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४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
हैं कि धर्म स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक वह है जो शरीर की मांग है। स्वाभाविक वह है जो मन की मांग है। जीवन और क्या है? देह
और मन का संयोग ही जीवन है। जीवन की परिभाषा है, स्वाभाविक मांग की पूर्ति। क्या धर्म जीवन की स्वाभाविक मांग है?
मैं देखता हूं कि हजारों वर्षों से हजारों व्यक्तियों ने अस्वाभाविक को स्वाभाविक बनाने का प्रयत्न किया है, फिर भी वह पाषाण-रेखा मिट नहीं सकी। आज भी आहार, नींद और मैथुन के प्रति वही आकर्षण है, जो हजारों वर्ष पहले था। उपवास, जागरण और ब्रह्मचर्य से आज भी मनुष्य उतना ही कतराता है, जितना हजारों वर्ष पहले कतराता था। लड़ाई, घृणा और शोक उतने ही प्रिय हैं, जितने हजारों वर्ष पहले थे। शान्ति, प्रेम और प्रसन्नता से वह आज भी उतना ही दूर है, जितना हजारों वर्ष पहले था। ___आप पूछेगे-इस सूरज ने किया क्या? वह प्रतिदिन नील नभ में चमकता है, फिर भी अंधकार है और वह वैसा ही है। यह प्रकृति द्वन्द्व को चाहती है। इसीलिए अंधकार भी है और प्रकाश भी है। सूरज बेचारा क्या करे?
__ आप पूछेगे-इन औषधों ने क्या किया? जैसे-जैसे उनका प्रयोग बढ़ा है, वैसे-वैसे बीमारियां बढ़ी हैं। यह प्रकृति द्वन्द्व को चाहती है। इसीलिए बीमारियां भी हैं और औषध भी हैं। वैद्य बेचारा क्या करे?
३. स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य
सांझ की वेला थी। सूरज अभी आकाश पर था। अचानक बादल आए। आकाशसहित सूरज आवृत हो गया। बूंदें गिरने लगीं। देखते-देखते धारा-संपात हो चला। बिजली कौंधी। ओले बरसने लगे। मैं देखता हूं, सामने पेड़ पर एक बन्दर बैठा है। वह ठंड के मारे ठिठुर रहा है। मैं तत्काल सुदूर अतीत की ओर लौट चला। मैंने सोचा, आज आदमी भी ऐसे ही ठिठुरता, यदि उसमें शून्य को भरने का चैतन्य और पौरुष नहीं होता। शून्य स्वाभाविक है। पर प्रबुद्ध मनुष्य ने उसे सदा चुनौती दी है और उसे भरा है। गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण प्रकृति पर मनुष्य
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