SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म का पहला प्रतिबिम्ब : नैतिकता ६५ धर्म-भावना है या वंशानुक्रम ? वंशानुक्रम धर्म का प्रेरणा-स्रोत बन सकता है किन्तु उसकी आत्मा नहीं बन सकता। धर्म की आत्मा अध्यात्म है । जिसमें अध्यात्म की चेतना स्फूर्त है वही धार्मिक है । फिर वह किसी भी वंशानुक्रम या परम्परा से सम्बद्ध क्यों न हो । कुछ लोग सोचते हैं, अमुक शासन पद्धति आ गई तो हमारे धर्म का क्या होगा? यह चिन्तन धर्म की निष्प्राण सत्ता से निकलता है । यदि धर्म का अस्तित्व तेजस्वी हो तो उसे कोई भी शासन पद्धति चुनौती नहीं दे सकती। मैं हूं। मेरा अस्तित्व है, तो धर्म का अस्तित्व क्यों नहीं होगा ? धर्म को अपने अस्तित्व से भिन्न मान लेने पर ही उसके अस्तित्व की सुरक्षा का प्रश्न उठता है । धर्म को अनुपयोगी मानने वाली शासन-पद्धति से धर्म की परम्परा को खतरा हो सकता है किन्तु वह भी स्थायी नहीं होगा । जो शासन आरम्भ में परम्परा का विघटन करता है, वही मध्यकाल में उसका सूत्रपात करता है, अन्त में उसका प्रेमी बन जाता है | हमें जितनी चिन्ता परम्परा की है, उतनी धर्म की नहीं है । धर्म रहा तो परम्परा अपने आप रह जाएगी। कोरी परम्परा रही और धर्म नहीं रहा तो वह रहकर भी भला क्या करेगी? मैं पतझड़ से कभी चिन्तित नहीं होता क्योंकि हर पतझड़ के बाद बसन्त आता है । मेरी सारी चिन्ता इसमें व्याप्त होती है कि पेड़ का मूल सुरक्षित रहे । धर्म की आत्मा आनन्द और चैतन्य है । वह धर्म का बहुत ही आकर्षक रूप है। हम उसे कम देख पाते है; क्योंकि हम अन्तर्मुखी दृष्टि का उपयोग कम करते हैं । धर्म बाहर से आया हुआ या स्वीकार किया हुआ नहीं होना चाहिए। उसका स्रोत अन्तर से फूटना चाहिए। कुएं में जल का स्रोत अन्तर से फूटता है । खोदने वाले का काम इतना ही है कि है भूमि के भीतर बहने वाले जल से बाहरी दुनिया का सम्पर्क स्थापित कर दे । परम्परा या सम्प्रदाय का काम भी इतना ही है कि हर व्यक्ति के अन्तस्तल में बहने वाले धर्म के स्रोत से हमारे स्थूल व्यक्तित्व का सम्पर्क स्थापित कर दे । जिसे अपनी आन्तरिक सम्पदाओं का ज्ञान नहीं होता, वह समृद्धि से वंचित रह जाता है । जिसे आपने आप पर भरोसा नहीं होता, वह हतप्रभ और क्षीणबल हो जाता है । बाह्य की स्वीकृति और अन्तर की अस्वीकृति से अन्तर्द्वन्द्व पैदा होते हैं । ऐसा युग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy