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६८ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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मनुष्य ने बहुत प्रगति की है । वह प्रस्तर-युग से अणु-युग तक पहुंच गया है। वह झोंपड़ी से सौ मंजिले प्रासाद तक पहुंच गया । उसने जीवन के हर क्षेत्र में विकास और गति की है। स्मृति और स्वतन्त्र-चिन्तन की सम्बन्ध - श्रृंखला परम्परा है । यदि मनुष्य परम्पराविहीन होता तो भैंसे से बहुत अतिरिक्त नहीं होता । मानवीय विकास का इतिहास परम्परा का इतिहास है । अतीत की अनुभूतियों के तेल से मनुष्य का चिन्तन दीप जला है और उसके आलोक में उसे वर्तमान की अनेक पगडण्डियां उपलब्ध हुई हैं ।
कुछ लोग परम्परा का विच्छेदन करना चाहते हैं पर ऐसा हो नहीं सकता । जिसमें स्मृति है वह कोई भी व्यक्ति परम्परामुक्त नहीं हो सकता । स्मृति और परम्परा में गहरा अनुबन्ध है । मैं निश्चय की भाषा में कहूं तो मुझे कहना चाहिए कि स्मृति ही परम्परा है ।
हम मनुष्य हैं | स्मृति हमारी विशेषता है । हम अतीत से लाभान्वित होना चाहते हैं इसलिए परम्परा से मुक्त नहीं हो सकते, उसका परिष्कार कर सकते हैं। प्रशिक्षण की यही उपयोगिता है । प्रशिक्षण पशु-पक्षियों को भी दिया जाता है, उनमें पटुता भी आती है पर वे स्वतन्त्र चिन्तन के अभाव में मनुष्य की भांति पटु नहीं बन सकते ।
एक बन्दर को प्रशिक्षित किया गया । वह राजा की परिचर्या में रहता था । एक दिन राजा सो रहा था । बन्दर नंगी तलवार हाथ में लिये पहरा दे रहा था । राजा के गले पर मम्खी बैठ गई । बन्दर ने उसे उड़ाने की चेष्टा की । वह उड़ी नहीं तो बन्दर ने क्रोध में आकर उस पर तलवार चला दी। राजा का गला लहूलुहान हो गया । बन्दर के पास शिक्षा थी, पर मनन नहीं था । वह सन्दर्भ को नहीं समझता था । मनुष्य संदर्भ को समझता है ।
प्रशिक्षण के साथ अपने मनन तथा दर्शन का योग न हो तो वह विकासशील नहीं बनता । आज तक विकास की जितनी रश्मियां इस भूमि पर आयी हैं, वे सब स्मृति, परम्परा, प्रशिक्षण, मनन और दर्शन के वायुमंडल से छनकर आयी हैं। हम धर्म की चर्चा इसीलिए करना चाहते हैं कि इन रश्मियों के केन्द्र में धर्म प्रतिष्ठित है । धर्म की उपेक्षा कर मनुष्य विकास से ही विमुख नहीं होता, किन्तु सामुदायिक जीवन की
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