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६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
को समझे बिना नहीं करते। समाज था, तब
चैतन्य है, जो एकता, समता और प्रेम की भाषा में सोचता है, वह धर्म को अस्वीकर कर ही नहीं सकता। संस्थागत धर्म और धर्म के पार्थक्य को समझे बिना कुछ लोग इस आत्म-भ्रान्ति में उलझ जाते हैं कि हम धर्म को स्वीकार नहीं करते। समाज की निष्पत्ति चेतना और अध्यात्म के द्वारा ही हुई है। व्यक्ति एकाकी था, तब वह जंगली पशु की तरह निरंकुश भटकता था। जब उसने समूह बनाकर रहना प्रारम्भ किया, तब उसमें अहिंसा की पहली किरण फूटी थी। इस भाषा को बदलकर भी कहा जा सकता है कि जिस दिन व्यक्ति में अहिंसा की पहली किरण फूटी थी, उस दिन उसने समूह बनाकर रहना प्रारम्भ किया। सामाजिकता का पहला सूत्र है-दूसरे की अस्तित्व की स्वीकृति और मर्यादा का निर्वाह। आप अपने घर में प्रवेश करते हैं, दूसरे के घर में नहीं। अपनी पगड़ी सिर पर रखते हैं, किसी दूसरे की पगड़ी उठाकर सिर पर नहीं रखते। यह व्यक्ति की मर्यादा है, भले कहिए, समाज की मर्यादा है। मर्यादा व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के सुख में बाधा डालने से रोकती है। यह मर्यादा कहां से आयी? इस प्रश्न के उत्तर में मैं कहूंगा-इसका उत्पत्ति-स्रोत धर्म की भावना है, अहिंसा और अपरिग्रह की भावना है। यह कर्तव्य है; यह अकर्तव्य है; यह खाध है; यह अखाद्य है; यह अमृत है, यह विष है; यह घास है, यह अनाज है-यह पृथक्करण हमारा विवेक है। इसका प्रवाह धर्म-चेतना से धरातल से प्रवाहित होता है।
धर्म अपनी आधार-भित्ति-आध्यात्मिकता से बिछुड़कर आरोपित नियमों की जकड़ में आ गया है। जकड़ा हुआ धर्म चेतना को विकास देने के बदले कुण्ठा देता है। मैं नियमों की उपेक्षा नहीं करता और न आपको उस मार्ग की ओर ले जाना चाहता हूं। आचार्य शंकर के शब्दों में-'जब तक इस पिण्ड में अविद्योत्थ जीवत्व है तब तक शंकर भी विधि और निषेधों का किंकर है।' किन्तु अध्यात्म की प्रेरणा से शून्य कृत्रिम नियमों की कारा में बन्दी बनना मुझे पसन्द नहीं है। मैं चाहता हूं मेरा धर्म मेरी स्वतन्त्र चेतना की परिणाति हो। वह जन्मना आरोपित न हो। कोई अपने को हिन्दू मानता है, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध और कोई सिक्ख। इस मान्यता का आधार
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