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क्या धर्म श्रद्धागम्य है ? च्३
भविष्य में भी ढोएगा, क्योंकि उसके पास बुद्धि नहीं है । मनुष्य को निर्णायक बुद्धि प्राप्त है । बुद्धि कर्मजा भी होती है। काम करते-करते व्यक्ति उसमें निपुण बन जाता है। एक व्यक्ति इंजीनियर नहीं है पर ज्ञान बढ़ाते-बढ़ाते वह इंजीनियर बन जाता है । सबमें ज्ञान समान नहीं होता । उसमें भी तारतम्य होता है । अवस्था के साथ-साथ अनुभव भी बढ़ते जाते हैं । बुद्धि के विकास में तरतमता होने से धर्म जैसे अनन्त सत्य को पकड़ने में सब क्षमय नहीं होते । एक व्यक्ति धर्म को स्वीकार कर लेता है, दूसरा व्यक्ति कहता है मैं निर्णय करके ही स्वीकार करूंगा। पहला व्यक्ति श्रद्धा-प्रधान है और दूसरा बुद्धिजीवी । आज दो वर्ग हो गये हैं । बुद्धिजीवी हर वस्तु को बुद्धि से निर्णय करने के बाद स्वीकारता है। श्रद्धा प्रधान व्यक्ति हर वस्तु को श्रद्धा से स्वीकारता है । मैं मानता हूं, कोई भी श्रद्धा बुद्धिशून्य नहीं होती ।
एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा - ' आप गुरु किसको मानते हैं? मैंने उत्तर दिया- 'अपने आपको ।' फिर प्रश्न आया - 'यह कैसे, जबकि आप आचार्यश्री तुलसी को गुरु मानते हैं? मैंने कहा- 'मैं उनको गुरु मानता हूं, यह सत्य है । पहले मैंने निर्णय लिया था कि वे मेरे गुरुत्व के उपयुक्त हैं। इसमें निर्णायकता मेरी ही रही । शास्त्र अच्छे हैं, इसमें निर्णायकता व्यक्ति की ही होती है। महावीर, बुद्ध और कृष्ण भगवान् हैं, वे मानने वालों के आधार पर ही तो हैं। वे कहने नहीं आए कि हम भगवान् हैं । हमारे निर्णय में से ही उनका प्रामाण्य है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य मनुष्य की बुद्धि में से ही आता है। श्रद्धालु भी बुद्धि-शून्य नहीं होता । वह उसी की बात को मानता है, जिसमें उसकी बुद्धि स्थिर हो गई है । बच्चा अपनी माता की बात मानता है, चाहे वह जो कुछ भी कहे । श्रद्धा अंधी होती है, क्या यह सत्य है ? अंधा यानी अज्ञान । श्रद्धा हमेशा बुद्धि द्वारा प्रवाहित होती है । जो तीव्र प्रवाह घनीभूत होकर बहता है, वही श्रद्धा है ।
ज्ञान के बिना श्रद्धा हो ही नहीं सकती। पानी के बिना बर्फ नहीं होती । दही दूध का ही सघन रूप है । वैसे ही ज्ञान का घनीभूत रूप श्रद्धा है। जहां बुद्धि अभिव्यक्ति में अल्पक्षम होती है, वहां अन्तःस्तल
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