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८२ मैं मेरा मन : मेरी शान्ति
हैं पर उससे शरीर चिपक जाए, क्या यह हमें मान्य होगा? आज शरीर और सम्पदा की भांति धर्म भी पैतृक हो रहा है, पर ऐसा नहीं होना चाहिए ।
६. क्या धर्म श्रद्धागम्य है ?
एक आदमी हाथ में घड़ा ले समुद्र के तट पर गया। एक ओर समुद्र में जल है, दूसरी ओर घड़ा है । क्या घड़े द्वारा समुद्र का जल ग्राह्य है? यदि मैं कहूं ग्राह्य नहीं है तो यह कहना सचाई से परे होगा । यदि कहूं ग्राह्य है, तो यह अपूर्ण सत्य होगा । वह ग्राह्य है भी और नहीं भी । समग्रता की दृष्टि से ग्राह्य नहीं है । घड़े में व्यग्रता की दृष्टि से ग्राह्य है । घड़े में जितनी क्षमता है, उतना वह समुद्र को रिक्त भी कर सकता है ।
धर्म बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है, यह कहना कठिन है । ग्राह्य नहीं है, यह कहना भी सरल नहीं हैं।
धर्म अनन्त है, उसको बुद्धि के द्वारा ग्राह्य मानना घड़े के द्वारा समुद्र को मापना है । अनन्त सत्य का ग्रहण अनन्त ज्ञान के द्वारा हो सकता है तब यह प्रश्न ही क्यों उपस्थित हुआ - 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?
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बुद्धि हमारे ज्ञान की एक सीमा रेखा है। प्राणिमात्र में ज्ञान का यत्किंचित् मात्र अस्तित्व होता है । एकेन्द्रिय प्राणी में सुख-दुःख की अनुभूति होती है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में ज्ञान का तारतम्य है । प्राणियों में मनुष्य सबसे अधिक ज्ञान का अधिकारी है । इन्द्रियां मनुष्य के पास हैं तो अन्य प्राणियों के पास भी हैं । मन भी अन्य प्राणियों के पास मिलता है । पर बुद्धि हर प्राणी में नहीं मिलती । वह मनुष्य में ही है। मनुष्य में निर्णायक शक्ति होती है। प्रातिभज्ञान भी होता है । जिसको कभी देखा नहीं, जाना नहीं, उसको भी मनुष्य ज्ञान से जान लेता है और देख लेता है । मनुष्य की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अज्ञात को ज्ञात करना चाहता है । अनुसन्धान की परम्परा वर्तमान में ही नहीं, हजारों वर्षों से चली आ रही है । इससे अज्ञात की सीमा छोटी होती जाती है और ज्ञात की परिधि बढ़ती जाती है। बैल सौ वर्ष पहले भी भार ढोता था, आज भी ढो रहा है और
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