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________________ ११६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति सकता से अधिक कोआपत्ति नहीं होना है। आ ____पारस को ठुकराने की शक्ति किसी भौतिक सत्ता में नहीं हो सकती। अध्यात्म ही एक ऐसी सत्ता है, जिसकी दृष्टि से पारसमणि का पत्थर से अधिक कोई उपयोग नहीं है। काम-भोग को आप पारसमणि मान लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी, किन्तु वह सबसे बढ़िया नहीं है, सुखानुभूति का सर्वाधिक साधन नहीं है। आनन्द के स्रोत का साक्षात् होने पर आदमी उसे वैसे की ठुकरा देता है, जैसे संन्यासी ने पारसमणि को ठुकराया था। - उपनिषद् के ऋषियों ने गाया-आनन्दं ब्रह्म! आनन्द ब्रह्म है। यदि आनन्द नहीं होता तो हमारा जीवन बुझी हुई ज्योति जैसा होता। हमारे शरीर में से एक रश्मिपुंज प्रसृत हो रहा है। हमारी आंखों में प्रकाश तरंगित हो रहा है। यह सब क्या है? हमारे आनन्द की अभिव्यक्ति है। हमारे चेतना में आनन्द का सिन्धु लहरा रहा है। हमारा मन आनन्द की खोज में बाहर दौड़ रहा है। ठीक कस्तूरी मृग की दशा हो रही है। कस्तूरी नाभि में है और वह कस्तूरी की खोज में मारा-मारा फिर रहा है। विषयों की अनुभूति में सुख नहीं है, ऐसा मेरा अभिमत नहीं है। विषयों से प्राप्त होने वाला सुख असीम नहीं है, शारीरिक तथा मानसिक अनिष्ट की परिणति से मुक्त नहीं है। चेतना में आनन्द सहज स्फूर्त है, असीम है और उसके परिणाम में ग्लानि की अनुभूति नहीं है। कुछ मानसशास्त्रियों का मत है कि ब्रह्मचर्य इच्छाओं का दमन है और इच्छाओं का दमन करने से आदमी पागल बनता है। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचर्य निषेधात्मक प्रवृत्ति है। इसलिए उसकी उपादेयता में उन्हें विश्वास नहीं है। भारतीय चिन्तन इससे भिन्न रहा है। भारतीय मनीषी ब्रह्मचर्य को सृजनात्मक शक्ति मानते हैं। उसमें निषेध केवल बाह्य उद्दीपनों का है। वह आन्तरिक चेतना के विकास और मुक्ति का सर्वाधिक प्रभावशाली साधन है, इसलिए उसकी सृजनात्मक शक्ति बहुत व्यापक है। योग के आचार्यों ने हमारे शरीर में सात चक्र माने हैं। उनमें दूसरे चक्र का नाम स्वाधिष्ठान है। यह काम-चक्र है। यह चक्र विकसित नहीं होता तब मनुष्य वासना में रस लेता है। इस चक्र को हम विशुद्धिचक्र (कण्ठ-मणि) से संपृक्त कर देते हैं, तब हमारी आनन्दानुभूति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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