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ब्रह्मचर्य ११५
है। भोग से जीवन का फूल मुरझाता है और त्याग से वह खिलता है।
दशार्णभद्र ने राज्यसत्ता को ही नहीं त्यागा, उसकी वासना को भी त्याग दिया। विषय दुनिया के अंचल में है और वासना हमारे मन के कोने में है। विषय को त्यागकर हम वासना की जड़ को उखाड़ने के लिए आगे बढ़ें, वह त्याग है। विषय को त्यागकर यदि हम वासना को उद्दीप्त कर डालें तो वह त्याग नहीं, त्याग का आभास है।
सच यह है कि हम लोग विषय को त्यागने की बात जितनी जानते हैं, उतनी वासना को त्यागने की बात नहीं जानते। इसीलिए हम बहुत बार त्याग करके भी अत्याग की अनुभूति करते हैं। ___ त्याग तभी होता है, जब अनुराग का स्रोत बाहर से मुड़कर भीतर बहने लग जाता है। एक व्यक्ति ने आवेगों को सहलाते हुए कहा-'बन्धुवर क्रोध! तुम अपना दूसरा घर ढूंढ़ लो। भाई मान! तुम भी चले जाओ। देवी माया! तुम यहां नहीं रह सकती। मित्र लोभ! तुम भी चले जाओ। मेरे अनुराग का स्रोत अब भीतर प्रवाहित होने लगा है। इसलिए वह और तुम एक साथ नहीं रह सकते।' ।
वासना को देखते रहो, उसकी सत्ता हिल उठेगी और विषय की आसक्ति अपने आप विलीन हो जाएगी।
२५. ब्रह्मचर्य
___ एक आदमी संन्यासी के पास गया और धन की याचना की। संन्यासी ने कहा-'मेरे पास कुछ भी नहीं है।' उसने बहुत आग्रह किया तो संन्यासी ने कहा-'जाओ, सामने नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा है, वह ले आओ।' वह गया और पत्थर ले आया। संन्यासी ने कहा--'यह पारसमणि है, इससे लोहा सोना बन जाता है।' वह बहुत प्रसन्न हुआ। संन्यासी को प्रणाम कर वह वहां से चला। थोड़ी दूर जाने पर उसके मन में एक विकल्प उठा-पारसमणि ही यदि सबसे बढ़िया होता तो संन्यासी इसे क्यों छोड़ता? संन्यासी के पास इससे भी बढ़िया कोई वस्तु है। वह फिर आया और प्रणाम कर बोला- 'बाबा! मुझे यह पारसमणि नहीं चाहिए, मुझे वह दो जिसे पाकर तुमने इस पारसमणि को ठुकरा दिया।'
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