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संयम १११
असंयम से जितने आदमी मरते हैं, उतने मौत से नहीं मरते।
शरीरशास्त्री कहते हैं-हम लोग पचास प्रतिशत अपने लिए खाते हैं और पचास प्रतिशत डॉक्टरों के लिए खाते हैं। आंतों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए नहीं खाया जाता, खाया जाता है जीभ की तुष्टि के लिए। भोजन की भूमिका से जीभ की तुष्टि को निकाल दिया जाए तो अन्न का उतना अभाव नहीं रहेगा, जितना आज है। खाने-पीने की आवश्यक वस्तुओं में ध्यान उलझ जाता है, तब मौलिक आवश्यकता पर ध्यान पूर्णतः केन्द्रित नहीं हो पाता। आज ऐसा हो रहा है। विलास या लोलुपता की समस्या ने खाद्य की समस्या को गौण कर दिया है।
और खाद्य की समस्या ने अनेक गौण समस्याओं को मुख्य बना दिया है। हिन्दुस्तान अभी अल्प-साधन वाला देश है। उसमें एक वर्ग विलास
और अनावश्यक वस्तुओं का भोग करे और दूसरा वर्ग भूख से संत्रस्त रहे, यह करुण कहानी है। इसमें असंयम का बहुत बड़ा हाथ है। आचार्यश्री तुलसी राजस्थान में थे। उनके कुछ शिष्य दूसरे प्रान्त में विहार कर रहे थे। आचार्यश्री ने सुना कि उन्हें भोजन कम मिल रहा है, सुविधा से नहीं मिल रहा है। आचार्यश्री ने अपने भोजन में कमी कर दी। सहानुभूति का स्रोत वहां तक पहुंच गया। उन्हें कठिनाई की अनुभूति कम होने लगी। सहानुभूति के अभाव में कठिनाई की अनुभूति प्रखर हो जाती है और सहानुभूति मिलने पर कठिनाई कम न भी हो पर उसकी अनुभूति अवश्य ही कम हो जाती है। यदि सम्पन्न लोग संयम करें तो अभावग्रस्त लोगों को कठिनाई सहज ही कम हो जाती है और यदि वह एक साथ कम न भी हो किन्तु उसकी अनुभूति निश्चित रूप से कम हो सकती है। मनुष्य की सारी समस्याएं वस्तुओं की प्रचुरता से ही नहीं सुलझती हैं। बहुत सारी समस्याएं संयम से सुलझती हैं। हमारे अर्थशास्त्री केवल वस्तुओं के विस्तार में समस्या को सुलझाने की बात कर रहे हैं। इस समय हमारे धर्म-शास्त्रियों के लिए क्या यह आवश्यक नहीं है कि वे वैज्ञानिक पद्धति से संयम की प्रस्तुति करें और यह प्रतिपादित करें कि संयम से मानसिक समस्याओं के साथ-साथ भौतिक समस्याएं भी सुलझती हैं? जब नियम (उपासना पक्ष) प्रधान बनता है और संयम गौण होता है, तब धर्म का क्षेत्र निस्तेज
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