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६० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
सीधा संबंध नहीं है किन्तु अधिकांश लोग ऐसी ही समस्याओं को सुलझाने के लिए धर्म का उपयोग कर रहे हैं। ___ हमने धर्म के नाम और रूप को पकड़ा है। हमारी दुर्बलता है कि आंखें बाहर की ओर देखती हैं, कान बाहर की सुनते हैं। फलतः हम रूप और नाम की ही प्रतिष्ठा करते हैं।
हम एक साधु के पवित्र जीवन का सम्मान करना नहीं जानते। हम आकार का सम्मान करना जानते हैं। जैन-साधु के रूप को देख एक वैष्णव का सिर श्रद्धा से नहीं झुकता है और एक वैष्णव साधु के रूप को देख एक जैन का सिर श्रद्धा से नत नहीं होता है। इसका कारण आकार की प्रतिष्ठा है, प्रकार की प्रतिष्ठा से हम अपरिचित हैं। आकार के नीचे प्रकार दब जाता है। हमारी दृष्टि नाम और रूप की दीवार के इस पार तक ही पहुंचती है, उस पार तक उसकी पहुंच नहीं है।
कहा जाता है कि धर्म के कारण युद्ध हुए। मैं इस उक्ति-प्रवाह को बराबर चुनौती देता रहा हूं। मेरे पक्ष की स्थापना यह है कि युद्ध धर्म के कारण नहीं हुए, किन्तु नाम और रूप के कारण हुए हैं। धर्म की आत्मा है एकात्मकता। धर्म की आत्मा की हत्या किए बिना युद्ध लड़ा ही नहीं जा सकता। वेदान्त का सिद्धांत हैं-सब जीवों का मूल स्रोत एक है। जैन दर्शन का सिद्धांत है-सब जीव समान हैं। यह सैद्धांतिक एकत्व या समत्व की अनुभूति यदि मनुष्य के व्यवहार में अनुस्यूत होती तो क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से लड़ सकता? क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण कर सकता? क्या एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से घृणा कर सकता? यह लड़ाई, पद, शोषण और घृणा, अनेकता और विषमता की भूमिका पर पनप रही है। एक आदमी दिनभर कठोर श्रम कर धन कमाता है। सारे परिवार के लोग उसका उपभोग करते हैं। पर उनके मन में कोई शिकायत नहीं होती। एक भद्र पति अपनी पत्नी से यह शिकायत नहीं करता कि मैं कमाता हूं और तुम बैठी-बैठी खाती हो। परिवार के साथ एकत्व होता है, इसलिए ऐसी शिकायत का अवसर ही नहीं आता। शिकायत वहीं होती है, जहां अनेकता होती है। क्या कोई राज्यकर्मचारी अपने लड़के से रिश्वत लेता है? क्या कोई दुकानदार अपने लड़के को धोखा देता है? यह रिश्वत और यह
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