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धर्म की आत्मा : एकत्व या समत्व ५६
दिया, 'मनुष्य होने पर भी मेरी समस्या सुलझ नहीं पायी है। मैं चाहता हूं कि मुझे फिर चूहा बना दिया जाए।' शंकर ने वर दिया और चूहा अपने मूल रूप में आ गया।
आज का मनुष्य भी शायद अपने आदिकाल में लौटने की सोच रहा होगा। क्योंकि उसके सामने जो भी समाधान का स्रोत आता है. वह समस्या बनकर खड़ा हो जाता है। मनुष्य ने जिस धन को समस्या के समाधान के लिए मूल्य दिया था, वही आज जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। एक ओर धन के अम्बार लगे हैं तो दूसरी ओर हाहाकार हो रहा है। धन का सम्बन्ध आवश्यकता से कम रह गया है, उच्चता के मानदण्ड से अधिक हो गया है। व्यवस्था और सुरक्षा के लिए जिस राज्यसत्ता का उदय हुआ था, वह आत्मानुशासन-विहीन होकर सुरक्षा का आश्वासन देने में असमर्थ है। राज्यसत्ता को आत्मानुशासन की ओर प्रेरित करने वाली धर्मसत्ता अपने आप में उलझी हुई है। धर्म अपने आप में शक्तिशाली नहीं है। उसका स्वर राज्यसत्ता के पीछे-पीछे भटक रहा है। कहां धर्म का वह प्राचीन तेज और कहां यह निष्प्रभ रूप? लोगों ने धर्म को क्रियाकाण्डों तक सीमित कर दिया, इसलिए ऐसा हुआ है। क्या धर्म के लिए यह शोभनीय है कि उसे अपनी सुरक्षा के लिए राजनीति का सहारा लेना पड़े? सचमुच ज्योति राख से ढंक गई।
धर्म का प्रज्वलित रूप है-एकत्व या समत्व की अनुभूति। आज एक नया चिन्तन स्फुरित हो रहा है। उसमें धर्म का मूल भी उन्मूलित हो सकता है। लोग सोचते हैं, हजारों वर्षों की धार्मिक आराधना के बाद भी क्या मनुष्य की समस्याएं सुलझी हैं? उनका मानना है कि नहीं सुलझी हैं। मैं उनके स्वर में अपना स्वर मिलाने में असमर्थ हूं। फिर भी मैं उनके प्रश्न को टालने की चेष्टा नहीं करूंगा। वे जिस भाषा में सोचते हैं, उस भाषा में कोई भी आदमी कह सकता है कि धर्म से मनुष्य की समस्या नहीं सुलझी है। आप लोग धर्म के द्वारा धन पाना चाहते हैं, रोग मिटाना चाहते हैं और मुकदमा जीतना चाहते हैं। ऐसा चाहने वाले धर्म के द्वारा जिसे सुलझाना चाहिए उसे नहीं सुलझाकर कुछ अन्य ही सुलझाना चाहते हैं। कितना अच्छा हो, ऐसा चाहने वाले लोग किसी कुशल व्यापारी, डॉक्टर और वकील की शरण में जाएं। इन समस्याओं के समाधान का धर्म से
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