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प्राणापान-शुद्धि १४६
न हो और ओज रूप में बदल जाए, यही ऊर्ध्वरेता होने की प्रक्रिया है। रेतस् का प्राणायाम या संकल्पशक्ति द्वारा ओज रूप में पाचन या रूपान्तरण करना भी ऊर्ध्वरेता होने की प्रक्रिया है।
शरीर में सात धातु हैं। सातवीं धातु रेतस् है। सातों साधुओं का सूक्ष्म रूप ओज है। वह धातु नहीं, धातु का सार है। रेतस् का क्षरण अधिक होता है तो ओज कम बनता है और उसका क्षरण कम होता है या नहीं होता है तो ओज अधिक बनता है। ओज की वृद्धि से दृढ़ निश्चय, धैर्य, सहिष्णुता, कुशग्रीय प्रतिभा आदि गुण विकसित होते हैं। इस विकास की पृष्ठभूमि में बहुत बड़ा कर्तव्य प्राणवायु का है। इसी दृष्टि से मैं कह रहा था कि प्राण हमारी शक्ति का आधार है।
प्राणवायु का स्थान नासाग्र से पादांगुष्ठ तक है। उसमें नासाग्र, हृद् और नाभि मुख्य हैं। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में महावीर की मुद्रा के दो अंग माने हैं-पर्यंकासन में शरीर का शिथिलीकरण और नासाग्र पर दृष्टि का स्थिरीकरण
'वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च, दृशौ च नासा नियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैः, जिनेन्द्र! मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ॥'
नासाग्र पर ध्यान करने से श्वास के आने-जाने के क्रम का बोध होता है। उससे प्राणवायु वश में हो जाता है। प्राणवायु के वश में होने का अर्थ है-मन और बिन्दु (वीर्य) का वश में होना।
प्राण, मन और बिन्दु की विजय-रेखा एक ही है। प्राण की विजय होने से मन और बिन्दु की, मन की विजय होने से प्राण और बिन्दु की तथा बिन्दु की विजय होने से प्राण और मन की विजय अपने आप हो जाती है। तंत्रशास्त्र में प्राण को ज्ञान का नाथ कहा गया है
'इन्द्रियाणां मनो नाथः, मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथः, स लयो नादमाश्रितः ॥' प्राणवायु के गमनागमन के साथ मन का योग करें और उसमें लीन हो जाएं। छह मास के अभ्यास से क्लेश और दुःख की मात्रा कम हो जाएगी।
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