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________________ इन्द्रिय- शुद्धि १४३ मुनिश्री - आता है, पर कष्ट का आ पड़ना एक बात है और कष्ट की लीनता दूसरी बात है । भगवान् महावीर के साधना काल में अनेक कष्ट उपस्थित हुए। वे कष्टलीन होते तो उन्हें कभी नहीं झेल पाते । किन्तु वें आत्म-लीन थे, इसलिए उन्हें झेल सके। शल्य-चिकित्सा के समय रोगी की स्पर्श - संवेदना मूर्च्छित कर दी गई। पेट चीरा गया। कोई मनुष्य सामने खड़ा है । वह रोगी के कष्ट की कल्पना कर कांप उठता है । पर जो रोगी है, उसे कोई कष्ट नहीं है । उसकी कष्टानुभूति का माध्यम शून्य कर दिया गया है। इस स्थिति में कष्ट की प्रतीति रोगी में नहीं, किन्तु द्रष्टा में होती है । इसी प्रकार महावीर ने जो कष्ट झेले, उनकी भयंकरता की प्रतीति महावीर को नहीं किन्तु द्रष्टा को हुई । कष्ट की स्थिति को सात्म्य करने पर ही तो कष्ट होगा, अन्यथा कैसे होगा? जैनेन्द्र- यदि आत्म- लीनता मूर्च्छा जैसी स्थिति है तो वह मुझे प्रिय नहीं हो सकती। उसमें चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, और जहां चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, वहां अध्यात्म नहीं हो सकता, ऐसा मैं मानता हूं । मुनिश्री - मैं आत्म-लीन को चैतन्य की मूर्च्छा नहीं बता रहा हूं। मैं यह बता रहा हूं कि आत्म- लीनता घनीभूत हो जाती है, तब चैतन्य इतना पराक्रमी बनता है कि बाह्य के प्रति शून्यता अपने आप आ जाती है । जैनेन्द्र- कुछ लोग मादक द्रव्य के प्रयोग को साधना का अंग मानते हैं, वे क्यों गलत हैं ? मुनिश्री - वे इसलिए गलत हैं कि मादक द्रव्यों के सेवन से चेतना मूर्च्छित हो जाती है। जैनेन्द्र- चेतना की मूर्च्छा आपको पसन्द नहीं है? मुनिश्री नहीं, कतई नहीं। जैनेन्द्र-तब फिर चलिए । मुनिश्री - मेरी समझ में बाह्य संवेदना को शून्य कर चैतन्य को पराक्रम-विमुख बनाने की स्थिति आत्म - लीनता नहीं है। आत्म- लीनता वह स्थिति है, जहां चैतन्य के पराक्रम के सामने बाह्य स्थिति अकिंचित्कर बन जाती है। शरीर, इन्द्रिय और मन आत्मा के विरोधी नहीं हैं । वे अचेतन हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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