि का अनुभव होता है और न दिन की व्यर्थता प्रतीत होती है। क्योंकि वे इस धारणा से
कड़े हुए हैं कि दो घड़ी धर्म करने से लाखों पाप धुल जाते हैं । आज के धार्मिक से लोग शंकित हैं। उसके बाहरी और भीतरी रूप में सामंजस्य नहीं है । उसका खण्डित व्यक्तित्व धर्म के प्रति जन-मानस में सद्भावना उत्पन्न करने का हेतु नहीं बन रहा है। धार्मिक और अधार्मिक, आस्तिक और नास्तिक के व्यवहार में कोई लक्ष्मणरेखा नहीं रही है। धार्मिक के लिए यह गम्भीर चिन्तन का विषय है । धर्मसत्ता के शक्ति-संवर्धन का एक ही मार्ग सूझ रहा है - वह है एकत्व या समत्व की अनुभूति का विकास और धर्म के साथ नैतिकता का अनुबन्ध ।
४. धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता
धर्म शब्द बहुत पुराना है । जन-मानस उससे बहुत परिचित है। भारतीय मानस और अधिक परिचित है । वह जितना धर्म शब्द से परिचित है, उतना अन्य किसी शब्द से नहीं है । मुझे लगता है अति परिचय के कारण ही शायद धर्म से लगाव या तादात्म्य कम हो गया है। पुराने जमाने में हम धर्म को श्रद्धा के सन्दर्भ में स्वीकार करते थे। आज के वैज्ञानिक युग में प्रयोग के सन्दर्भ में उसे स्वीकार किया जा सकता है धर्म के सम्बन्ध में दो विचारधाराओं के लोग हैं । वे दोनों दो छोर पकड़ कर खड़े हैं। रस्सी के एक सिरे पर वे लोग हैं जो परम्परा से चिपके रहना चाहते हैं। परम्परा या वंशानुक्रम से धर्म का जो रूप प्राप्त हुआ है उसमें परिवर्तन या संशोधन करना नहीं चाहते । धर्म की शल्य-चिकित्सा उन्हें प्रिय नहीं है । रस्सी के दूसरे सिरे पर वे लोग हैं जो धर्म को सर्वथा अस्वीकार करते हैं। ये दोनों धाराएं संतुलन स्थापित नहीं कर सकतीं।
धर्म का आनुवंशिक गुण के रूप में स्वीकार हमें इष्ट नहीं है तो उसका अस्वीकार सर्वथा अनिष्ट है । मैं आपसे पूछना चाहता हूं, क्या धर्म का अस्वीकार किया जा सकता है? जिस व्यक्ति में यत्किंचित्
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