SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० मैं मेरा मन : मेरी शान्ति : उसके बाद हमें धर्म की कोई अपेक्षा नहीं है ! नदी पार करने के बाद नौका की क्या आवश्यकता है? साधन एक सीमा तक उपयोगी होते हैं, सर्वत्र और सर्वदा नहीं । जब तक अज्ञात है, तब तक धर्म की आवश्यकता है । विज्ञान की उल्लेखनीय प्रगति के बाद भी जानना बहुत शेष है। न्यूटन ने कहा था- दुनिया मेरे बारे में ही सोचती होगी किन्तु मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो समुद्र के तट पर खड़ा खड़ा सीपियों को बटोर रहा है । पहले ज्ञान होता है, फिर श्रद्धा होती है। श्रद्धा ज्ञान का घनीभूत रूप है। पानी का घनीभूत रूप बर्फ और दूध का घनीभूत रूप दही हैं । जो धर्म को नहीं जानते, वे कहते हैं, धर्म के प्रति हमारी श्रद्धा है । यह कैसे हो सकता है? क्या पानी के बिना बर्फ और दूध के बिना दही हो सकता है? जो भौतिक उपकरणों से प्राप्त होता है, वही धर्म से प्राप्त हो, उसके अतिरिक्त कुछ न हो तो फिर धर्म को मानने का आधार क्या है ? जब तक मैं हूं तब तक धर्म का अस्तित्व रहेगा। जब मैं अपने अस्तित्व से दूर रहता हूं, तब धर्म नष्ट हो जाता है, किसी साम्यवादी द्वारा नहीं, अपने आप द्वारा । समाज की दो समस्याएं हैं- आर्त्त और प्रमाद । आर्त्त का उपचार पदार्थ का उत्पादन है । प्रमाद की समस्या का समाधान केवल धर्म है । धर्म कभी पहले प्रिय रहा हो, आज तो नहीं है। लोहे पर मोर्चा मार गया है । उसमें काटने की शक्ति नहीं है। मकान जीर्ण-शीर्ण हो गया है, उसमें शरण देने की क्षमता नहीं है । धर्म से जो प्राप्त होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। दवा स्वास्थ्य लाभ के लिए ली जाती है। लाभ न होने पर भी कोई आदमी दवा लेता ही जाए, यह क्या समझ ? हम ऐसे ज्ञान से भर जाएं, जिससे आचार स्वयं प्रस्फुटित हो । अणुव्रत धर्म तो है किन्तु संदर्भहीन और निर्विशेषण । अणुव्रत अपनी व्रतात्मक सत्ता के कारण धर्म है । व्रत का अर्थ है पर्दा, आच्छादन । सर्दी, गर्मी, धूप, आंधी और आदमी से आदमी का बचाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy