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________________ आस्था का एकांगी अंचल ११६ इस बुद्धि से आप उनकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं और उनका मूल्य चुकाते हैं। आप छिलके को फेंक देते हैं पर उसे तभी फेंकते हैं, जब संतरा खाने को प्रस्तुत होते हैं। मैं छिलके की तुलना बाह्य चर्या या क्रिया से कर रहा हूं और गूदे की तुलना आत्मानन्द या आत्मानुभूति से कर रहा हूं। आत्मानुभूति पहले ही पदन्यास में परिपक्व नहीं हो जाती। मैं जातना हूं कि बाह्यचर्या आत्मानुभूति नहीं है। किन्तु बाह्यचर्या आत्मानुभूति की परिपक्वता का निमित्त नहीं है, यह मानने के लिए मुझे कोई पुष्ट हेतु प्राप्त नहीं है। मैं मानता हूं कि छिलका त्याज्य है। किन्तु क्या आप नहीं मानेंगे कि फल का परिपाक होने से पूर्व वह त्याज्य नहीं है? समुद्र के तट पर पहुंच जाने वाले हर यात्री के लिए जलपोत त्याज्य है, किन्तु समुद्र के मध्य में चलने वाले यात्री के लिए वह त्याज्य कैसे हो सकता है? क्या हम इसे स्वीकार करेंगे कि समुद्र का पार करने के लिए जलपोत का कोई उपयोग नहीं है? हेय और उपादेय की भूमिका एक और निरपेक्ष नहीं होतीं, वे अनेक और सापेक्ष होती हैं। आत्मानुभूति की भूमिका में आरूढ़ व्यक्ति के लिए बाह्यचर्या का उपयोग समाप्त हो जाता है। पर आत्मानुभूति की भूमिका में आरोहण करने वाले व्यक्ति के लिए उसकी उपयोगिता को कैसे नकारा जा सकता है? समय से पूर्व छिलका उतार लेने पर फल का परिपाक रुक जाता है। समय से पूर्व जलपोत छोड़ देने पर आदमी डूब जाता है। आचार्य रजनीश तथा कानजी स्वामी जिस तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं, उसकी तुलना निम्न निदर्शनों से की जा सकती है कि छिलका अनावश्यक है और तैरने की शक्ति हमारे हाथों में है, इसलिए जलपोत भी हमारे लिए आवश्यक नहीं है। क्या मैं कहं कि उनके इस प्रतिपादन में सचाई नहीं है? क्या किसी स्याद्वादी के लिए ऐसा कोई प्रतिपादन है, जिसमें सचाई का अंश न हो। इस प्रतिपादन में सचाई है पर उसका सम्बन्ध हमारे अस्तित्व की व्याख्या से है, उसकी उपलब्धि से नहीं है। चैतन्य की सत्ता ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति से पूर्ण है। वह प्रारम्भ में अव्यक्त होती है। साधना के द्वारा उसकी क्रमिक अभिव्यक्ति होती है। साधना के तीन अंग हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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