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________________ ११४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति दीवट के सहारे बैठा था। अब मैं देखता हूं पतली-सी दीपशिखा पवन के इशारे पर इधर-उधर घूम रही है। उससे एक बहुत पतली-सी धूमशिखा निकल रही है। मैंने मन-ही-मन सोचा, त्याज्य को त्यागना अनिवार्य है। दीप इसीलिए प्रकाश दे रहा है कि वह त्याज्य को त्याग रहा है। हम प्रातःकाल घूमने जाते हैं। चलते-चलते पूरक करते हैं-धीमे-धीमे प्राणवायु को भरते हैं। फिर उसका रेचन करते हैं-बहुत धीमे-धीमे उसे छोड़ते हैं। हम केवल प्राणवायु को ही नहीं छोड़ते, उसके साथ दूषित वायु या कार्बन को भी छोड़ते हैं। हम इसीलिए स्वस्थ हैं कि त्याज्य को त्यागना जानते हैं। जीवन का सूत्र है-काम में लो और त्याग दो। जो इस सूत्र से परिचित हैं, उनके जीवन में प्रकाश है, सुख है और स्वास्थ्य है। जो इस सूत्र से परिचित नहीं हैं, केवल लेना जानते हैं, भोग करना जानते हैं, किन्तु त्याग करना नहीं जानते, उन्हें न प्रकाश प्राप्त है, न सुख और न स्वास्थ्य। जो धन का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे प्रकाश की उपेक्षा कर धुएं को अपने भीतर संचित कर रहे हैं। जो सत्ता का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे स्वास्थ्य की उपेक्षा कर दूषित वायु को अपने भीतर संचित कर रहे हैं। त्याग की प्रतिध्वनि केवल अध्यात्म के मन्दिर में ही नहीं हो रही है, व्यवहार के कण-कण में भी त्याग प्रतिबिम्बित हो रहा है। - यदि मनुष्य त्याग की सत्ता से परिचित नहीं होता तो वह स्वतंत्र और सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। दशार्णभद्र दशार्णपुर का राजा था। वह भगवान् महावीर को वन्दना करने आया। उसे अपने वैभव पर गर्व हो रहा था। इन्द्र भी भगवान को वन्दना करने आया। उसका वैभव देख दशार्णभद्र लज्जित हो गया। गर्व का पारा नीचे को देख चढ़ता है और ऊपर को देख उतर जाता है। दशार्णभद्र के गर्व का पारा सहसा उतर गया। अब उसके सम्मान की सुरक्षा संभव नहीं रही। दशार्णभद्र ने उस राज्य-सत्ता को त्याग दिया, जो प्रकाश पर आवरण डाल रही थी। उसके आत्मिक वैभव के सामने इन्द्र का सिर झुक गया। भोग से शौर्य का दीप बुझता है और त्याग से वह प्रज्वलित होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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