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________________ १२२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति देखता, इसलिए वह सूक्ष्म के प्रति आग्रही होता है। जब सूक्ष्म की उपासना अधिक हो जाती है, तब मनुष्य का झुकाव स्थूल की ओर होने लगता है। जब स्थूल की उपासना अधिक होने लगती है तब मनुष्य का झुकाव सूक्ष्म की ओर होने लगता है। ये दोनों एकांगी आचरण की प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्तियां हैं। इनसे बचने का उपाय है, सूक्ष्म और स्थूल का संतुलित उपयोग। साध्य साधनों की अपेक्षा सूक्ष्म, दूरगामी और दुर्लभ होता है। स्थूलतम से स्थूलतर और स्थूल तक पहुंचने के बाद हम एक नया मोड़ ले लेते हैं और सूक्ष्म की भूमिका में पहुंच जाते हैं। ___ अग्नि की उपासना करने वाला शीतलता की अनुभूति नहीं कर सकता, क्योंकि शीतलता और उष्णता परस्पर विरोधी धर्म हैं। फिर अन्धकार की उपासना करने वाला प्रकाश कैसे पा सकता है? हमारी आत्मा का शुद्ध रूप अक्रियात्मक है। वही हमारा साध्य है। क्रिया अक्रिया की विरोधी है। इस स्थिति में हम अक्रियात्मकता की ओर कैसे बढ़ सकते हैं? जो जिसका साधन नहीं उसके द्वारा हम साध्य की सिद्धि कैसे कर सकते हैं। यदि क्रियात्मकता अक्रियात्मकता की उपलब्धि का साधन हो तो फिर उनमें कोई स्वरूप-भेद ही नहीं रहेगा। इस प्रश्न-पद्धति पर कटाक्ष करना कठिन है। अन्धकार से प्रकाश मिल सकता है, इसकी पुष्टि के लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं है। किन्तु क्रिया और अक्रिया में आत्यन्तिक विरोध ही है, यह मुझे स्वीकार नहीं है। अक्रिया का अर्थ क्रियान्तर है किन्तु अभावात्मकता नहीं है। जिसका अस्तित्व है, वह निष्क्रिय नहीं हो सकता और जो निष्क्रिय है, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। अस्तित्व और निष्क्रियता में आत्यन्तिक विरोध है। सत् का लक्षण है सक्रियता। सक्रियता के बिना सत् की व्याख्या ही नहीं की जा सकती। मुक्त होने पर आत्मा निष्क्रिय नहीं होती, सक्रिय रहती है। उसे अक्रिय अमुक-अमुक क्रिया से मुक्त होने के कारण कहा जाता है। मुक्त आत्मा खाने की क्रिया से मुक्त हो जाने के कारण अक्रिय हो जाती है, किन्तु ज्ञानात्मक प्रवृत्ति की निरंतरता के कारण वह सतत सक्रिय रहती है। प्यास के अभाव में वह जलपान के सुख से वंचित हो जाती है, किन्तु सहज आत्मानन्द से वह कभी वंचित नहीं होती। हमारा अस्तित्व क्रियाशील है और वह हर स्थिति में क्रियाशील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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