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आस्था का एकांगी अंचल १२१
.. सम्यक् दर्शन प्राप्त होने पर उपवास, सामायिक आदि आवश्यक नहीं होते। परम्परा, शास्त्र आदि सब व्यर्थ हैं-इस प्रकार की निरूपणा के द्वारा व्यक्ति को क्रिया से विमुख तथा परम्परा और शास्त्रों के प्रति अनास्थावान किया जा सकता है किन्तु उसकी सृजनात्मक चेतना को स्फूर्त नहीं किया जा सकता।
सृजनात्मक चेतना के निर्माण के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की समन्वित स्थिति आवश्यक है। उसके व्याख्यासूत्र का प्रथम अंश यह होगा कि मनुष्य छिलके में ही उलझा न रहे। वह गूदे तक पहुंचे और उसकी रसानुभूति प्राप्त करे। उसका द्वितीय अंश यह होगा कि मनुष्य छिलके की उपयोगिता को अस्वीकार न करे। आवरण की भूमिका में निरावरण का समारोप न करे।
एक ओर कुछ लोग केवल व्यवहार की भूमिका पर विहार कर रहे हैं। वे निमित्त के सामने उपादान की तथा पर्यावरण के सामने अन्तरात्मा की सत्ता को दृष्टि से ओझल किए हुए हैं। दूसरी ओर कुछ लोग वे हैं, जो वास्तविकता की भूमि पर पैर टिकाए खड़े हैं। उनका मानना है कि उपादान
और अन्तरात्मा की सत्ता ही सब कुछ है। निमित्त और पर्यावरण की कोई उपयोगिता नहीं है। ये दोनों सत्य के अन्तिम छोर हैं। ये परस्पर संपृक्त नहीं हैं, इसलिए खण्डित सत्य हैं। अखण्ड सत्य यह है कि निमित्त के प्रभाव-क्षेत्र में रहने वाला हर उपादान निमित्त से प्रभावित होता है और निमित्त के प्रभाव-क्षेत्र से मुक्त रहने वाला निमित्त से प्रभावित नहीं होता। पहली सांयोगिक अवस्था है और दूसरी स्वाभाविक। जो लोग एकांगी प्रतिपादन करते हैं, वे सांयोगिक अवस्था में स्वाभाविक अवस्था का आरोपण करते हैं। स्वाभाविक अवस्था तक पहुंचना हमारा साध्य है किन्तु वह वर्तमान में हमारे लिए सिद्ध नहीं है। अभी हम सांयोगिक अवस्था में हैं। स्वाभाविक अवस्था की उपलब्धि के बाद हम निमित्त से प्रभावित नहीं होंगे। किन्तु सांयोगिक अवस्था में रहते हुए निमित्त से प्रभावित नहीं होंगे, इस मान्यता में समारोपण है, वास्तविकता नहीं है। ___मनुष्य में प्रतिक्रियात्मक मनोवृत्ति अधिक होती है। साधारण व्यक्ति के लिए सूक्ष्म तक पहुंचना सुलभ नहीं होता, इसलिए वह स्थूल के प्रति अधिक आग्रही होता है। विकासशील व्यक्ति स्थूल में बहुत सार नहीं
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