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________________ ६६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति इतिहास में पागलखानों के विकास का युग कहलाएगा। पुरानी पीढ़ी के लोग नयी पीढ़ी की धार्मिक अरुचि से चिंतित हैं। किन्तु इस चिन्ता में जीवट नहीं है। क्या वे धर्म का ऐसा रूप रूपायित करने को प्रस्तुत हैं, जिससे नयी पीढ़ी धर्म के प्रति आकृष्ट हो सके? गांव में एक नया डॉक्टर आता है-अपरिचित और अनजान। वह एक-दो अच्छी चिकित्सा करता है और समूचे गांव के आकर्षण का केन्द्र बन जाता है। उस आकर्षण के साथ जनता के लाभ का अनुबन्ध है। हम धार्मिक लोगों के लिए यह चिंतनीय है कि हमारे धर्म के साथ लाभ का अनुबन्ध है या नहीं? धर्म के साथ लाभ का जो अनुबन्ध है वह सारा का सारा परोक्ष, अत्यन्त परोक्ष है, जो मरने के बाद प्राप्त होता है। महान् जैनाचार्य उमास्वाति ने कहा- 'मोक्ष इसी जन्म में हो सकता है।' जब इस जन्म में मोक्ष हो सकता है तो स्वर्ग क्यों नहीं हो सकता? क्या वह धार्मिक है, जिसे इस जन्म में स्वर्ग की अनुभूति नहीं है? मोक्ष की अनुभूति नहीं है? अत्यन्त परोक्षता में आकर्षण पैदा नहीं हो सकता। मरने के बाद स्वर्ग पाने का आकर्षण पहले कभी रहा होगा। आज के चिन्तनशील व्यक्ति में वह नहीं है। वह जीवन पर धर्म की वार्तमानिक प्रतिक्रिया देखना चाहता है। हमारी धार्मिक परम्परा वर्तमान की ओर कम ध्यान दे रही है, इसीलिए वह आकर्षण की केन्द्र नहीं बन रही है। मैं सुदूर भविष्य की चिन्ता नहीं करने का समर्थन नहीं कर रहा हूं। मैं इस तथ्य पर बल देना चाहता हूं कि हम वर्तमान की चिन्ता से विमुख न हों। - आज धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की आवश्यकता अनुभूत हो रही है। धर्म का वह रूप वर्तमान और भविष्य-दोनों को लाभान्वित कर सकता है, जिसकी आधारभित्ति अध्यात्म और फल-परिणति नैतिकता हो। नैतिकता सापेक्ष शब्द है। समाज-सम्मत कर्तव्य की रेखाओं को नैतिकता मान लेने पर उनका स्वरूप कभी स्थिर नहीं होता। देश और काल के परिवर्तन के साथ समाज की नैतिक मान्यताएं भी बदल जाती हैं। ऐसे कार्य बहुत कम मिलेंगे, जिनकी समाज द्वारा कभी निन्दा, कभी प्रशंसा न हुई हो। धर्म से प्रतिफलित होने वाली नैतिकता की कसौटी सामाजिक धारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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