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अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ६७
नहीं, किन्तु व्यक्ति की अपनी पवित्रता होती है । धार्मिक के व्यवहार में शोषण, उत्पीड़न, कुटिलता, दर्प और आवेश नहीं होता । जिस व्यवहार में ये नहीं होते, वह प्रामाणिकता, सचाई और सरलता से ओत-प्रोत होता है । उसी व्यवहार का नाम नैतिकता है । जो जलने पर भी सुवास न दे, क्या हम उसे अगरबत्ती मानेंगे? जिसके व्यवहार में धर्म का प्रतिबिम्ब न हो, क्या हम उसे धार्मिक मानेंगे ? जिस प्रकार धुएं की अग्नि के साथ व्याप्ति है, उसी प्रकार नैतिकता की धर्म के साथ व्याप्ति है । धुएं को देखकर हम परोक्ष अग्नि को जान लेते हैं, वैसे ही नैतिकता को देखकर हम व्यक्ति के अन्तस्तल में प्रवहमान धर्म की धारा का साक्षात् कर लेते है ।
मैं यदि ठीक सोचता हूं तो मेरा अभिमत है कि धर्म का पहला प्रतिबिम्ब है नैतिकता और दूसरा प्रतिबिम्ब है उपासना । इस क्रम का व्यतिक्रम यह सूचित करता है कि हमारी गति में स्वाभाविकता नहीं है, प्लुत संचार है, छलांग भरने की चेष्टा है । नींव की मजबूती के बिना खड़ा किया हुआ प्रासाद क्या लम्बे समय तक टिक सकेगा ? क्या नैतिकता - शून्य उपासना का भव्य भवन इसे त्राण दे सकेगा? मैं इस प्रश्न का उत्तर इस भाषा में देना चाहता हूं कि नैतिकता के बिना उपासना का प्रासाद ढह जाएगा और धर्म का अस्तित्व भूगर्भ में ही सुरक्षित होगा, हमारी दुनिया में नहीं ।
५. अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय
एक तोता पिंजरे में बैठा है । वह कुछ बोल रहा है । उसे जो रटाया गया, उसी की पुनरावृत्ति कर रहा है। तोते में स्मृति है पर चिन्तन नहीं है । मनुष्य में स्मृति और चिन्तन दोनों हैं। मनुष्य कोरी रटी - रटाई बात नहीं दुहराता । वह नयी बात सोचता है, नया पथ चुनता है और उस पर चलता है ।
एक भैंसा हजार वर्ष पहले भी भार ढोता था और आज भी ढो रहा है । वह हजार वर्ष पहले जिस ढंग से जीता था, उसी ढंग से आज भी जी रहा है। उसने कोई प्रगति नहीं की है, क्योंकि उसमें स्वतंत्र चिन्तन नहीं है ।
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