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धर्म का रेखाचित्र ८१
करन का आवश्यकता अनुभूत हुई तब घर का निमाण हुआ । अशान्ति और क्लेश से बचाव की आवश्यकता हुई, तब मनुष्य व्रत का अनुसंधान किया ।
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छिलका रहा है, रस सूख गया है। रस्सियों का ताना बना हुआ है, पाल उड़ गया। क्या छिलके से तृप्ति होगी? क्या रस्सियों से छांह होगी ?
चेतना निर्मल, उज्ज्वल और विशद है । उसे साफ करने की आवश्यकता नहीं है । जो गन्दगी मिली है, उसे निकाल फेंको, फिर पानी अपने आप में स्वच्छ है। बाहर से आने वाली गंदगी को रोको, फिर चेतना अपने आप में स्वच्छ है ।
व्रती बनाया नहीं जा सकता, व्यक्ति स्वयं बनता है । चमड़ी हमारे शरीर का व्रत है । यदि वह नहीं होती तो हमारी स्नायुओं का क्या होता ? छिलका आम का व्रत है। यदि वह नहीं होता तो आम-रस का क्या होता ? चमड़ी को कौन कहने गया कि तुम्हें स्नायुओं की रक्षा करनी है ? छिलके को कौन कहने गया कि तुम्हें रस की सुरक्षा करनी है? प्रकृति की हर वस्तु अपना व्रत साथ लेकर ही उत्पन्न होती है । न जाने क्यों मनुष्य का यह मानस ही ऐसा है, जो अपनी सुरक्षा को साथ लिये उत्पन्न नहीं होता ।
एक आदमी ने पूछा - इस अनैतिकता के युग में अणुव्रत सफल होंगे? मैंने कहा- दीये की सफलता अमावस की अंधेरी रात में ही होती है, सूर्य के प्रकाश में नहीं । अंधेरा कितना ही सघन और कितना ही पुराना हो, दीप जलते ही भाग जाता है ।
आचार्य तुलसी के पास कुछ नहीं है, किन्तु संग्रह करने वाले आचार्यश्री के पास आते हैं । यह संग्रह की असंग्रह की ओर गति है । यह अध्यात्म की शक्ति है। ऐसी स्थिति का निर्माण आवश्यक है, जिसमें असंग्रह संग्रह की ओर न जाए, अहिंसा हिंसा की धारा में न मिले।
स्थिति और चलना - दोनों अपने-अपने क्षेत्र में उपयोगी हैं। हमें स्थिति भी मान्य है, परम्परा भी मान्य है । एक वर्ग स्थिति और परम्परा को समाप्त करना चाहता है, दूसरा उससे चिपके रहना चाहता है। ये दोनों ही ठीक नहीं हैं। हमें चलने के लिए धरती चाहिए पर पैर धरती से चिपक जाएं, क्या यह हमें मान्य होगा? दीवार का सहारा ले सकते
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