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८४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
में स्वीकार होता है।
धर्म बुद्धि के द्वारा ही गम्य होता है, अबुद्धि के द्वारा नहीं। .
स्थूल दृष्टि में धर्म का सम्बन्ध श्रद्धा से अधिक है, बुद्धि से कम। गहराई में धर्म का सम्बन्ध बुद्धि के बिना होता ही नहीं। कोई श्रद्धावादी बुद्धिहीन नहीं है और कोई बुद्धिवादी श्रद्धाशून्य नहीं है। ज्ञान और श्रद्धा-दोनों ही हमारे मापदण्ड हैं। फिर एक ही प्रश्न क्यों-क्या धर्म बुद्धिगम्य है? दूसरा भी प्रश्न होना चाहिए-क्या धर्म श्रद्धागम्य है?
१०. धर्म और उपासना
धर्म के लिए सबसे बड़ी समस्या उसे संस्थागत रूप में स्वीकार करना है। जीवन व्यवहार में धर्म के सम्बन्ध में विचार करते समय दो बातें सामने होती हैं :
१. उपासनागत धर्म २. आचारगत धर्म
उपासनागत धर्म में समानता का अभाव है क्योंकि उपासना की अनेक पद्धतियां हैं, परन्तु आचारगत धर्म में समानता है। सामान्य व्यक्ति उपासना को अधिक समझता हुआ धर्म को कम समझता है। लोग कहते हैं कि भक्ति-मार्ग सरल और अच्छा है। एक दृष्टिकोण से यह सही भी हो सकता है, किन्तु वंचना की गुंजाइश भी इसी में सबसे अधिक है। व्यक्ति दिन भर के पापों को मूर्ति के सामने जाकर एक वाक्य-'प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो' में धो लेना चाहता है। वह सारी जिन्दगी के पाप-कर्म एक बार गंगा-स्नान कर धो लेने की असफल कोशिश करता है। वस्तुतः उपासना इसलिए थी कि साधारण व्यक्ति प्रतीक के रूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सके किन्तु कालान्तर में वही भक्ति-मार्ग वंचना का प्रमुख केन्द्र बना। इसके विपरीत आचार-मार्ग में इसकी गुंजाइश नहीं है, क्योंकि व्यक्ति की आत्मिक पवित्रता ही उसका आधार है। ... उपासना में आचार-शुद्धि की बात गौण है। आराधना स्वयं प्रवंचना नहीं है, किन्तु उसे प्रवंचना का रूप दे दिया गया। गंगा-स्नान, मंदिर,
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