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कला और कलाकार ११७
स्रोत बदल जाता है। हम आज्ञा-चक्र या भ्रू-चक्र को विकसित कर लेते हैं; तब हमारी आनन्दानुभूति का मार्ग बदल जाता है। मानसशास्त्र के अनुसार काम का उदात्तीकरण होता है। योगशास्त्र के अनुसार काम-चक्र का ऊर्चीकरण होता है। इस ऊर्वीकरण से हमारे मन का सहज आनन्द के साथ सम्पर्क स्थापित हो जाता है। सुखानुभूति के द्वार को बन्द कर कोई आदमी ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। किन्तु आनन्दानुभूति के द्वार को खोलकर ही ब्रह्मचारी बन सकता है।
२६. कला और कलाकार
बहुत अच्छा होता यदि मैं कलाकार होता और कला पर प्रकाश डालता। पर मैं कलाकार नहीं हूं, साधक हूं। साधक भी संयम का हूं, कला का नहीं। मैं व्यापक दृष्टि से सोचता हूं, तो पाता हूं कि जिस व्यक्ति के पास वाणी है, हाथ है, अंगुली है, पैर है, शरीर के अवयव हैं, वह कलाकार है। इस परिभाषा में कौन कलाकार नहीं है? हर व्यक्ति कलाकार है। मैं भी कलाकार हूं।
मनुष्य के अभिव्यक्ति या आत्मख्यापन की प्रवृत्ति आदिकाल से रही है। वह अव्यक्त से व्यक्त होना चाहता है। यह नहीं होता तो वाणी का विकास नहीं होता। यदि यह नहीं होता तो मनुष्य का चिन्तन वाणी के द्वारा प्रवाहित नहीं होता। अव्यक्त का व्यक्तीकरण और सूक्ष्म का स्थूलीकरण क्या कला नहीं है?
उपनिषद् के अनुसार सृष्टि का आदि-बीज कला है। ब्रह्म के मन में आया-मैं व्यक्त होऊं। वह नाम और रूप के माध्यम से व्यक्त हुआ। सृष्टि और क्या है? नाम और रूप ही तो सृष्टि है। जिसमें अभिव्यक्ति का भाव हो और जो उसे व्यक्त करना जानता हो, वही कलाकार है। __कलाकार पहले रेखाएं खींचता है, फिर परिष्कार करता है। कभी-कभी परिष्कार में मूल रूप ही बदल जाता है। मकान का परिष्कार होता है। हर कृति का परिष्कार होता है। परिष्कार विकास का लक्षण है।
कला में हाथ, अंगुली, पैर, इन्द्रिय और शरीर का प्रयोग होता है।
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