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सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा १२३
रहेगा । क्रियाशीलता हमारा सहज स्वभाव है । उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा । परिवर्तन केवल क्रियाओं में हो सकता है । एक क्रिया समाप्त होती है और दूसरी क्रिया प्राप्त होती है, तब पूर्व क्रिया की अपेक्षा हम उत्तरवर्ती परिणति को अक्रिया कह देते हैं । क्रिया की इस व्यापक समझ के बाद हम सत्य के इस द्वार तक पहुंच जाते हैं कि क्रिया बन्धन का ही हेतु नहीं है, वह मुक्ति का भी हेतु है । वह केवल अन्धकार ही नहीं है, प्रकाश भी है। उक्त चर्चा को हम इस भाषा में भी समेट सकते हैं कि अमुक प्रकार की सक्रियता ( मुक्त अवस्था) को अमुक प्रकार की सक्रियता से साध सकते हैं । यह सिद्धान्त अक्रिया से अक्रिया की उपलब्धि का नहीं किन्तु अमुक प्रकार की सक्रियता से अमुक प्रकार की सक्रियता की उपलब्धि का है । इसमें क्रिया का सर्वथा प्रतिषेध नहीं होता । किन्तु क्रिया की अमुक श्रेणी का प्रतिषेध होता है । अर्थात् साध्य की प्रतिपक्षी सक्रियता का प्रतिषेध और साध्यानुकूल सक्रियता का स्वीकरण होता है । पवित्र क्रिया को आत्म-पवित्रता की प्रतिपक्ष कोटि में नहीं रखा जा सकता, इसलिए क्रिया हमारे जगत् में सर्वथा परिहार्य नहीं है। सूक्ष्म क्रिया की उपलब्धि होने पर स्थूल क्रिया स्वयं निवृत्त हो जाती है । किन्तु सूक्ष्म क्रिया की उपलब्धि से पूर्व स्थूल क्रिया को छोड़ने का प्रयत्न आत्मघाती हो सकता है ।
२८८ सत्य, सम्प्रदाय और परम्परा
उन लोगों में सत्य की जिज्ञासा का दीप बुझ चुका है, जो मानते हैं कि हम वही कहें जो कहते आए हैं, वही करें जो करते आए हैं । ऐसा मानने वाले सत्य को पा चुके हैं। उनके लिए अब कुछ शेष नहीं है - सत्य प्राप्य नहीं है । किन्तु प्रश्न होता है- क्या हम अशेष सत्य को पा चुके हैं? यदि पा चुके हैं तो हमारे लिए साधना अपेक्षित नहीं है । साधना की अपेक्षा यही तो है कि हम प्राप्त सत्य को स्वीकार करें और अप्राप्त सत्य के लिए चलें ।
धार्मिक जगत् में एक बहुत बड़ी आत्म-भ्रान्ति पनपी है । उसका आधार है आग्रह | अपनी मान्यता के प्रति वह आग्रह इस आकार में हो
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