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११० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
उसका मुंह मीठा नहीं हुआ। उसने कहा-'मेरा मुंह तो अभी खारा ही है! वहां रहने वाली चींटी ने कहा- 'मुंह में नमक की डली तो नहीं लायी हो? 'वह तो है', नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने कहा। 'बहन, नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा? __ पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाए बिना कोई भी आदमी सत्य को नहीं पा सकता।
२२. संयम
यदि संयम नहीं होता तो दुनिया में भय और आतंक का एकछत्र साम्राज्य होता। यदि नदी तटों के बीच प्रवाहित नहीं होती तो उससे जनता का उपकार कम, अपकार अधिक होता। हमारे जीवन की धारा संयम के तटों के बीच बहती है, इसीलिए हम हैं और समाज के बीच में जीवित हैं। नीचे साबरमती बह रही है, ऊपर रेलवे पुल है। एक ओर बड़ी लाइन है, दूसरी ओर छोटी लाइन है। पास में ही साइकिलों और पद-गामियों का मार्ग है। सब अपने-अपने मार्ग से गुजर रहे हैं। कोई किसी के मार्ग में बाधक नहीं बन रहा है। यदि व्यवस्था में संयम नहीं होता तो नदी के प्रवाह में रेलें रुक जातीं, मनुष्यों का आवागमन रुक जाता। मनुष्य संयम को जानता है, इसलिए न प्रवाह रुकता है, न रेलें रुकती हैं और न आवागमन रुकता है।
गीता कछुए के संयम का बखान करती है। कछुआ संयम करना जानता है। अपने अवयवों को अपनी सुरक्षा ढाल में संगोपित करना जानता है। इसीलिए वह सियारों के प्रहार से बच जाता है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध ने एक ही भाषा में कहा-'हाथों का संयम करो, पैरों का संयम करो, वाणी का संयम करो, इन्द्रियों का संयम करो और मन का संयम करो।'
हर आदमी अपनी सुरक्षा चाहता है। संयम सबसे बड़ी सुरक्षा है। असंयम से जितने आदमी बीमार होते हैं, उतने कीटाणुओं से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी घायल बनते हैं, उतने शस्त्रों से नहीं होते। असंयम से जितने आदमी बन्दी बनते हैं, उतने पुलिस से नहीं बनते।
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