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१४४ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
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और आत्मा चेतन है । दोनों का अपना-अपना अस्तित्व है। दोनों अपने - अपने गुण में स्थित हैं। दोनों को विरोधी मानना हमारी भ्रान्त धारणा होगी। इन्द्रियां बाहर की ओर दौड़ती हैं, तब कामना जागती है । कामना जागती है, तब मनुष्य उन्हें शत्रु मान बैठता है । हम सोचें, वे बाहर की ओर क्यों दौड़ती हैं? इसीलिए कि हमारा आत्मा के प्रति गाढ़ अनुराग नहीं है। हमारा अनुराग बाहर की ओर है । बच्चा कोई वस्तु खाना चाहता है, शरीर उसका स्वस्थ नहीं है, इसलिए डॉक्टर या माता-पिता बच्चे को बार-बार रोकते हैं। बच्चे में खाने के प्रति आसक्ति नहीं होती तो डॉक्टर या माता-पिता उसे निषेध नहीं करते। उसके मन में खाने की तीव्र भावना है, इसलिए निषेध किया जाता है । जैसे डॉक्टर का निषेध बच्चे की आसक्ति से जुड़ा हुआ है, वैसे ही संयम व्यक्ति की आसक्ति से जुड़ा हुआ है । बच्चा अज्ञानी होता है। इसलिए वह दूसरों द्वारा निषिद्ध होता है, किन्तु ज्ञानी मनुष्य अपनी आसक्ति का स्वयं निषेध करता है । यही संयम है ।
जैनेन्द्र-क्या संयम नितान्त निरपेक्ष है ? मुनिश्री - निरपेक्ष नहीं, किन्तु सापेक्ष है। जैनेन्द्र-संयम की अपेक्षा क्या है?
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मुनिश्री - जब तक आसक्ति है, तब तक संयम अपेक्षित है । जैसे ही आसक्ति क्षीण हुई, वैसे ही संयम कृतकार्य हो चला । निरपेक्ष मूल्य अपने अस्तित्व का है। शेष वही बचता है । संयम बन्धन नहीं है । वह मुक्ति है और वह मुक्ति, जिसका उत्स अनुराग है ।
'अनुरागाद् विरागः ' - यह संयम का सिद्धांत है। जिसके प्रति अनुराग होगा, उसके प्रतिपक्ष में विराग अपने आप हो जाएगा । आत्मा के प्रति अनुराग, बाह्य के प्रति विराग और बाह्य के प्रति अनुराग, आत्मा के प्रति विराग । बाह्य के प्रति विराग यानी संयम । आत्मा के प्रति विराग यानी असंयम । अनुराग की ओर से कोई नियंत्रण नहीं आता, वह विराग की ओर से आता है। जैसे अध्यात्म का पुरुषार्थ प्रबल होता है, वैसे सयंम बढ़ता है, नियम कम होते हैं। जैसे अध्यात्म का पुरुषार्थ क्षीण होता है, वैसे संयम घटता है, नियम बढ़ते हैं ।
संयम और नियम की दूरी आचारांग सूत्र की भाषा में इस प्रकार
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