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८६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
को मन्दिरों में प्रश्रय दिया गया और उपासना का उसे अनिवार्य अंग बना लिया गया। आचार में प्रियता नहीं है।
मैं मूलतः उपासना को धर्म में बाधक नहीं मानता किन्तु धार्मिक की परिभाषा चरित्र के आधार पर होनी चाहिए। उपासना गौण है और चरित्र मुख्य। उपासना प्रति क्षण नहीं हो सकती किन्तु आचार की स्थिति निरन्तर रह सकती है। जैसे एक व्यक्ति जीवन-भर नैतिक, ईमानदार और प्रामाणिक रह सकता है, किन्तु उपासना समय-समय पर ही कर सकता है। यह सम्भव नहीं कि कोई व्यक्ति दो-चार घंटे अप्रामाणिक रहकर पुनः अवशिष्ट समय में चरित्रवान बन जाए और उसे चरित्रवान मान लिया जाए। उपासना दवा है और आचार भोजन। भोजन सर्वदा किया जाता है किन्तु दवा हमेशा नहीं खायी जाती। उपासना पुष्टि के रूप में है किन्तु आचार सहज धर्म है। यदि वह नहीं रहे तो उपासना का मूल्य नहीं। ___ आचार-शुद्धि की पृष्ठभूमि अपनी पवित्रता और दूसरों के प्रति संवेदनशीलता है। अपनी आचारिक पवित्रता में जंग नहीं लगने देना उपासना की पृष्ठभूमि है। यह सही है कि उपासना धर्म को संवारती है किन्तु मूल धर्म अर्थात् आचार ही है। अर्थात् उपासना का आवरण रूप हटाकर प्रेरक रूप रखना है। इतना होते हए भी उपासना को अणव्रत के साथ नहीं जोड़ना है क्योंकि ऐसा होने से यह भी सम्प्रदाय बन जाएगा। जिस दिन आचार के साथ उपासना जुड़ती है उसी दिन से सम्प्रदाय रूप धारण करते हैं।
अब व्यवहार धर्म के प्रश्न को समझें। धर्म व्यवहार में आना तभी सम्भव होगा जब हम उपासना के दृढ़ संस्कारों को थोड़ा झकझोरें। नीचे आचार की भूमि के अभाव में उपासना तारने वाली नहीं है। व्यवहार दो प्रकार के होते हैं :
१. जिसका दूसरों पर प्रत्यक्ष प्रभाव न होता हो। २. जिसका दूसरों पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता हो।
व्यवहार ही धार्मिकता की कसौटी है। प्रामाणिकता हमारा व्यवहारगत धर्म है, क्योंकि उसकी आस्था बन गई है कि ऐसा न करना आत्म-पतन है। व्यवहार की चुनौती को जब तक धार्मिक स्वीकार नहीं
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