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मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न ३
भीरु है, उतना अभय नहीं है । इस परिस्थिति के संदर्भ में मैं फिर उसी रेखा पर पहुंचता हूं कि भय स्वाभाविक है, अभय स्वाभाविक नहीं है ।
काल की लम्बी शृंखला में अनेक तत्त्वविद् हुए हैं। उन्होंने गाया है - 'काम ! मैं मेरा रूप जानता हूं । तू संकल्प से उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, फिर तू मेरे मन की परिधि में कैसे आएगा ? किन्तु ऐसे गीत गाने वाले भी उससे अनेक बार पराजित हुए हैं | ब्रह्मचर्य के लिए जिस कठोर संयम की साधना है, उसे देख हर कोई इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि अब्रह्मचर्य स्वाभाविक है, ब्रह्मचर्य स्वाभाविक नहीं है ।
मैं नहीं समझ सका - यह क्या है और क्यों है कि जिस वस्तु के प्रति सहज आकर्षण है, उसे हम हेय मान बैठे हैं और जिसके प्रति हमारा सहज आकर्षण नहीं है उसे उपादेय ।
आकर्षण उस वस्तु के प्रति होता है, जिसकी आवश्यकता हमें अनुभूत होती है। अन्न और जल की आवश्यकता प्रत्यक्ष अनुभूत है । दुनिया के किसी भी अंचल में कोई किसी को यह उपदेश नहीं देता कि तुम अन्न खाओ, जल पीओ । अन्न खाना और जल पीना जरूरी है । यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें पछतावा करना होगा। 'मैं सौगंध खाकर कहता हूं कि तुम अन्न खाओ, जल पीओ; तुम्हें सुख मिलेगा' - यह कहते मैंने किसी को नहीं सुना । उपदेश की जरूरत क्या है ? भूख लगती है तो वह अपने आप रोटी खाता है । प्यास लगती है तो वह अपने आप पानी पीता है। भूख लगने पर न खाने से कष्ट होता है और खाने से सुख मिलता है। हर आदमी चाहता है कि कष्ट न हो, सुख मिले। इसलिए वह खाता है। खाने के प्रति इसीलिए आकर्षण है कि उसके बिना कष्ट होता है, घुटने टिक जाते हैं, काम नहीं चलता ।
मैं आपसे पूछूं- क्या आपको धर्म की आवश्यकता का अनुभव होता है? क्या उसके बिना आपको कष्ट होता है ? घुटने टिक जाते हैं ? आपका काम नहीं चलता? ऐसा अनुभव नहीं है। यदि उसकी आवश्यकता का प्रत्यक्ष अनुभव होता तो उसके लिए उपेदश देने की जरूरत नहीं होती। सौंगंध खा-खाकर धर्म की प्रशंसा के पुल बांधने आवश्यक नहीं होते। ऐसा होता है, इसीलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते
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