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इन्द्रिय-शुद्धि १४५ व्यक्त हुई है-नेव से अंते नेव से दूरे-जिसने नियम ले लिया पर वासना नहीं छूटी, वह न तो दूर है और न नजदीक। बाहरी मर्यादा में बंधा होने के कारण वह करने की स्थिति में नहीं है और आकांक्षा से मुक्त नहीं होने के कारण 'नहीं करने' की अवस्था को भी प्राप्त नहीं है, इसलिए वह विषय से न तो दूर है और न नजदीक।
धर्म के दो रूप हैं-स्वीकृत और आत्मोद्भूत। धर्म आत्मा से उद्भूत होता है। कुएं का पानी स्वीकृत नहीं है और वर्षा का पानी स्वीकृत है। धर्म का प्रभाव सहज है। नियम तट बन सकते हैं, किन्तु प्रवाह नहीं बन सकते।
प्रश्न-वैराग्य से त्याग होता है या त्याग से वैराग्य आता है? संयम से नियम होता है या नियम से संयम आता है?
त्याग से वैराग्य और नियम से संयम आता है, यह कहने में मुझे कठिनाई का अनुभव हो रहा है। वैराग्य और संयम का मूल अनुराग है, यह मैं पहले कह चुका हूं। एक के प्रति गाढ़ अनुराग, दूसरे के प्रति विराग। आत्म के प्रति अनुराग, अनात्म के प्रति विराग, धर्म के प्रति अनुराग अधर्म के प्रति विराग। वैराग्य हर व्यक्ति को हो सकता है और हर वस्तु से हो सकता है। अनुराग से विराग-इसी सिद्धांत का प्रयोग इन्द्रि-शुद्धि की साधना में किया जा सकता है। इन्द्रिय-शुद्धि की समस्या दृश्य जगत् शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक है। इसके साथ हमारा सम्बन्ध इन्द्रियों के माध्यम से होता है। दृश्य जगत् के साथ मन का प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। उसका सम्बन्ध इन्द्रियों के माध्यम से ही स्थापित होता है। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है, उसे रोका नहीं जा सकता। रोका जा सकता है उनके प्रति होने वाला अनुराग। उत्तराध्ययन में एक प्रसंग है-शिष्य आचार्य से पूछता है-'भन्ते! धर्म के प्रति श्रद्धा (घनीभूत अनुराग) होने से क्या प्राप्त होता है?' 'आचार्य कहते हैं- 'धर्म के प्रति श्रद्धा होने से सुख-इंद्रिय-विषयों के प्रति विराग होता है।' यह वही सिद्धान्त है-धर्म के प्रति अनुराग और बाह्य के प्रति विराग। संयम की ध्वनि भी यही है। संयम 'यमु
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