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त्याग ११३
मन बहुत चंचल है। बन्दर बहुत चपल होता है। उसका स्थिर-शान्त बैठ जाना भी एक प्रकार की चपलता है। हमारी चपलता बन्दर की भांति स्वाभाविक नहीं, किन्तु कार्य-हेतुक है। हमारे शरीर की स्थिरता सधती है, वह तपस्या है। तपस्या केवल शारीरिक ही नहीं होती, वाचिक और मानसिक भी होती है। तपस्या की भूख से अनुबन्ध नहीं है। हमारा मन पवित्र होता है तो हम खाकर भी तपस्या कर सकते हैं। मन की अपवित्रता में भूखे रहकर भी तपस्या नहीं कर पाते।
वे प्राणी बहुत भाग्यशाली हैं, जिन्हें पाणि प्राप्त है। वे अधिक भाग्यशाली हैं, जिन्हें वाणी प्राप्त है। वाणी के द्वारा हम बाह्य जगत् से सम्पर्क स्थापित करते हैं। यदि वाणी नहीं होती तो अभिव्यक्ति का क्षेत्र बहुत संकुचित होता। हम वाणी के द्वारा स्वाध्याय करते हैं। स्वाध्याय का अर्थ होता है, एक व्यक्ति को प्राप्त सत्य या अनुभूति का हजारों-हजारों लोगों द्वारा अभिवरण। यह वाचिक तप है। प्रणालिका जल को खेत तक पहुंचा देती है। वह मात्र माध्यम है। मूल है जल की सत्ता। कुएं में जल होता है, प्रणालिका उसे खेत तक पहुंचाती है। वाणी एक माध्यम है। उसका आकर मन और बुद्धि है। ध्यान मानसिक तप है। अनुप्रेक्षा बौद्धिक तप है। सूर्य से हमारी प्राणशक्ति को पोष मिलता है। तपस्या से हमारी आत्म-शक्ति को पोष मिलता है। गीता में कहा है-'यह शरीर है। इन्द्रियां शरीर से अग्रणी हैं, मन इन्द्रियों से अग्रणी है, बुद्धि मन से अग्रणी है, और आत्मा बुद्धि से अग्रणी है।'
कोरा शरीर तपता है तब अहं बढ़ता है। शरीर और इन्द्रियां-दोनों तपते हैं तब संयम बढ़ता है। शरीर, इन्द्रिय और मन तीनों तपते हैं, तब आत्मा का द्वार खुलता है। शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि चारों तपसे हैं, तब आत्मा का साक्षात होता है। यह वह भूमिका है, जिसमें तपस्या स्वयं कृतकृत्य हो जाती है।
२४. त्याग
मैं एक मन्दिर में बैठा था। संध्या की वेला थी। पुजारी आया। दीप . जला, भगवान् की आरती की। दीप को दीवट पर लाकर रख दिया। मैं
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