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प्राणापान-शुद्धि १४७
स्व-रति का भाव आगे चल स्वार्थ में बदल जाता है। स्वार्थ की प्रेरणा में मुझे कोई रस नहीं है। __ मुनिश्री-आप स्व-रति का जिस अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, वह आत्मलीनता से भिन्न है। आत्मलीनता से परमार्थ की प्रेरणा प्रबल होती है। स्वार्थ मोह का रूपान्तर है जबकि आत्मलीनता मोह का विसर्जन। आसक्ति का स्रोत कषाय है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । कषाय का त्याग नहीं होता। व्यवहार की भाषा में कहते हैं क्रोध का त्याग कर दिया। अग्नि पर राख डालने से वह ढंक जाती है पर वह बुझ नहीं जाती। क्रोध का त्याग नहीं होता, वह त्यक्त होता है। चैतन्य उबुद्ध होने से क्रोध की क्षमता नहीं रहती। त्याग की भाषा संकल्प की भाषा है और त्यक्त की भाषा संकल्प-सिद्धि की भाषा है। संकल्प की भाषा अन्तर की भावना का स्पर्श करती है पर तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकती। यदि भाषा और अर्थ में तादात्म्य होता तो. 'मैं अहिंसक हूं'-इतना कहने मात्र से हर कोई अहिंसक बन जाता। शब्द के उच्चारण मात्र से अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। यदि होती तो लड्डू का नाम लेने मात्र से पेट भर जाता। किन्तु ऐसा होता नहीं है। संयम और विधि (कानून) में यही अन्तर है। कानून बाहर की भाषा है और संयम अन्तर की चेतना का जागरण है। ___आसक्ति ऋणात्मक (निषेधात्मक) शक्ति है और अनासक्ति धनात्मक शक्ति है। धनात्मक शक्ति मनुष्य का स्वभाव है। उसका विकास होने पर ऋणात्मक शक्ति जो कि स्वभाव नहीं है, अपने आप नष्ट हो जाती है। इन्द्रिय-शुद्धि के लिए इस सिद्धान्त का प्रयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
३. प्राणापान-शुद्धि
हमारे शरीर में वायु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उससे शरीर और मन-दोनों प्रभावित हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। वायु के मुख्य प्रकार पांच हैं-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इनमें से प्राण और अपान पर हमें कुछ चिन्तन करना है।
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