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१४६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
उपरमे' धातु से बना है । हमारी लीनता वस्तु के प्रति जा रही थी, वह लौटकर अपने में आ गई, यही संयम है । संयम में इन्द्रियों के द्वार बन्द नहीं होते परन्तु अन्दर के द्वार खुल जाते हैं। पदार्थ के साथ हमारा विरोध नहीं है । इन्द्रियां और विषय न हमारे शत्रु हैं और न मित्र । वे अपने आप में जैसे हैं, वैसे हैं ।
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जयाचार्य ने 'साधक-बाधक' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रवृत्ति साधक भी है और बाधक भी है। जब प्रवृत्ति आसक्ति के स्रोत से प्रवाहित होती है तो वह सिद्धि में बाधक बन जाती है । जब अनासक्ति के स्रोत से प्रवाहित होती है तो वह साधक बन जाती है । मन का शरीर के प्रति जो विरोध-भाव है, वह हमारी दुर्बलता के कारण है । दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है । जो दोनों के स्वरूप में ऐक्य मान रखा है, उसे भिन्न-भिन्न करना है इसीलिए संकल्प करते हैं कि 'मैं शरीर से भिन्न हूं' । आत्मा में आनन्द अनन्त है । शरीर को कष्ट देने में वह नहीं है । यह भाषा बन गई है कि शरीर को जितना कष्ट दोगे उतना ही धर्म होगा । मैं आपसे पूछना चाहता हूं, धर्म का सम्बन्ध कष्ट से है या आत्मानुभूति से ? यदि आत्मानुभूति से है, तो कष्ट हो या न हो, धर्म होगा । यदि आत्मानुभूति से नहीं है - चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है तो कष्ट हो या न हो, धर्म नहीं होगा । एक व्यक्ति एक मास की तपस्या करता है और पारण में कुश के अग्र भाग पर टिके उतना खाता है । फिर मास की तपस्या करता है । ऐसे तपस्वी की आत्मा यदि ऋजु नहीं है तो वह अनन्त जन्म-मरण तक संसार-भ्रमण करता रहता है, मुक्त नहीं होता। यदि काया को कष्ट देने मात्रा से मुक्ति होती तो कभी हो जाती । सहजभाव से साधना चले, उसमें यदि कष्ट आएं तो उन्हें सहन करें। इससे आध्यात्मिकता प्रज्वलित होगी । इन्द्रियों को कष्ट देना हमारा लक्ष्य नहीं । हमारा लक्ष्य है, उन्हें अनासक्ति के स्रोत से प्रवाहित करना । यह प्रतिसंलीनता या प्रत्याहार का सिद्धान्त है । इसके उपयोग से इन्द्रियों की गति बहिर्मुखी कम और अन्तर्मुखी अधिक हो जाती है । फलतः उनकी ग्रहण - शक्ति की मर्यादा बदल जाती है - आवश्यक अंश गृहीत होता है, अनावश्यक अंश परिहत हो जाता है । इस प्रकार अव्यर्थ और व्यर्थ के बीच एक स्पष्ट रेखा खिंच जाती है ।
जैनेन्द्र- इस आत्मलीनता में मुझे बहुत खतरा दिखाई देता है । यह
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