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१२० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
१. सम्यक् दर्शन २. सम्यक् ज्ञान ३. सम्यक् चारित्र
इनमें सम्यक् दर्शन आधारभूत है। उसकी उपलब्धि होने पर सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र उपलब्ध होते हैं। उसकी अनुपलब्धि में दोनों (सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) उपलब्ध नहीं होते। किन्तु इस पौर्वापर्य का यह अर्थ नहीं कि सम्यक् दर्शन होने पर सम्यक् ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान की परिपूर्णता के बीच हजारों योजनों की दूरी है। सम्यक दर्शन की उपलब्धि होने पर ज्ञान का मिथ्यात्व मिट जाता है। पर उसका आवरण सर्वथा क्षीण नहीं होता। ज्ञान की निरावरण दशा सम्यक चारित्र से निष्पन्न होती है।
सम्यक दर्शन होने पर सम्यक चारित्र के पौर्वापर्य का यह अर्थ नहीं कि सम्यक् दर्शन होने पर सम्यक् चारित्र अपने आप हो जाता है। सम्यक् चारित्र आत्मा की स्वकेन्द्रित परिणति होने पर प्राप्त होता है। यदि आत्मदर्शन और आत्मरमण की परिणति एक ही होती तो हर आत्मदर्शी व्यक्ति निरावरण और निष्कषाय हो जाता। किन्तु ऐसा नहीं होता। सम्यक दर्शन की उपलब्धि हो जाने पर भी कषाय क्षीण नहीं होता और कषाय की सत्ता में ज्ञान का आवरण क्षीण नहीं होता। यदि सम्यक् दर्शन उपलब्ध होने पर शेष सब कुछ उपलब्ध हो जाता तो साधना की लम्बाई सिमट जाती। किन्तु वास्तविक जगत् में ऐसा नहीं है। सम्यक् दृष्टि की उपलब्धि हो जाने पर भी साधना की लम्बाई शेष रहती है। सम्यक् दर्शन की पूर्णता होने पर भी सम्यक् ज्ञान की पूर्णता नहीं होती। सम्यक् ज्ञान की पूर्णता होने पर भी संवर की पूर्णता नहीं होती और संवर की पूर्णता हुए बिना मुक्ति नहीं होती। सम्यक् दर्शन की पूर्णता होते ही सम्यक् ज्ञान और संवर की पूर्णता हो जाती है, यह नियम नहीं है, किन्तु नियम यह है कि संवर की पूर्णता सम्यक ज्ञान की पूर्णता और सम्यक् ज्ञान की पूर्णता सम्यक् दर्शन की पूर्णता प्राप्त हुए बिना नहीं होती।
भगवान् महावीर को सम्यक् दर्शन प्राप्त था। सम्यक् चारित्र प्राप्त होने पर भी भगवान् ने साढ़े बारह वर्षों तक तपश्चर्यापूर्वक साधना की थी।
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