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धर्म और उपासना ८५
संत-दर्शन, सेवा आदि उपासना की पद्धतियां विशेष अर्थ के रूप में ठीक थीं किन्तु प्रकारान्तर से लोगों ने समझ लिया कि चाहे जितना पाप करते रहें, कभी-कभी यह उपासना करके सारे पापों से मुक्त हो लेंगे । इस प्रकार की धारणाबद्ध उपासना से धर्म का तत्त्व उससे दूर होता जाता है ।
स्वतंत्र कर्तृत्व का विकास नीतिवाद के सहारे हुआ । अणुव्रत के साथ उपासना नहीं जुड़ी, चरित्र जुड़ा । यह नितान्त नीति की श्रृंखला से बंधा है। मध्यकाल में मूलतः जितना बल उपासना - मार्ग पर दिया गया, उतना चरित्र - मार्ग पर नहीं दिया गया । उपासना लोगों को प्रिय लगी किन्तु विगत पंद्रह सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि इससे चरित्र का ह्रास हुआ है। दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक मंदिरों की स्थिति देखें तो उनमें चित्रित अश्लीलता देखकर अवाक् रहना पड़ता है। इसमें वाममार्गी तांत्रिकों का प्रभाव भी एक कारण रहा किन्तु वह भी आचारवाद को प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण ही हुआ ।
छाया के लिए आचार को पाल समझें और उपासना को उसे बांधने वाली रस्सी । स्थिति यह हुई की पाल तो उड़ गया है और केवल रस्सी रह गई है। उपासना व्यर्थ नहीं है किन्तु वह आवरण बन गई और जहां चरित्र तक पहुंचना था वहां पहुंच ही नहीं सके । मन्दिर, संत-दर्शन आदि से धर्म-भावना जागृत होती है, यह इसके मूल में आशय था किन्तु इसे स्वीकार इस रूप में किया गया कि मन्दिर में जाने, संत-दर्शन करने आदि के बाद शेष कुछ भी नहीं रहा । आचार गौण कर केवल उपासना में ही उलझ गए । कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनका उपासना में विश्वास नहीं किन्तु वे चरित्रवान हैं । वे वस्तुतः धार्मिक हैं। प्रो. गौरा स्वयं को नास्तिक मानते हैं किन्तु गांधीजी उन्हें पक्का आस्तिक मानते थे, क्योंकि प्रो. गौरा का आचार शुद्ध और आध्यात्मिक था।
जहां उपासना पर अधिक बल दिया जाता है वहां चरित्र पर कम जोर दिया जाता है। इसके विपरीत आचारवादियों ने उपासना को कम महत्त्व दिया है। उपासना की पद्धतियां अलग-अलग रहेंगी किन्तु आचार में भेद नहीं होगा। आचार्य निरंजन सूरी ने इन्द्रिय, प्राण, मन, पवन और तत्त्व, इनकी समता का नाम अध्यात्म योग कहा है। हम धर्म में भी प्रियता पसंद करते हैं, अतः धार्मिक क्षेत्र में संगीत, कला, नृत्य आदि
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