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________________ १४८ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : श्वास लिया जाता है, वह प्राण है और छोड़ा जाता है, वह अपान है। दोनों का संयुक्त शब्द है, प्राणापान । बौद्ध साहित्य में 'आनापानसती' और जैन - साहित्य में 'आनापान - निरोध' की चर्चा मिलती है । प्राण का केन्द्र नासिकाग्र है । उस पर मन टिकते ही मूल बंध हो जाता है, मूल नाड़ी तन जाती है । नासिकाग्र पर मन और प्राण के योग की यह निश्चित सूचना है। मूल नाड़ी के तनने का अर्थ है वीर्य के अधोगमन की समाप्ति और ऊर्ध्वारोहण का प्रारम्भ । मैंने एक डॉक्टर से मूल नाड़ी के विषय में पूछा। उसने कहा - 'हमारे चिकित्सा - शास्त्र में ऐसी कोई नाड़ी नहीं है, जिससे वीर्य का ऊर्ध्वारोहण हो ।' इस विषय पर मैं लम्बे समय तक सोचता रहा कि ऊर्ध्वारोहण के बिना ऊर्ध्वरता होने की बात सही कैसे होगी ? किन्तु अब मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि वीर्य का ऊर्ध्वारोहण हो, ऐसी नाड़ी शरीर में है और ऊर्ध्वरेता की प्रक्रिया भी सही है । रेत का मूल रक्त है । वह समस्त शरीर में संचालित होता रहता है। कामवासना सक्रिय होती है, तब रक्त का प्रवाह वृषण ग्रंथियों में अधिक होता है । और वहां रक्त का रूपान्तरण रेतस् हो जाता है । वह पूर्ण मात्रा में संचित होकर वासना को उद्दीप्त करता है और अन्त में क्षरित हो जाता है । उसका क्षरण अपान वायु से होता है । प्राणवायु वश में हो तो वह क्षरण रुक जाता है । I क्षरण रुकने के दो अर्थ हो सकते हैं-वीर्य का न बनना और बने हुए का पाचन होना यानी रूपान्तरण होना । प्राणवायु वश में हो तो रक्त का प्रभाव वृषण ग्रन्थियों में कम होता है । रक्त का प्राण - तत्त्व सीधा ओजस् में बदल जाता है । योग-विद्या में वीर्य का स्तम्भन और वीर्य का आकर्षण - ये दो शब्द प्रचलित हैं। रेतस् का पात होते-होते रुक जाता है, वह स्तम्भन है और रक्त से सात्म्य रहकर मस्तिष्क तक पोष देता है, वह आकर्षण है । नवनीत दूध में व्याप्त है। उससे पृथक् नहीं है तो दूध दूध कहलाएगा, नवनीत नहीं । इसी प्रकार रेतस् रक्त में व्याप्त है। उससे पृथक् नहीं है तो रक्त रक्त की कहलाएगा, रेतस् नहीं । फिर भी दूध में जैसे नवनीत की सत्ता है, वैसे ही रक्त में रेतस् की सत्ता है। रेतस् रक्त से अलग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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