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११८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
भगवान् ने हमें पाठ दिया कि हाथ का संयम करो। पैर का संयम करो। वाणी का संयम करो। इन्द्रियों का संयम करो। ___कला का सूत्र है, आंख खोलकर देखो। संयम का मूल सूत्र है, आंख मूंदकर देखो। कला की पृष्ठभूमि में अभिव्यक्ति है। संयम अभिव्यक्ति की ओर प्रेरित करता है। दोनों में सामंजस्य प्रतीत नहीं होता। हर वस्तु में विरोधी युगल होते हैं। एक परमाणु में भी अनन्त विरोधी युगल हैं। जिसमें ये नहीं होते, उसका अस्तित्व नहीं होता।
कला और संयम में भी सामंजस्य है। कला का अर्थ है सामंजस्यपूर्ण प्रवृत्ति। मुझे स्याद्वाद की दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं सापेक्ष दृष्टि से देखता हूं कि कला का विकास सामंजस्य से हुआ है। सत्य कला से विराट् है। सत्य के साथ कला का योग होने से जीवन विकासशील बन जाता है। अगरबत्ती को अग्नि मिलने से सुगन्ध फूट पड़ती है। सत्य और सौन्दर्य का योग होने से जीवन का विकास हो जाता है। जीवन-विकास और कल्याण में अन्तर नहीं है। कल्याण यानी शिव। हमारा शिव सत्य और सौन्दर्य के बीच होना चाहिए। जीवन की पृष्ठभूमि में शिव और आंखों के सामने सौन्दर्य हो तभी सत्यं, शिवं, सुन्दरं की समन्विति हो सकती है।
२७. आस्था का एकांगी अंचल
हमारे कुछ तत्त्ववेत्ता छिलके को समाप्त कर गूदे की निष्पत्ति चाहते हैं। किन्तु प्रश्न होता है, क्या यह सम्भव है? क्या आपने कोई ऐसा फल देखा है कि उसमें गूदा है और उस पर छिलका नहीं है? मैं जहां तक जान पाया हूं, गूदे की निष्पत्ति के लिए छिलके का होना अनिवार्य है। इस अनिवार्यता का अस्वीकार वस्तुस्थिति का अस्वीकार है।
आप सब्जीमण्डी में जाते हैं और संतरे खरीदते हैं। एक किलो संतरे में लगभग आधा किलो छिलके होते हैं। आप छिलके नहीं खाते, उन्हें डाल देते हैं। छिलके डालने होंगे, यह जानते हुए भी आप छिलके-सहित संतरे खरीदते हैं और दुकानदार को एक किलो संतरे के दाम चुकाते हैं। संतरों की फांके छिलकों के बिना सुरक्षित नहीं रहतीं,
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