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________________ स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य ५ की महान् विजय है। ___मैंने देखा, चूल्हे में आग जल रही है। दूध उबल रहा है। आंच तेज हुई। दूध में उफान आया। पास में बैठी युवती ने जल के छींटे डाले। उफान शान्त हो गया। फिर उफान और फिर जल के छींटे-तीन-चार आवृत्तियों के बाद दूध का पात्र नीचे उतार लिया गया। उबलते दूध का उफनना स्वाभाविक है। क्या स्वाभाविक को चुनौती दिए बिना मनुष्य का पौरुष प्रज्वलित नहीं होता? मैं मन-ही-मन सोच रहा था। न जाने किस अज्ञात दिशा ने मुखर स्वर में कहा-हर पौरुष प्रकृति को चुनौती है। वह देकर ही मनुष्य दूध पी सकता है। ___मैं ऊपर की दोनों घटनाओं के संदर्भ में देखता हूं-हमारी दृश्य-सृष्टि में स्वाभाविक वही है, जिसे पौरुष की चुनौती नहीं मिली है। उसके मिलते ही जो 'है' वह 'होता है' के आकार में बदल जाता है। 'है' और 'होने' के बीच की जो दूरी है, वही पुरुष है। 'है' और 'होने' के बीच की दूरी को जो घटाता है, वह पौरुष है। मनुष्य है' की अपेक्षा 'होना है' को अधिक पसन्द करता है। इसीलिए उसका सनातन स्वर है-'पुरुष! तू पराक्रम कर।' मैं सागर के तट पर बैठा-बैठा अतल गहराई में छिपी हुई उसकी आत्मा को निहार रहा था। मैंने देखा, उसी क्षण सामने की ओर से ऊर्मियां आयीं और मेरी छाया से टकराकर फिर असीम विस्तार की ओर लौट गईं। क्या मैं इसे स्वीकार करूं कि सागर में ऊर्मियों का होना स्वाभाविक नहीं है? क्या यह स्वीकार सत्य के साथ आंख-मिचौनी जैसा नहीं होगा? क्या में उससे लाभान्वित होऊंगा? सागर का होना और ऊर्मियों का न होना वैसा ही असत् है, जैसा कि सूर्य का होना और दिन का न होना। क्या मैं इस तथ्य को स्वीकार करूं कि देह के सागर में मन का जल हिलोरे भर रहा है, किन्तु उसमें काम, क्रोध और भय की ऊर्मियां नहीं हैं? क्या इस स्वीकार मात्र से मैं अध्यात्म की चोटी पर चढ़ जाऊंगा? मैं सचाई को अनावृत करने में जो लाभ देखता हूं, वह आवृत करने में नहीं देखता। मैं कंबल से लिपटा हुआ कमरे के एक पार्श्व मैं बैठा हूं। उसका एक दरवाजा खुला है। खिड़कियां बन्द हैं। उत्तर की बर्फीली हवा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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